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अन्य बड़े खतरों पर भी नजर रहे

वायरस के खिलाफ लड़ाई तो जारी रखनी ही है, लेकिन जो दूसरा वायरस है छोटे स्तर का और जो इसके खत्म होने के बाद बरकरार रहेगा- कट्टरपंथ का या अलगावाद का वायरस- उस पर भी नजर रहे.

सुशांत सरीन, रक्षा विशेषज्ञ

delhi@prabhatkhabar.in

देश-दुनिया की सरकारों का फोकस कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने पर है. जब ये विपदा टल जायेगी, जिंदगी उसके बाद भी चलेगी. तब ऐसे कई मुद्दे सामने आयेंगे, जो अभी इसके चलते दब गये हैं या अखबारों के पहले पन्ने से हट गये हैं. वे मुद्दे गायब नहीं हुए हैं. आतंकी और चरमपंथी गुट अपने मंसूबों को साधने में लगे हैं. एक तरह से विपदा के इस दौर में उन्हें अपना काम करने का पर्याप्त समय मिल रहा है. ऐसे में अफगानिस्तान में जो आतंकी हमला हुआ है, एक लिहाज से वह कोई अनहोनी नहीं है. वहां इस कोरोना वायरस के बावजूद, तालिबान या आइसिस की गतिविधियां पहले जैसी चल रही हैं.

पाकिस्तान का जो प्रोपेगेंडा है या उसका जो फोकस है भारत पर, वह भी हिला नहीं है. उसके विदेशमंत्री किसी और विदेशमंत्री को फोन करते हैं, तो बात कोरोना की करते हैं, लेकिन उसमें कश्मीर भी घुसा देते हैं. कश्मीर पर उनकी राजनीति और कूटनीति वैसी ही है. उसका एक उदाहरण सार्क देशों की वीडियो कॉन्फ्रेंस है. उसमें भी वे कश्मीर का मुद्दा लेकर आ गये. ये जो आतंकी सोच के मुल्क हैं, आतंकी गुट हैं, न तो उन्होंने अपना उद्देश्य बदला है, न अपनी कार्यशैली बदली है. सो काबुल में जो हुआ, वह होना ही था.

कुछ लोग कहते हैं कि आइसिस इसके पीछे है, कुछ का कहना है कि शायद यह तालिबान के किसी कट्टरपंथी गुट का काम है- ऐसे गुट से मुराद हक्कानी नेटवर्क से है. चाहे यह हक्कानी नेटवर्क का काम हो या इस्लामिक स्टेट का, इसमें कहीं-न-कहीं पाकिस्तान की दखल नजर आ रही है. जिस तरह से उन्होंने सिखों के कत्लेआम को दिल्ली में हुए दंगों के साथ जोड़ने की कोशिश की है, उससे ये साफ हो जाता है कि इस हमले के पीछे कहीं-न-कहीं पाकिस्तान का हाथ है.

अफगानिस्तान में जो आइसिस के गुट हैं, अगर आप उनका बैकग्राउंड देखें, तो मालूम होता है कि ये पाकिस्तानी मूल के लोग हैं, जो कभी तालिबान से जुड़े हुए थे और वहां से टूट कर वे आइसिस के बैनर के नीचे काम करने लगे. हक्कानी नेटवर्क इस चीज के लिए मशहूर है कि वह पाकिस्तान की आइएसआइ का प्यादा है, लेकिन उन्होंने अपनी उंगलियां तमाम चीजों में डाली हुई हैं. वे तालिबान में बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं. उनके आइसिस के साथ लिंक हैं. उनके जो पाकिस्तानी तालिबान थे, उनके साथ भी काफी करीबी संबंध हैं. एक लिहाज से वे एक न्यूट्रल किस्म का किरदार निभाते हैं. उनका इस कांड में शामिल होना कोई बड़ी बात नहीं है.

अमेरिका व अन्य पश्चिमी देश कहीं-न-कहीं खुशफहमी के भी शिकार हैं. चाहे वह तालिबान को लेकर हो, जिसको एक लिहाज से अब अफगानिस्तान में ड्राइविंग सीट पर बिठाया जा रहा है. तमाम ऐसी चीजें की जा रही हैं कि उनको एक केंद्रीय स्थान मिल रहा है या वो आइसिस को लेकर हो, जहां उनकी तवज्जो हट गयी है. उन्होंने तो अपनी तरफ से ऐलान कर दिया है कि आइसिस को उन्होंने पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया है. यही गलती, आप याद करें, 2001 में तालिबान के साथ की गयी थी. लेकिन चार-पांच सालों के अंदर-अंदर ये साफ हो गया कि तालिबान दोबारा से वापस आ गया है. वही गलती आइसिस के साथ हो रही है.

भले ही आइसिस की अपनी किस्म की रियासत को नष्ट कर दिया, पर परेशानी यह है कि जिस सोच के तहत वह रियासत बनी थी और जिसके तहत तमाम दुनिया से लोग उसके साथ जुड़ रहे थे, वह साेच अभी भी बरकरार है. उसको आपने अभी तक शिकस्त नहीं दी. ये सबसे बड़ा मुद्दा है. यही मुद्दा अफगानिस्तान में भी था, तालिबान को लेकर. वहां से जो आपने अपनी नजरें पलटीं, तो दस साल के अंदर दुनिया की सबसे ताकतवर फौज- अमेरिका और नेटो की फौज- को एक तरह से उन्होंने थका दिया और खदेड़ दिया है. कहीं यही चीज दुबारा से खाड़ी के देशों में न हो. मेरी नजर में तो सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि हमारी नजरें समस्या से हटें नहीं. जो तालिबान के साथ हुआ, वह अब आइसिस के साथ अरब में हो रहा है. उसकी जो जमीन पर उपस्थिति भले खत्म हो गयी है, लेकिन उसकी वर्चुअल रियासत इंटरनेट की दुनिया में बरकरार है.

ऐसे में वायरस के खिलाफ लड़ाई तो जारी रखनी ही है, लेकिन जो दूसरा वायरस है छोटे स्तर का और जो इसके खत्म होने के बाद बरकरार रहेगा- कट्टरपंथ का या अलगावाद का वायरस- उस पर भी नजर रहे. भारत के लिए भी वही नसीहत है, जो बाकी दुनिया के लिए. अभी जो एक विपदा आयी हुई है और सरकार उससे जूझ रही है. कई सख्त कदम उठाये जा रहे हैं, जो अनिवार्य हैं.

लेकिन यह जरूरी है कि आपकी नजर दूसरी चीजों से न पलटें. कश्मीर के अंदर आतंकवाद की समस्या है. अभी हमने देखा, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का हमला. सारी समस्याएं वैसी ही हैं. हमारी जो सुरक्षा नीति है और जो मसले हैं, उन पर ध्यान बहाल रखना होगा. ऐसा हो भी रहा है, यह संतोष की बात है. दुश्मन को पहचानना होगा. दुश्मन से मेरी मुराद पाकिस्तान से है. आपने अपनी तरफ से कोशिश की, जब आपने सार्क वार्ता की. आपको उसी में पता लग जाना चाहिए था कि पाकिस्तान की नीयत क्या है और उसकी नीति क्या है. नीति तो तभी साफ हो गयी, जब आपने वायरस की बात कही, लेकिन उन्होंने उसमें कश्मीर का मुद्दा डाल दिया.

पाकिस्तान इतना बेशर्म है कि भारत में कश्मीर के ऊपर तो उन्होंने बहुत बयान दिया, लेकिन जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर है, जहां भारतीय कश्मीर से कम-से-कम दस गुना ज्यादा संक्रमण के केस सामने आये हैं, वहां पर भी लॉकडाउन है, वहां भी वे किसी को बाहर से जाने नहीं देते, वहां पर आप (भारत) क्यों नहीं इजाजत मांगते कि हम वहां जाना चाहते हैं. आपने हमारा एक हिस्सा कब्जा किया हुआ है, लेकिन हम अपने लोगों की मदद करना चाहते हैं. हम वहां डॉक्टर की टीम भेजना चाहते हैं. हमारे लोग वहां हैं, आप उसे बाकी लोगों के लिए खोलिये. लेकिन इन चीजों पर हम नहीं बोलते. ऐसे में हमें सावधानी बरतनी होगी. मुश्किल के इस दौर में वायरस के खिलाफ हमारी जंग साथ-साथ चलेगी, लेकिन हमें पाकिस्तान की अन्य गतिविधियों पर भी नजर रखनी होगी.

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