अररिया : दफन हो गया एक इतिहास. एक ऐसा इतिहास जो सदियों तक न सिर्फ पढ़ा जायेगा, बल्कि उस इतिहास से आने वाली पीढ़ियां सीख लेती रहेंगी. कभी स्नेह से लबालब अल्फाज तो कभी नसीहत देने वाली फटकार, तो कभी अपने राजनीतिक विरोधियों के हित में भी आवाज उठाने वाला इतिहास आज दफन हो गया. गरीब-गुरबों, फटेहाली से जूझते इंसानों की पीड़ा जान कर उनकी सुर्ख हो जाती आंखें. आक्रोश में तेज कदम चलते हुए सड़क पर उतर आना फिर विधान सभा,
संसद में बेबाकी से आवाज उठाना मानो उनकी फितरत में शामिल था. अतीत के आईने पर नजर डालने से लगता है कि ऐसी शख्सियत बिरले ही पैदा होते हैं. आज वह सिसौना की मिट्टी में दफना दिये गये. जिस सिसौना की मिट्टी में जन्मे, पले, बढ़े. जिस सिसौना की मिट्टी से सत्ता के शिखर पर पहुंचे. वहां की मिट्टी मानो रो रही थी. अपने इस इतिहास पुरुष पुत्र को सीने से लगाने से. सिसौना-जोकीहाट का जर्रा-जर्रा मानो रो रहा था. बाजार बंद थे. बाजार में सन्नाटा था. सिर्फ और सिर्फ उनके घर जाने वाले सभी रास्ते पर जन कारवां चल पड़ा था
कि अपने प्यारे की दीदार तो कर लें. अंतिम दीदार. अब वह न कभी मदरसा में बैठे मिलेंगे और न ही किसान कॉलेज या फिर प्रोजेक्ट कन्या विद्यालय में. अब कभी वह विकास का ख्वाब नहीं देख पायेंगे, जो वे हमेशा दिखाते थे. जिसे वह सरजमीन पर उतारते थे. ख्वाब को हकीकत में बदलने वाला वह बेचैनी अब कहां मिलेगी. जो तस्लीम साहब में थी. धर्म-मजहब से परे एक ऊंची शख्सियत के अंतिम दर्शन को उमड़े जन सैलाब में एक दर्द अमूमन सभी की जुवां पर थी, कि अब विकास के लिए लड़ाई, दलितों-पिछड़ों में अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध आवाज देने वाले, सामंती-बुर्जुवा सोच के खिलाफ मुखरता से खिलाफत करने वाले तस्लीमउद्दीन हम सबों को छोड़ कर चले गये. एक शून्यता का भाव सबों के चेहरे पर झलक रही थी. अपने दम पर सियायत करने वाले अपनी नीतियों पर अड़े रहने वाले, व्यवस्था में रहकर भी बगावती तेवर रखने वाला इतिहास पुरुष आज दफन हो गया. अल्हाज तस्लीमउद्दीन ने अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया. उनकी यादें सिर्फ साथ लिए लोगों ने जन्ततनसी हो. इसके लिए दुआ की. जन सैलाब ने नमन किया. दफन हो गया एक कांतिद्रष्टा.