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हे मर्यादा पुरुषोत्तम

भगवान राम की मर्यादा और कर्तव्यपरायणता अन्यतम है. हमारी संस्कृति, संवेदना और सदाचार पर उनके आदर्शों की छाप है. उनका चरित्र आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श वीर और आदर्श राजा के रूप में युगों-युगों से मानव जाति को आकर्षित करता आ रहा है. शासन का आदर्श आज भी रामराज्य ही है

राम के जीवन का अर्थ केवल एक शब्द है, और वह है ‘कर्तव्य’. उन्होंने सदैव कर्तव्य को ही जीवन का मूल समझा. जीवनभर कर्तव्य के रास्ते से तिल भर भी नहीं हटे. कर्तव्य पालन के लिए चौदह वर्षों का वनवास काटा, प्राण से प्रिय अपनी पत्नी को कर्तव्य पथ पर बलिदान कर दिया. सुख-दुख के साथी रहे छोटे भाई लक्ष्मण को भी अपने से अलग करने में मोह नहीं किया. किसी से प्रेम को कभी कर्तव्य के मार्ग में नहीं आने दिया. यह उनकी कर्तव्यपरायणता ही है कि सारा भारत उनका नाम जपता है और उनके अस्तित्व को पवित्र मानता है. इसी कर्तव्यपरायणता ने उन्हें मुनष्य से उठाकर देवताओं के समकक्ष ला दिया. उन्हें आराध्य और ईश्वर का अवतार माना जाता है. उनके जीवन से हमें सीख मिलती है कि कर्तव्य पथ पर चलना बड़ा कठिन होता है. लेकिन कर्तव्यों के सम्यक पालन से ही हम मर्यादा पुरुष बन सकते हैं.

आदर्श पुत्र

श्रीराम के समान अादर्श पुत्र कोई और नहीं. उनके मर्यादा पुरुषोत्तम होने का यह श्रेष्ठ प्रमाण है. राज्याभिषेक के आमंत्रण और उसके ठीक उपरांत वनवास के पितृ आदेश को सहर्ष स्वीकारना श्रीराम के आदर्श चरित्र का प्रबल पक्ष है. यद्यपि शक्ति संतुलन उनके पक्ष में था. वह अयोध्या के युवराज थे. राजसिंहासन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे, किंतु इन सब के उपरांत भी पितृ आदेश को सर्वोपरि रख कर उन्होंने कुल की मर्यादा और पुत्रधर्म के पालन का अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया.

आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च।

न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः।।

(वाल्मीकि रामायण)

अर्थ- राज्याभिषेक के लिए बुलाये गये और वन के लिए विदा किये गये श्रीराम के मुख के आकार में मैंने कोई भी अंतर नहीं देखा. राज्याभिषेक के अवसर पर उनके मुख मंडल पर कोई प्रसन्नता नहीं थी और वनवास के दुखों से उनके मुख पर शोक की रेखाएं नहीं थीं.

दुख सह कर भी न्याय व सत्य के राही रहे

भगवान श्रीराम न्याय और सत्य का साथ के सहगामी हैं. सीता का परित्याग और उनकी अग्निपरीक्षा का उनका निर्णय इसी न्याय और सत्य के मार्ग का अनुमगन था, यद्यपि यह उनके स्वयं के दुख और वियोग की पीड़ा का कारक था. नियम अविवेकपूर्ण था. दंड में क्रूरता थी. पूरी घटना एक कलंक थी, जिसने उनके स्वयं के जीवन के शेष दिनों में दुखी बनाया, किंतु वे नियमबद्ध रहे, उसमें विचलन नहीं किया.

धीरज, ध्यान और ध्येय के प्रतीक

श्रीराम धर्म में धीर, ध्यान और ध्येय के प्रतीक हैं. वह शालीन हैं. शील और मर्यादा के देवता हैं. उनकी राजनीति में मर्यादा है. वह व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अनुशासित हैं. राजा होकर भी 14 साल का वनवास और फिर मर्यादाओं के भीतर रह कर अनुशासित जीवन जीने का घटनाक्रम उन जीवन मूल्याें की स्थापना करता है, जहां मनुष्य रूप में श्रीराम आदर्श के उदात्त स्वरूप की स्थापना करते हैं. श्रीराम का यह चरित्र भारतीय जनमानस को संतुलित, अनुशासित और धैर्यवान होकर अपने ध्येय की प्राप्ति की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है.

आदर्श भ्राता

तीनों लोकों में भगवान श्रीराम भ्रातृधर्म के उच्च प्रतिमान और आदर्श का प्रतीक हैं. राजसत्ता हो या सैन्य संचालन, स्वयं की भावना और आकांक्षा को तुच्छ मान कर भ्रातृधर्म का निर्वहन किया. भाइयों के प्रति सहोदर से भी बढ़ कर त्याग और समर्पण का उनका भाव और स्नेह अन्यतम है. लक्ष्मण जी का उनके साथ वनगमन और भरत जी का राजसिंहासन पर उनकी चरण पादुका को रख कर जनता की सेवा का व्रत उसी का प्रतिफल था. वनगमन करते हुए श्रीराम का अयोध्यावासियों से यह कहना कि आप लोगों का मेरे प्रति जो प्रेम तथा सम्मान है, मुझे प्रसन्नता तभी होगी यदि आप मेरे प्रति किया जाने वाला व्यवहार ही भरत के प्रति भी करेंगे. यह उनके इस आदर्श चरित्र का उदाहरण है. माता कैकेयी ने जब भरत के लिए राज सिंहासन मांगा, तो एक पल के लिए भी उनके मन में भरत के प्रति कोई विद्वेष नहीं जागा.

सहनशील व धैर्यवान

सहनशीलता और धैर्य भगवान राम का प्रमुख गुण है. अयोध्या का राजा होते हुए भी भगवान श्रीराम ने संन्यासी की तरह ही अपना जीवन यापन किया. इससे पहले, वनवास से लेकर सीता हरण तक हर बड़े से बड़े कष्ट में उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा.

समावेशी चरित्र

श्रीराम का समावेशी चरित्र तीनों लोकों में अन्यतम है. समाज, राष्ट्र, युग और चराचर जगत के नायक के रूप में उनका धीरोद्दात्त चरित्र संघर्ष में भी समावेशी आचरण का उच्च प्रतिमान है. एक क्षत्रिय राजा होने के उपरांत भी उन्होंने अपनी संघर्ष-यात्रा में निषादों, भीलों, वानरों और भालुओं का सहयोग लिया. अपनी सेना में विभिन्न जातियों के लोग को सम्मिलित किया. श्रीराम सांस्कृतिक विरासतों को समृद्धि प्रदान करने भी युग नायक हैं.

आदर्श मित्र

श्रीराम ने मैत्री भाव के आदर्शों को एक मानक स्वरूप प्रदान किया. प्रत्येक जाति, वर्ग, समूह और योनि के प्राणियों के साथ भगवान श्रीराम ने मित्रता की और उसे एक नया आयाम प्रदान किया. प्रत्येक संबंध के मूल्यों को स्वीकार कर उनके अनुसार आचरण और मित्रता के दायित्वों का हृदय से श्रीराम ने जैसा निर्वहन किया, वह अन्यतम है. केवट से सुग्रीव तक और निषादराज से लेकर विभीषण तब, सभी मित्रों के लिए उन्होंने स्वयं को बारंबार सिद्ध किया. उनके सुख और संकट, हर्ष और विषाद तथा संघर्ष और विजय के साथ समान भाव से उपस्थित हुए. लंका विजय हो

दयालु

भगवान श्रीराम अत्यंत दयालु हैं. उन्होंने दया भाव से ही सभी को अपनी छत्रछाया में लिया. सभी को आगे बढ़ कर नेतृत्व करने का अवसर और अधिकार प्रदान किया. प्राणी मात्र के प्रति उनके हृदय में अगाध स्नेह और संवेदना है. उन्होंने निर्बल और निर्दोष प्राणियों के प्रति कभी क्रोध, लोभ, संशय या संदेह नहीं किया. इसी दयालु भाव से उन्होंने सुग्रीव को उनका राज्य दिलाया. वनगमन का षड्यंत्र रचनेवाली मंथरा के प्रति भी उनके मन में दया भाव ही रहा. इसलिए ननिहाल से अयोध्या लौटे शत्रुघ्न को जब मंथरा पर क्रोध हो आया और उन्होंने उसे भूमि पर पटक कर घसीटना आरंभ किया, तब भरत कहते हैं, यदि इस कुब्जा के साथ बदसलूकी का पता श्री राम को चल गया, तो वह धर्मात्मा हम दोनों से बात तक न करेंगे. यह थी श्रीराम की दयालुता.

posted by ashish jha

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