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रेलवे को बदहाली से उबारने की चुनौती

धन की कमी से अटकी हैं योजनाएं भारतीय रेल की हालत खराब है. रेलवे में 13.3 लाख कर्मचारी हैं, जिन्हें करीब 58,000 करोड़ रुपये वेतन दिया जाता है. रेलवे 15 लाख पेंशनरों पर सालाना करीब 24,850 करोड़ रुपये खर्च कर रही है. मौजूदा समय में रेलवे की कुल आमदनी का 51 फीसदी वेतन पर खर्च […]

धन की कमी से अटकी हैं योजनाएं
भारतीय रेल की हालत खराब है. रेलवे में 13.3 लाख कर्मचारी हैं, जिन्हें करीब 58,000 करोड़ रुपये वेतन दिया जाता है. रेलवे 15 लाख पेंशनरों पर सालाना करीब 24,850 करोड़ रुपये खर्च कर रही है. मौजूदा समय में रेलवे की कुल आमदनी का 51 फीसदी वेतन पर खर्च हो रहा है और सातवें वेतन आयोग के बाद यह खर्च 68 फीसदी हो जायेगा.
पेंशन पर होनेवाला खर्च भी बढ़ेगा, क्योंकि हर साल सेवानिवृत्त होनेवालों की संख्या बढ़ रही है. वर्ष 2013-14 में जहां कुल 50,476 कर्मचारी सेवानिवृत्त हुए थे, वहीं 2017-18 में यह संख्या बढ़ कर 57,284 हो जायेगी. हर साल के बजट के साथ रेलगाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन पटरियों की लंबाई उस अनुपात में बहुत कम बढ़ी है.
आजादी के समय देश में 54 हजार किलोमीटर रेल लाइनें थीं, पिछले साढ़े छह दशकों में रेललाइनों की लंबाई सिर्फ 12 हजार किलोमीटर बढ़ी है. आज लगभग 13 हजार रेलगाड़ियां चल रही हैं, लेकिन रख-रखाव पर जितना खर्च होना चाहिए, उतना पैसा मिल नहीं पा रहा.
रेलवे की कई बड़ी योजनाएं मंजूरी न मिलने से लटकी पड़ी हैं. ऐसे में निजी निवेशक इसमें रुचि नहीं ले रहे. पीपीपी के तहत 15 फीसदी निवेश हासिल करने का लक्ष्य अभी बहुत दूर दिख रहा है. रेलवे को जरूरत है अफसरशाही की जकड़न से पूरी तरह निकालने की. मौजूदा रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने अपने कामकाज के तरीकों से कुछ उम्मीदें जगायी हैं, लेकिन देखना होगा कि इस बार के रेल बजट में वे कितना आगे बढ़ पाते हैं…
-अंजनी कुमार सिंह
आजादी के बाद जिस तरह से रेलवे का दोहन किया गया, उस अनुपात में उसकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया. नतीजन, रेलवे की हालत दिनों-दिन खराब होती चली गयी. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आजादी के समय देश में रेल ट्रैक की कुल लंबाई करीब 54 हजार किलोमीटर थी, जबकि आजादी के करीब सात दशक बाद अब देश में रेल ट्रैक की लंबाई (रोड लेंथ में) 66 हजार किलोमीटर है.
यानी इन सात दशकों में रोड लेंथ के हिसाब से इसमें महज 12 हजार किलोमीटर का ही इजाफा हो पाया है. जबकि इस दौरान पटरियों पर यात्रियों का बोझ कई गुणा बढ़ गया. हालांकि, रेल मंत्रालय ट्रैकों के दोहरीकरण और तिहरीकरण को जोड़ कर रेल पथ की कुल लंबाई एक लाख 15 हजार किलोमीटर बताता है. इसमें कई लाइनों को मीटर गेज यानी छोटी लाइन से ब्रॉड गेज यानी बड़ी लाइन में तब्दील किया गया है.
देश में इस समय 8,000 से अधिक रेलवे स्टेशनों से रोजाना 13 हजार ट्रेनों में कुल 2.3 करोड़ लोग यात्रा करते हैं.औसतन एक किमी ट्रैक करीब 19,133 यात्रियों का बोझ उठाता है यानी रेलवे पर यात्रियों का दबाव काफी अधिक है. इतना ही नहीं, रेलवे रोजाना करीब 750 मालगाड़ियों का भी संचालन करता है, जिससे लगभग 30 लाख टन माल ढुलाई की जाती है. लेकिन, यात्रियों और माल ढुलाई के बढ़ते बोझ से जितनी कमाई रेलवे को होनी चाहिए, वह नहीं हो रही है.
दूसरी ओर वेतन और पेंशन का लगातार बढ़ता बोझ रेलवे की वित्तीय स्थिति को कमजोर कर रहा है. मौजूदा समय में रेलवे में 13 लाख कर्मचारी है और 15 लाख पेंशनर हैं. रेलवे को सालाना इस मद में ही लगभग 72 हजार करोड़ रुपये खर्च करना पड़ रहा है. रेलवे की कुल आय का 51 फीसदी वेतन और पेंशन पर खर्च हो जा रहा है. सातवें वेतन आयोग की सिफारिश के बाद यह आंकड़ा 68 फीसदी हो जायेगा.
देवराय कमिटी ने की है पुनर्गठन की सिफारिश
रेलवे की हालत को सुधारना कठिन चुनौती है, क्योंकि रेलवे के पास धन की कमी है. रेलवे कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशनरों के पेंशन पर रेलवे की एक बड़ी राशि खर्च होती है.
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद रेलवे को कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन पर अतिरिक्त 32 हजार करोड़ रुपये का सालाना बोझ बढ़ेगा. इस भार को संभाल पाना रेलवे के लिए मुश्किल है. उसने पहले ही अपने हाथ खड़े कर लिये हैं. साथ ही वित्त मंत्रालय से 50 हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त मांग की है. लेकिन, वित्त मंत्रालय पहले से स्वीकृत राशि में कटौती कर रही है, तो अतिरिक्त राशि की मांग करना समझ से परे है.
इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जीबीएस (ग्राॅस बजटरी सपोर्ट) के तहत वित्त मंत्रालय ने वर्ष 2015-16 के लिए 40 हजार करोड़ रुपये की स्वीकृति दी थी, लेकिन रेलवे द्वारा खर्च न किये जाने का कारण बताते हुए वित्त मंत्रालय ने इसमें से 12 हजार करोड़ रुपये कम कर दिया. रेल मंत्री के प्रयास के बाद वित्त मंत्रालय ने अतिरिक्त चार हजार करोड़ रुपये की स्वीकृति दी, जिससे जीबीएस फंड 32 हजार करोड़ रुपये हुआ.
रेलवे की हालत सुधारने के लिए बनी बिबेक देवराय कमिटी ने कर्मचारियों की संख्या को तर्कसंगत बनाने की बात कही थी. कमिटी ने कहा कि रेलवे में ग्रुप डी में ही 4.7 लाख कर्मचारी काम कर रहे हैं. ऐसे कई काम है, जिनकी रेलवे के लिए कोई जरूरत नहीं रह गयी है. कमिटी ने इसके पुनर्गठन की सिफारिश की है. रेलवे की समस्या पेशेवर लोगों की कमी है. वेतन और पेंशन मद में अत्यधिक खर्च के कारण विस्तार और आधुनिकीकरण के लिए पैसे कम पड़ जाते हैं.
रेलवे के सामने सबसे बड़ी समस्या फंडिंग की है. फंडिंग की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण योजनाएं लंबित हो जाती हैं और इसे पूरा करने में अधिक पैसा भी लगता है. साथ ही जब विस्तार की मांग तेज होने लगती है, तब सरकार नयी योजनाओं को लागू करती है.
इसके बाद भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण और वन मंत्रालय की मंजूरी का मामला आता है. नये भूमि अधिग्रहण कानून से रेल परियोजनाओं की लागत बढ़ी है. मौजूदा समय में रेलवे की लगभग 300 योजनाएं लंबित है. इन योजनाओं को पूरा करने और लाइनों के दोहरीकरण के लिए लगभग पांच लाख करोड़ रुपये की जरूरत है. वहीं नयी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की जरूरत है. यदि इन परियोजनाओं में दो साल की भी देरी हुई, तो इसकी कीमत लगभग दोगुना हो जायेगी.
ऑपरेटिंग रेशियो बढ़ा
रेलवे की सबसे बड़ी समस्या है, फंडों का सही तरीके से उपयोग नहीं कर पाना और जरूरत से कम आवंटन. इससे रेलवे को वित्तीय समस्या का सामना करना पड़ता है. रेलवे का ऑपरेटिंग रेशियो काफी बढ़ गया है.
हालत यह है कि 100 रुपया कमाने के लिए रेलवे को 91 रुपया खर्च करना पड़ रहा है. रेलवे के रखरखाव और अन्य कामों के लिए अन्य स्रोतों से फंड की तलाश करनी पड़ रही है. इसे 88 प्रतिशत तक लाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन यह अब तक संभव नहीं दिख रहा है.
रेलवे की कमाई कम होने का एक बड़ा कारण माल ढुलाई का कम होना भी है. रेलवे सबसे ज्यादा माल ढुलाई स्टील, लौह-अयस्क, सीमेंट आदि का करता है. लेकिन, बाजार की हालत ठीक नहीं होने के कारण इन सामानों की खरीद-बिक्री कम हो रही है, जिसका सीधा असर रेलवे पर पड़ रहा है.
अभी भारतीय रेल टैरिफ और नॉन-टैरिफ से लगभग 1.25 लाख करोड़ रुपये कमाती है, जिसमें से 80 प्रतिशत से ज्यादा खर्च हो जाता है. रेलवे के पास अपने रख-रखाव और यात्री सुविधाओं के लिए पैसे ही नहीं बच रहे हैं. अनुमान के मुताबिक, भारतीय रेल यात्री किराया से 44 हजार करोड़, माल ढुलाई से 68 हजार करोड़ और अन्य स्रोतों (विज्ञापन, रेल की जमीन, किराया आदि) से दो हजार करोड़ के आसपास कमाती है. रेलवे का प्रति पैसेंजर 54 पैसे खर्च है, जबकि कमाई उसे प्रति पैसेंजर 26 पैसे ही हो रही है. यानी 28 पैसे रेलवे को प्रति पैसेंजर नुकसान उठाना पड़ रहा है.
सुरक्षा/संरक्षा का सवाल
अपने कार्यकाल के दौरान पूर्व रेल मंत्री नीतीश कुमार ने रेल संरक्षा विशेष निधि के तहत संरक्षा पर 16,318 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान किया था, जिसमें क्राॅसिंग, सिगनलिंग सिस्टम, पुलों, रेल ट्रैक आदि में बदलाव शामिल था. लेकिन, बाद के मंत्रियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, जिस कारण वांछित परिणाम हासिल नहीं हो सके. फरवरी, 2012 में अनिल काकोडकर समिति ने रेलवे की यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए 1,03,110 करोड़ रुपये देने की सिफारिश की.
रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने सेफ्टी फंड के लिए वित्त मंत्रालय से एक लाख करोड़ रुपये की मांग की है. रेल सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी समस्या है सेफ्टी स्टाफ की कमी. एक अनुमान के मुताबिक, ऐसे करीब एक लाख पद खाली पड़े हैं. रेलवे में सुरक्षा और संरक्षा की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2003-13 के दौरान रेल हादसे में दो हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी. इन हादसों से रेलवे को 487 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, 2003-13 के दौरान 1,896 रेल हादसे हुए. यानी इस दौरान हर महीने औसतन 16 हादसे हुए. इसमें से 853 हादसे रेलवे कर्मचारियों की गलती के कारण हुए. हादसे की प्रमुख वजह आपसी टक्कर, पटरी से उतरना, लेवल क्रासिंग और आग है.
मॉडर्नाइजेशन पर फोकस
रेल मंत्री सुरेश प्रभु रेलवे के रख-रखाव और आधुनिकीकरण पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. इसके तहत सिस्टम को इंप्रूव करना, इनोवेटिव आइडियाज को प्रमुखता देना, रेलवे बोर्ड के पॉवर को कम कर उसे विकेंद्रित करना आदि शामिल है. जोनल मैनैजर अब 500 करोड़ रुपये तक की परियोजनाओं की मंजूरी दे सकते हैं.
लोग दिल्ली आने की बजाय सीधे जीएम से संपर्क कर काम शुरू कर सकते हैं. इलेक्ट्रिफिकेशन और सिगनलिंग सिस्टम को दुरुस्त किया जा रहा है. हाइ लेवल सेफ्टी रिव्यू कमेटी के सुझाव को लागू कर दिया गया है. यात्रियों की सुविधाओं पर ध्यान दिया जा रहा है. राज्यों के साथ मिल कर एमओयू बन रहे हैं. इसके तहत राज्य सरकार यह तय करेगी कि किन परियोजनाओं को प्राथमिकता में ऊपर रखा जाये और किनको नीचे.
पिछले बजट में 132 वादे किये, 72 पर काम शुरू
वैश्विक वित्तीय सेवा फर्म मोर्गन स्टैनली की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने पिछले बजट में विभिन्न क्षेत्रों में 132 वादे किये. अच्छी बात है कि इनमें से 72 वादों पर काम शुरू हो चुका है. लेकिन, रिपोर्ट के मुताबिक, जमीन का मुद्दा, फंडिंग और कर्मचारियों पर होनेवाला खर्च सबसे बड़ा खतरा है.
निवेश के लिहाज से रेलवे की 20 फीसदी बड़ी योजनाएं मंजूरी नहीं मिलने के कारण अटकी पड़ी हैं. इस कारण निजी क्षेत्र रेलवे में निवेश करने से कतरा रहा है और पीपीपी के तहत 15 फीसदी निवेश हासिल करने की रेलवे की उम्मीद पूरी नहीं हो पा रही है. सिर्फ कैटरिंग दुरुस्त करने और आधुनिक कोचों के सहारे रेलवे की सेहत को नहीं सुधारा जा सकता है.
विवरण 2010-11 2011-12 2012-13 2013-14 2014-15
कुल ट्रैफिक कमाई 88,356 94,840 1,03, 917 1,43,742 1,60, 775
(अनुमानित)
सामान्य ऑपरेटिंग खर्च 65,500 67,000 75,650 84,400 1,10,649
योजना आउटले 41,426 57,630 60,100 63,363 65,445
नयी पटरियां (किमी में) 1021 1,075 725 500 18 (सर्वे की गयी)
लाइन दोहरीकरण (किमी में) 700 867 700 750 10
(खर्च और कमाई के आंकड़े करोड़ रुपये में हैं)
रेल बजट 2015-16 (अनुमानित)
कुल ट्रैफिक कमाई : 1,83,578 करोड़ अनुमानित.
सामान्य ऑपरेटिंग खर्च : 9.6 प्रतिशत बढ़ोतरी
वार्षिक योजना आउटले : 1,00,001 करोड़ अनुमानित.
कुल बजटीय समर्थन : 40,000 करोड़.
इबीआइ के तह मार्केट बारोइंग-17,655 करोड़, बैलेंस आउटले-17,793 करोड़ (आंतरिक स्रोत), पीपीपी-5781 करोड़.
कुप्रबंधन के कारण खस्ता है रेलवे की हालत
आरएन मल्होत्रा
पूर्व चेयरमैन, रेलवे बोर्ड
देश के आर्थिक विकास को गति देनेवाले रेलवे की हालत इस समय अच्छी नहीं है. अरसे से ही रेलवे प्रबंधन माल ढुलाई के मामले में सड़क परिवहन से पिछड़ता चला रहा है. रेलवे की आय का सबसे बड़ा स्रोत माल ढुलाई ही है. वहीं दूसरी ओर यात्रियों की बढ़ती संख्या को संभालना भी रेलवे के लिए बड़ी चुनौती बन गयी है. लंबाई के हिसाब से देखें तो आजादी के समय देश में 54 हजार किलोमीटर रेल लाइनों का विस्तार था, मगर आज आजादी के इतने बरसों के बाद भी यह महज 65 हजार किलोमीटर तक ही है. यानी पिछले लगभग 70 साल में देशभर में सिर्फ 11 हजार किलोमीटर अतिरिक्त रेल लाइनें बिछायी जा सकी हैं.
वहीं चीन को देखें, तो साल 1947 में वहां सिर्फ 27 हजार किलोमीटर रेल लाइनें थीं, लेकिन आज वहां 1.1 लाख किलोमीटर का रेल नेटवर्क तैयार हो गया है. हमारे देश की आबादी के लिहाज से यहां रेल नेटवर्क का विस्तार नहीं हो पाया है.
विस्तार की बात तो दूर है, दशक-दर-दशक रेलवे की वित्तीय हालत बेहद खराब होती गयी है और इसका ऑपरेटिंग रेशियो कुल राजस्व प्राप्ति के मुकाबले तेजी से बढ़ रहा है. माैजूदा समय में यह 94 प्रतिशत के आसपास है. सातवें वेतन आयोग की सिफारशों के लागू होने के बाद रेलवे पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ बढ़ेगा और इससे ऑपरेटिंग रेशियो के बढ़ने की भी पूरी संभावना है. पेंशन दायित्व के बढ़ते बोझ का प्रबंधन करना रेलवे के लिए मुश्किल साबित हो रहा है.
भारतीय रेल का सुरक्षा के प्रति नजरिया भी बहुत हैरान करनेवाला है. लंबित योजनाओं की सूची लगातार बढ़ रही है और अपने मूलभूत कर्तव्य- जैसे कि ट्रेनों और स्टेशनों की साफ-सफाई का काम- भी सही तरीके से नहीं हो पा रहा है. मौजूदा केंद्र सरकार रेलवे की हालत सुधारने के लिए कदम उठा रही है, लेकिन फंड की कमी के कारण सुधार की गति धीमी है. अगर रेलवे में विदेशी निवेश को मंजूरी दी जाये, तो पैसे की कमी को काफी हद तक दूर किया जा सकता है. लेकिन, पूर्व के अनुभव से स्पष्ट होता कि भारत के निजी क्षेत्र रेलवे में निवेश को लेकर उत्साहित नहीं रहे हैं.
रेलवे की मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि बाहर से आनेवाले किसी भी अच्छे विचार पर गौर नहीं किया जा सकता है. फेट कॉरिडोर प्रोजेक्ट में विलंब इसका उदाहरण है. देश की मौजूदा स्थिति को देखते हुए मौजूदा बजट में रेलवे काे अधिक आवंटन की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
रेलवे को अपना संसाधन बढ़ाने के उपाय खुद भी करने होंगे. रेलवे यात्री किराये में सब्सिडी देता है और माल भाड़े में इजाफा कर देता है. माल भाड़े के अधिक होने से ढुलाई से आय में रेलवे की हिस्सेदारी कम हो रही है. ऐसे माहौल में रेलवे न तो माल भाड़े से अतिरिक्त पैसा हासिल कर पा रहा है और न ही इससे यात्री सुविधा बेहतर हो पा रही है. देश में कुल माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी 35 फीसदी है और कुल कमाई का दो-तिहाई हिस्सा इससे ही प्राप्त होता है. यही नहीं, रेलवे के पास माल ढुलाई के लिए पर्याप्त संख्या में कोच भी उपलब्ध नहीं हैं.
कैग रिपोर्ट में भी गंभीर सवाल
रेलवे की अकुशलता और फंड का सही इस्तेमाल नहीं करने को लेकर कैग रिपोर्ट में भी गंभीर सवाल उठाये गये हैं. सुरक्षा को लेकर भी रेलवे गंभीर नहीं है. रेलवे ट्रैक की लंबाई को बढ़ाये बिना ही समय-समय पर ट्रेनों की संख्या बढ़ती रही है. इस तरह ज्यादा ट्रेनों का परिचालन बढ़ने से ट्रैकों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है और इससे इनमें दरारें आने की संभावना अधिक होती है.
अत्यधिक दबाव के कारण ट्रेनों की गति को बढ़ाना मुश्किल हो गया है. रेलवे की योजनओं के लंबित होने से न सिर्फ इसे पूरा करने का खर्च बढ़ता है, बल्कि नयी योजनाओं को लागू करना भी मुश्किल हो जाता है. काफी समय से ट्रेनों में एंटी कॉलिजन डिवाइस लगाने की बात हो रही है, लेकिन अभी तक इसे पूरी तरह से नहीं लगाया जा सका है.
कड़े फैसले लेने की जरूरत
मोदी सरकार रेलवे के आधुनिकीकरण पर जोर दे रही है, लेकिन फंड की तंगी और पेशेवर रवैये की कमी से इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है. रेलवे की पहली प्राथमिकता यात्रियों की यात्रा को सुरक्षित बनाने की होनी चाहिए.
कई कमेटियों ने सुरक्षा को लेकर अहम सिफारिशें की हैं, लेकिन इन सिफारिशों पर अमल नहीं हो पा रहा है. आज हालत यह है कि रेलवे आवंटित राशि भी खर्च नहीं कर पा रहा है. विदेशी पूंजी के लिए रेलवे के कामकाज को पारदर्शी और पेशेवर बनाना होगा. हाइ स्पीड ट्रेन और बुलेट ट्रेन को आगे बढ़ाने के बजाय सरकार को रेलवे की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए कड़े फैसले लेने का साहस दिखाना होगा.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

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