Labour Day : वर्ष 1886 में एक मई को अपने काम के घंटे कम करने को लेकर आंदोलित मजदूरों पर शिकागो में पुलिस द्वारा की गयी बर्बर गोलीबारी की स्मृति में एक मई को दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है, पर उससे शताब्दियों पहले से ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत समेत अपने ज्यादातर उपनिवेशों में मजदूरों पर गिरमिटिया मजदूरी की जो दारुण प्रथा थोप रखी थी, उस पर अब कम ही बात होती है.
ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा किये जा रहे निरंतर शोषण ने सत्रहवीं शताब्दी तक आम देशवासियों की हालत इतनी पतली कर दी थी कि उनके लिए अपना पेट भरना भी बड़ी समस्या हो गयी थी, पर ब्रिटिश साम्राज्य को इस समस्या को हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. बल्कि इससे उन्हें मजदूर बनाकर अपने दूसरे उपनिवेशों में भेजने का उसका काम आसान हो गया था. उसके इस काम ने आगे चलकर प्रथा का रूप ले लिया तो उसे गिरमिटिया मजदूरी की प्रथा कहा जाने लगा. इस प्रथा की शर्तें स्वीकारते ही मजदूर हर तरह के हक-हकूक से वंचित हो जाते थे. इन मजदूरों को भारत से दूसरे उपनिवेशों में भेजने से पहले उनकी सहमति के नाम पर उनके साथ जो एग्रीमेंट (करार) किया जाता था, अनपढ़ भारतीय उसके दस्तावेज को गिरमिट कहा करते थे. इसलिए उस करार के आधार पर ‘परदेस’ जाने वाले मजदूरों को गिरमिटिया कहा जाता था.
वर्ष 1833 में दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में मनुष्य की खरीद-बिक्री की कुख्यात दास प्रथा का खात्मा हुआ, तो अप्रत्याशित रूप से वहां इन मजदूरों की मांग और बढ़ गयी. कई बार उनकी अशिक्षा व अज्ञान का लाभ उठा कर उनसे उनके लिए सर्वथा प्रतिकूल शर्तों वाले करार पर दस्तखत करा लिये जाते और उनको इसका तब पता चलता, जब वे स्वदेश लौटने की बात करते. ऐसे में कुछ ही गिरमिटिया मजदूर करार के अनुसार अपने काम की अवधि पूरी कर स्वदेश वापस लौट पाते. अधिकांश को जैसे-तैसे वहीं अपनी मजदूरी वाले देश में ही बस जाना पड़ता. तब भारत से हर वर्ष दस से पंद्रह हजार गिरमिटिया मजदूर फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो और नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) आदि भेजे जाते थे. उनमें अधिकतर निरक्षर होते थे, पर बहुत कुछ झेलकर भी वे अपनी संतानों को भरपूर शिक्षा दिलाते थे. इसका फल यह हुआ कि इन मजदूरों की अगली पीढ़ियों ने फिजी के सामाजिक व आर्थिक विकास में भरपूर योगदान देकर उसे ‘प्रशांत महासागर का स्वर्ग’ बना दिया, लेकिन यह हालात का सिर्फ एक पहलू था. इसका दूसरा पहलू उतना ही त्रासद था. वह जानें कब तक बाहरी दुनिया की नजरों से ओझल रहता, यदि हिंदी के उन दिनों के नवोदित साहित्यकार बनारसीदास चतुर्वेदी गिरमिटिया मजदूर तोताराम सनाढ्य से मिलकर इसके लिए जमीन-आसमान एक न कर देते.
तोताराम सनाढ्य 1893 में गिरमिटिया मजदूर के रूप में फिजी गये थे, 21 साल बाद स्वदेश लौटे तो सारे गिरमिटिया मजदूरों के उद्धार और गिरमिटिया प्रथा के उन्मूलन का संकल्प ले लिया. पंद्रह जून, 1914 को सनाढ्य फिरोजाबाद के ‘भारती भवन’ नामक पुस्तकालय व प्रकाशन संस्थान के मैनेजर लाला चिरंजीलाल के साथ बनारसीदास चतुर्वेदी से मिले, तो चतुर्वेदी जी ने पूछा कि वे गिरमिटिया मजदूरों संबंधी अपने अनुभव लिख क्यों नहीं डालते? सनाढ्य का उत्तर था कि कोई लिखने वाला मिल जाए, तो मैं अपनी अनुभूतियां उसे सुना सकता हूं. चतुर्वेदी जी ने सनाढ्य से पंद्रह दिनों तक उनके अनुभव सुने और उनको ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ का नाम दिया तथा भारती भवन से प्रकाशित करा दिया. उसके प्रकाशित होते ही गिरमिटिया मजदूरों के पक्ष में आंदोलन उठ खड़ा हुआ, तो उत्साहित चतुर्वेदी जी ने सनाढ्य के साथ 1914 से 1936 तक, अपने जीवन के बाईस वर्ष गिरमिटिया मजदूरों की सेवा को समर्पित कर दिये. इन वर्षों में उन्होंने सनाढ्य को अनेक अन्य नेताओं के साथ महात्मा गांधी से भी मिलवाया और गिरमिटया प्रथा उन्मूलन आंदोलन को परवान चढ़ाया.
तदुपरांत, साबरमती आश्रम में रहते हुए सनाढ्य ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय प्रायः सारे नेताओं तक अपना अनुरोध पहुंचाया कि वे फिजी में दुर्दशा के शिकार भारतीय मजदूरों की सहायता के लिए भारत से पर्याप्त संख्या में शिक्षक, वकील व कार्यकर्ता भेजें. उन्होंने ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ की प्रतियां हरिद्वार में हुए कुंभ, लखनऊ में हुए साहित्य सम्मेलन और मद्रास में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में नि:शुल्क बांटीं. सीएफ एंड्रयूज इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर फिजी ले गये और गिरमिटिया प्रथा उन्मूलन आंदोलन में उसका भरपूर इस्तेमाल किया. एक जनवरी, 1920 को यह प्रथा पूरी तरह समाप्त हो गयी.