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पहले साइकिल-रिक्शा से होता था चुनाव का प्रचार, अब निकलता है लक्जरी वाहनों का काफिला

साल दर साल बदल रहा चुनाव का स्वरूप व प्रत्याशियों का काम करने का तौर-तरीका

साल दर साल बदल रहा चुनाव का स्वरूप व प्रत्याशियों का काम करने का तौर-तरीका भभुआ सदर. साल दर साल बदलते वक्त के साथ ही किसी भी चुनाव का स्वरूप और प्रत्याशियों का काम करने का तौर-तरीका भी बदलता जा रहा है. अब चुनाव में प्रत्याशियों के पीछे लक्जरी और महंगी गाड़ियों का काफिला निकलता है. बडे-बड़े होर्डिंग्स लगाये जाते हैं. एक-एक पद के लिए कई-कई लोग खड़े होते हैं. एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए प्रचार में खामियां गिनाते हैं. कार्यकर्ताओं को खाने-पीने का खर्चा दिया जाता है और वे घर से निकलने के बाद चौक-चौराहों पर ही नाश्ता करते हैं और प्रत्याशी के प्रचार में जुटे रहते है. ऐसे कई सारी परिवर्तन के बीच अतीत के झरोखे में विधानसभा चुनाव की कई स्मृतियां लोगों के जेहन में आज भी मौजूद है. दरअसल, पहले के चुनावों में रुपये-पैसे का खेल नहीं होता था. समाज के लिए काम करने वाले व उनके विश्वास को जीतने का माद्दा रखने वाले आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को भी मौका मिलता था. लेकिन, अब वित्तीय शक्ति मिलने के साथ ही प्रतिनिधियों की हैसियत तो बढ़ी है, लेकिन प्रतिष्ठा में कमी और लूटखसोट व कमीशनखोरी के साथ दबंगता भी बढ़ी है. वहीं, आज भी ऐसे जीवित लोग बचे है जो अपने घर से सत्तू खाकर नेताओं का चुनाव प्रचार करने निकलते थे. आने जाने का विशेष साधन नहीं होने के चलते एक जगह से दूसरी जगह साइकिल या रिक्शे से प्रचार करते थे. = स्वच्छ छवि के नाम पर लोग देते थे वोट सीवों गांव निवासी 85 वर्षीय गणेश सिंह बताते है कि पहले जो भी उम्मीदवार रहे, उनका एक आदर्श होता था और अधिकतर स्वच्छ छवि के लोग ही चुनाव में आते थे. लोग उनके नाम पर वोट देते. उन्हें प्रचार के लिए हथकंडे नहीं अपनाने पड़ते थे. तब, बड़े-बड़े काफिले या गाड़ियों का हुजूम नहीं चलता था. साइकिल या रिक्शे में आ जाते थे. आज वैसी बात नहीं है. आज तो किसी भी चुनाव में जितने के लिए पानी की तरह पैसे बहाये जा रहे. आज राजनीति को भी लोगों ने पेशा बना लिया है. आज कार्यकर्ताओं को खर्चा दिया जाता है. जबकि, उनके जमाने में अपने घर से लोग खाना और नाश्ता करके निकलते थे. = समूह में सज-धजकर वोट डालने जाती थीं महिलाएं शहर के वार्ड पांच की रहने वाली 90 वर्षीय रुक्मिणी कुंवर बताती हैं कि पहले चुनाव लड़ने से महिलाओं का दूर-दूर तक वास्ता नहीं था और गांव की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं ही एकजुट होकर वोट डालने जाती थीं. धीरे-धीरे समय बदला तब गांव की अन्य महिलाएं भी वोट देने जाने लगीं. घर के कामकाज निबटाने के बाद दोपहर में पूरे गांव की महिलाएं सज-धजकर वोट डालने के लिए समूह में निकलती थीं और रास्ते में गीत गुनगुनाते हुए जाती थीं. मतदान केंद्र पर भी महिलाओं को खूब सम्मान दिया जाता था. = साधारण तरीके से होता था पहले प्रचार चांद प्रखंड के बड़हरिया गांव निवासी बनारसी सिंह बताते है कि पहले तो इतने वाहन नहीं होते थे. चुनाव प्रचार साधारण तरीके से होता था. अब तो छोटे बड़े सभी कार्यकर्ताओं के पास भी गाड़ियां है, वो आसानी से एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाते हैं. सड़कें बन गयी है, वाहन चलने लगे हैं. इसलिए चुनाव प्रचार करना बहुत सरल हो गया है. पहले पैदल ही एक गांव से दूसरे गांव का भ्रमण किया जाता था. साइकिल, तांगा और रिक्शे पर प्रचार होता. इतना ही नहीं जहां दस लोग मिले, वहीं खड़े-खड़े सभा कर ली जाती थी. खेतों में काम कर रहे किसानों के बीच प्रत्याशी मेड़ पर बैठकर घंटों बतियाते थे. = अब आधी आबादी को आगे बढ़ने का मिला रहा है मौका बेतरी गांव निवासी जयप्रकाश सिंह बताते है कि पहले इतनी आबादी और जागरूकता नहीं थी. लोग भी सभा में नहीं जुटते थे, उन्हें जुटाया जाता था. साइकिल और तांगा से प्रचार होता था. वह स्वयं भी साइकिल से प्रचार करने के लिए जाते थे. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान भी साइकिल से प्रचार किया जाता था और कांग्रेस की दमनकारी नीतियों को बताया जाता था. बताया कि पहले गांव चौपाल और खलिहान में महफिल जुटती थी. वहां से निकलने वाली किस्से-कहानियां घर में सुनायी जाती थी. महिलाओं को पुरुष के हिसाब से चलना पड़ता था. लेकिन, अब महिलाओं में जागरूकता आयी है और आज वह खुद ही अपने फैसले लेने लगी हैं.

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