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तांत्रिक विधि से होती मां परसंडा की पूजा, लगता है छप्पन भोग

गिद्धौर के उलाय नदी तट पर चंदेल राजवंशियों द्वारा स्थापित दुर्गा मंदिर में आदिशक्ति की आराधना 400 वर्ष पूर्व से ही नियम निष्ठा के अनुरूप होती चली आ रही है.

कुमार सौरभ, गिद्धौर

गिद्धौर के उलाय नदी तट पर चंदेल राजवंशियों द्वारा स्थापित दुर्गा मंदिर में आदिशक्ति की आराधना 400 वर्ष पूर्व से ही नियम निष्ठा के अनुरूप होती चली आ रही है. गिद्धौर के चंदेल वंश द्वारा स्थापित यह दुर्गा मंदिर तप जप साधना के लिए प्रतिष्ठित देवस्थल के रूप जाना जाता है. गिद्धौर की ऐतिहासिक दुर्गा पूजा को ले सदियों से यहां एक कहावत प्रचलित है कि काली है कलकत्ते की, दुर्गा है पतसंडे की. अर्थात जो मां काली की प्रतिमा की दिव्यता व भव्यता का स्थान कोलकाता में है. ठीक उसी प्रकार गिद्धौर के उलाय नदी तट पर अवस्थित गिद्धौर दुर्गा मंदिर में दशहरे पर स्थापित होने वाली मां पतसंडा की प्रतिमा का है. यहां शारदीय नवरात्र पर अंतरजिला के श्रद्धालुओं का विशाल जन समूह मां पतसंडा के दर्शन को उमड़ती है. गिद्धौर के इस दुर्गा मंदिर के संदर्भ में गिद्धौर राज रियासत के ज्योतिषाचार्य डॉ विभूति नाथ झा बताते हैं कि यहां तंत्र विधान की कुंडलिनी पद्धति से पौराणिक परंपरा के अनुरूप मां दुर्गा की आराधना यहां करायी जाती रही है, वहीं दशहरा पर्व पर मां दुर्गा के आराधना को ले गिद्धौर राज रियासत के विद्वान पंडित स्व. भूषण मिश्र द्वारा तंत्र विधान की कुंडलिनी पद्धति से मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करवायी जाती थी, जो वर्तमान में उनके पारिवारिक सदस्य के पुरोहित पंडित महेश चरण जी महाराज व पन्ना लाला मिश्र व उनकी टीम द्वारा संपूर्ण विधि विधान से कराई जा रही है वही आज भी कायम है. महाअष्टमी के दिन मां भगवती को छप्पन प्रकार का भोग लगाया जाता है. इस दिन मां को स्वर्ण मुकुट से सुशोभित हो आम आवाम को दर्शन देती हैं. मंदिर का पट खोल दिया जाता है. चंदेल राज घराने के परंपरा के अनुरूप राज परिवार के सदस्यों द्वारा यहां भैंसा भेड़ पाठा की नवमी के दिन बलि दी जाती थी, जो आज भी कायम है.

अंग्रेजी शासक भी गिद्धौर मेले की बढ़ाते थे शान

गिद्धौर के ऐतिहासिक दशहरा में गिद्धौर महाराजा के आमंत्रण पर तत्कालीन बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर एडेन, एलेक्जेंडर मैकेंजी एड्रफ फ्रेजर, एडवर्ड ब्रेकर जैसे शासक गिद्धौर के इस दशहरा में गिद्धौर महाराजा के आमंत्रण पर गिद्धौर के दशहरा में शिरकत कर मेले में भाग ले यहां की पूजन संस्कृति की शोभा बढ़ाते थे.

वर्ष 1566 में अलीगढ़ के कारीगरों ने किया दुर्गा मंदिर का निर्माण

गिद्धौर रिसायत के आठवें वंशज पूरनमल ने सन् 1566 में गिद्धौर के उलाय नदी तट पर अलीगढ़ के स्थापत्य कला से जुड़े राज मिस्रियों को बुलाकर शास्त्र विधि विधान के अनुरूप उलाय नदी तट पर मां दुर्गा मंदिर का निर्माण कराया था. इस मंदिर में मां दुर्गा की पूजा-अर्चना परंपरा अनुरूप तब से आज तक निरंतर होती चली आ रही है. हालांकि, इस मंदिर का जीर्णोद्धार कई बार हो चुका है, लेकिन मंदिर की मूल संरचना वही है. 19वीं व 20वीं सदी के पूर्वाद्ध में गिद्धौर महाराजा जय मंगल सिंह, महाराजा रावणेश्वर सिंह, महाराजा चंद्रचूड़ सिंह, चंदेल राज रिसायत से जुड़ी अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन करते हुए यहां के दशहरा को प्रांतीय स्तर पर लोकप्रिय बनाये रखा, वहीं रिसायत के अंतिम उत्तराधिकारी महाराजा बहादुर प्रताप सिंह ने वर्ष 1996 में इसे जनाश्रित घोषित कर दिया. तब से लेकर आज तक तत्कालीन महाराजा बहादुर प्रताप सिंह के नेतृत्व में ग्रामीण स्तर पर गठित शारदीय दुर्गा पूजा सह लक्ष्मी पूजा समिति द्वारा यहां यह दशहरा लोक आस्था व परंपरा अनुरूप निरंतर जारी है. वहीं वर्तमान समय में गिद्धौर महोत्सव खेल तमाशा मनिहारी शृंगार की दुकानें सर्कस काष्ठ बाजार टॉवर झूला सहित कई खेल तमाशे यहां के मेला की शोभा बढ़ाते हैं.

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