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क्रोध तात्कालिक पागलपन है : मुनिश्री विशल्यसागर

जेल रोड स्थित श्री दिगंबर जैन चंद्रप्रभु मंदिर में चातुर्मास कर रहे दिगंबर जैन मुनि के प्रवचन में उमड़ रहे श्रद्धालु

आरा.

जेल रोड स्थित श्री दिगंबर जैन चंद्रप्रभु मंदिर में चातुर्मास कर रहे दिगंबर जैन मुनि श्री108 विशल्य सागर जी महाराज पर्युषण महापर्व के अवसर पर धर्मसभा में कहा कि क्रोध तात्कालिक पागलपन है. उत्तेजना में किया गया एक दृष्कृत्य है. एक उफान है. एक तूफान है, पर ध्यान रखना उतावलेपन में किया गया कार्य तात्कालिक आनंद प्रदान करता है, पर अपने पीछे अनंत पश्चाताप को छोड़कर चला जाता है. इसलिए क्रोध को जहर कहा है.

बेहोशी कहा है. अग्नि की ज्वाला कहा है. आत्मा में पनपता नासूर कहा. मस्तिष्क की विक्षिप्तता कहा. क्षय रोग कहा. क्योंकि यह क्रोध जीव को मारता है, जलाता है, तड़पाता है, पागल बनाता है, शरीर को खोखला करता है, अकुलाहट पैदा करता है, निर्मल यश को धूमिल करता है, मन, वचन, कार्य से नियंत्रण को हटाता है, प्रेम -भाव को तिरोहित करता है. यह क्रोध महा भयंकर है. यह क्रोध अपना तथा अन्य का भी घात करता है. धर्म को छोड़ता है. पाप का आचरण करता है. उचित की पूजा में विघ्न डालता है. निंदनीय वचन बुलवाता है. यानि क्रोध न करने योग्य समस्त क्रिया करवा देता हैं. इसलिए जबतक भीतर क्रोध रहता है, तब तक हमारी सारी क्रिया अस्त-व्यस्त रहती है. कभी आपने विचार किया कि क्रोध क्यों आता है? छोटा सा समाधान है. जहां अपेक्षा की उपेक्षा होती है, वहीं क्रोध आता है.जहां ””””मैं”””” को चोट लगती हैं ,वहीं क्रोध आता है.जहाँ मनोनुकूल क्रिया नहीं होती है, वहीं क्रोध आता है. क्योंकि मनुष्य की प्रवृत्ति है, वह जैसा चाहता है ,वैसा ही पाना चाहता है.अगर वैसा न मिले तो क्रोध बाहर आ जाता है.

वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि क्रोध से मनुष्य का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है. उसके परिणाम स्वरूप उसके शरीर में रुक्षता आ जाती है.क्रोध करते समय मुख सूखता है तथा कंठ में रहने वाली जो ग्रन्थियां लार पैदा करती हैं.प्राणप्रद रस बनाती हैं. वे अपना काम करना बंद कर देती हैं.फल यह होता है कि लार के द्वारा भोजन में मिले जाने वाले पाचक रसों का अभाव हो जाता है.इससे चर्म रोग, कब्जियत आदि बीमारियां पनपने लगती है.क्रोधी व्यक्ति स्वतः अनेक रोगों को आमंत्रण देता है. जो व्यक्ति क्रोध नही करता, उसके सभी प्राणी सहज ही मित्र बन जाते हैं तथा अक्रोधी को सरल हृदय से विपत्ति के समय जो सान्त्वना की मलहम लगाते हैं.वे ही आत्म – शुद्धि में सहायक बन पाते हैं.क्रोध धैर्य को नष्ट कर देता है.क्रोध शास्त्र ज्ञान को नष्ट कर देता है. क्रोध सब कुछ नष्ट कर देता है. क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं है.वास्तव में आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है क्रोध.यह आत्मा के गुणों का हनन करके चतुर्गति में भ्रमण कराने में सहायक है.क्रोध के वेग में बुद्धि कुण्ठित हो जाती है वह हिताहित के ज्ञान से शून्य हो जाती है. क्रोधी तो आत्मीय जनों का भी लिहाज नहीं कर पाता.क्योंकि क्रोध के हृदय से प्रेम की रसधारा सूख जाती है. क्रोध में पिता-पुत्र का, भाई-भाई का, गुरु-शिष्य का, मित्र-मित्र का भी शत्रु बन जाता है.बहुत समय से चलने वाला प्रेम भी क्रोध के कारण क्षण में ही घृणा में परिवर्तित हो जाता है. परिणाम यह होता है कि क्रोधी व्यक्ति अपने जीवन काल में तो निंदा का पात्र होता ही है.उन्होंने कहा कि मरणोपरांत भी उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाता है. इसलिए अपने जीवन में कैसा भी क्रोध का निर्मित्त मिले संत जैसे हो जाओं.सन्तों को बाहर से कितना भी क्रोध का निमित्त मिले, परन्तु वे अपने क्रोध को प्रकट नहीं करते.क्योंकि वे जानते हैं कि – क्रोध करना स्वबोध खोना है.इसमे बाद रोना ही रोना है. इसलिए क्रोध छोड़ देना.क्रोध करना कर्मों का बोझा ढोना है.क्रोध करना अपनी साधना व जिन्दगी को बरबाद करना है. मीडिया प्रभारी निलेश कुमार जैन ने बताया कि दिगंबर परंपरा में पर्युषण के दस दिन, जो उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य जैसे दस धर्मों के पालन के लिए समर्पित हैं.इस अवधि में जैन अनुयायी उपवास, स्वाध्याय और मंदिर की पूजा-अर्चन कर अपने मन, वचन और कर्म से होने वाली बुराइयों को दूर करते हैं. क्षमा-याचना के माध्यम से सभी से शांतिपूर्ण संबंध स्थापित करते हैं.उन्होंने बताया कि भगवान महावीर स्वामी जल मंदिर में वृहस्पतिवार को संध्या समय में भक्तामर पाठ का आयोजन हुआ, जिसके पुण्यार्जक सुवर्ण प्रसाद जैन थे.

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