34.1 C
Ranchi
Friday, March 29, 2024

BREAKING NEWS

Trending Tags:

रोशनी राहत भी देती थी, डराती भी थी

रोज दिन में नये जख्म मिलते और उतने ही आंसू निकलते थे. रोशनी राहत भी देती थी और डराती भी थी. रात का ख्याल भय से भर देता था. अब यह सब याद कर रहा हूं तो पाता हूं कि यह घायल मन की भटकन के साथ घाव की पीड़ा भी थी.

कुमार प्रशांत, वरिष्ठ टिप्पणीकार

k.prashantji@gmail.com

पांच अगस्त को दिल इतनी जोर से धड़का था कि छलक पड़ा था. कहते हैं न कि दिल की कटोरी गहरी होनी चाहिए ताकि न छलके, न दिखे. लेकिन कितनी गहरी? बहुत शोर तो हम भी सुनते थे दिल का, जब चीरा तो कतरा-ए खूं निकला. मतलब कितना गहरा? कतरा भर, और उस पर वार-पर-वार, घाव-पर-घाव. छलकना ही था. अब हिसाब करता हूं कि कितना जज्ब किया था. जब पूरे छह से ज्यादा वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब कोई नया घाव न लगा हो. एक भरा नहीं कि दूसरा, पहले से भी गहरा. उसे भी संभाला नहीं कि तीसरा. ऐसा कैसे कर सकते हैं आप? आपके हाथ में खंजर है तो कहीं दिल भी तो होगा? उसने कुछ नहीं कहा? सुनता हूं, खंजर वाले हाथ दिल की नहीं सुनते. इतने बौने होते हैं कि उनकी पहुंच दिल तक होती ही नहीं है. दिल भी कमबख्त सबका धड़कता कहां है?

पांच अगस्त के बाद नींद कहीं खो गयी. रात के अंधेरे में कहां-कहां नहीं भटकता रहा, उन सब निषिद्ध स्थानों तक गया जहां संस्कारी लोग नहीं जाते. रात-रात भर, जागे-अधजागे कितना गलीज रौंदा, उनमें उतरा, पार करने की कोशिश की. कितने लोगों से मिला- अनायास, निष्प्रयोजन. कितने सवाल थे जो बहस में बदलते रहे और मैं फिर-फिर लौटता रहा. जानता था कि इनसे जवाब मिलेगा नहीं लेकिन जाता रहा बार-बार. हिंदुत्व की कोई ऐसी परिभाषा तो बने जिस पर मैं और वे दोनों टिक सकें? लेकिन ऐसा कुछ नहीं था सिवा गालियों और आरोपों के. वे सब आजादी के पहले के ही थे. कहीं कोई नयी सोच नहीं.

सपनों में भी इतनी जड़ता? तभी कोविड ने दबोच लिया. अब नींद पर हमला और गहरा हो गया, वह कहीं गुफा में समा गयी. मैं रात-रात भर जागने और अंधेरे में घूमने लगा. अपने उस सफर में पहाड़ों पर भी गया, तलहटियों में भी उतरा. जीवन के साधक तो वहीं मिलते हैं न. लेकिन गांजा, भांग, चरस आदि से आगे की कोई साधना वहां मिली नहीं. लेकिन रोज रात यह सफर चलता रहा. नींद में नहीं, जाग्रत अवस्था में. रात भर घर में घूमता रहता था. हर कोने से एक नयी कहानी बनती थी जो खिंचती हुई कहां से कहां चली जाती थी.

कितनी बार वहां भी गया, जहां सुनता था कि धड़कते दिल वाले नहीं जाते हैं. वहां सभी थे और सबके दिल धड़क रहे थे. भीड़ बहुत थी लेकिन टकराहट नहीं थी. सबसे स्थिर गांधी ही थे. नीचे से ‘गांधी-गांधी’ के आते हाहाकार को वे असंपृक्त भाव से महादेव देसाई की ओर बढ़ा दे रहे थे. मैंने महादेव भाई से पूछा, आप इनका क्या करते हैं? वे बोले, जहां से आता है, वहीं वापस भेज देता हूं. बापू ने कहा है, सब वापस कर दो.

सबसे अलग, चुप और कुछ पछताते से जिन्ना थे. उनके पास भी पाकिस्तान से खबरें आती थीं, जिन्हें वे फाड़ फेंकते थे. मैंने टोका, आप कुछ कहते क्यों नहीं? हर बार एक ही जवाब, किससे कहूं? कौन सुनेगा? मैंने भी कहां किसी की सुनी थी. जयप्रकाश सबसे उद्विग्न थे. बोलते नहीं थे, लेकिन स्वगत कहते जाते थे. बापू ने चाहा था कि आजादी के बाद की दौड़ में सब बराबरी से दौड़ें लेकिन तब कांग्रेस अपनी अगली कतार छोड़ने को तैयार ही नहीं थी. बापू के बाद मैंने दूसरा रास्ता खोजा. कांग्रेस की अगली कतार ही खत्म कर दी.

सवाल लोकतंत्र का था. अब सब बराबरी पर आ गये. मैंने चाहा कि लोकतंत्र की नयी दौड़ में सब एक साथ दौड़ कर अपनी जगह बनायें. लेकिन इन सबकी फिक्र कांग्रेस से आगे निकलने की नहीं, एक-दूसरे को दौड़ने नहीं देने की थी. सारा खेल बिगाड़ दिया इन निकम्मों ने. अब जिस गतालखाने में फंसे हैं वहां से निकलने की कोई युक्ति नहीं है इनके पास. मैंने कहा, कोई बताने वाला भी तो नहीं है. जयप्रकाश हर बार मुंह फेर लेते रहे, कोई बताने वाला नहीं होता है, खोजने वाला होना चाहिए.

शेख अब्दुल्ला विचलित ही मिले. कश्मीर का जो हाल किया है, क्या ये उसे कभी काबू कर पायेंगे? कोई नहीं बोला भरी संसद में कि धारा 370 कश्मीर की संसद ने नहीं, भारत की संविधान सभा ने बनायी थी. भारत की संविधान सभा नहीं चाहती तो क्या यह धारा बनती और तब कश्मीर भारत को मिलता क्या? मैं देखता था कि जवाहरलाल बगल से निकल जाते थे, बोलते कुछ नहीं थे.

यहां तक मैं पहुंचता कैसे था अब याद करता हूं तो उबकाई आती है. रक्त, पीव से सने रास्तों को पार कर जब मैं यहां पहुंचता, तो कहीं खड़े रहने की हालत नहीं होती थी. फिर अचानक दिल पर लगे घावों से रक्त बहने लगता था- दर्दविहीन रक्तस्राव. मैं वैसे ही इन सबके बीच से गुजरता था. हर बार वैसे ही रास्तों को पार कर लौटता था, बहुत लंबा रास्ता. अंधेरा भी, बदबू भी और असंबद्धता भी. जितना घायल जाता था, उससे ज्यादा घायल लौटता था. बहुत भ्रम और बहुत भय से भरा यह अनुभव था.

दिन ऐसी रोशनी से भरा होता था जिसमें चैन का एक पल भी नहीं होता था. रोज दिन में नये जख्म मिलते और उतने ही आंसू निकलते थे. रोशनी राहत भी देती थी और डराती भी थी. रात का ख्याल भय से भर देता था. अब यह सब याद कर रहा हूं तो पाता हूं कि यह घायल मन की भटकन के साथ घाव की पीड़ा भी थी. घाव जो लगातार लग रहे हैं, बढ़ रहे हैं. अब कोई जगह भी बाकी नहीं बची जहां जख्म जगह पा सकें. गालिब की जिद ही सही, मैं उसे पूरा तो रख ही दूं, दिल ही तो है/ नहीं संग-ओ-खिश्त/ दर्द से भर न आये क्यूं/ रोयेंगे हम हजार बार/ कोई हमें रुलाये क्यों.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Posted by: pritish sahay

You May Like

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

अन्य खबरें