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सचिवालय गोलीकांड 11 अगस्त की 75वीं बरसी पर खास : माली बन कर चढ़ा और फहरा दिया तिरंगा

पुष्यमित्र पटना : बिहार विधानसभा के ठीक सामने लगी सात शहीदों की मूर्ति हमें बार-बार उस दिन की याद दिलाती है, जब सचिवालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश में सात छात्रों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. उन छात्रों की यादें हम बिहार वासियों के हृदय में हमेशा के लिए अंकित हो गयी […]

पुष्यमित्र
पटना : बिहार विधानसभा के ठीक सामने लगी सात शहीदों की मूर्ति हमें बार-बार उस दिन की याद दिलाती है, जब सचिवालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश में सात छात्रों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी.
उन छात्रों की यादें हम बिहार वासियों के हृदय में हमेशा के लिए अंकित हो गयी हैं. मगर उस युवक की याद हमें बहुत कम आती है, जिसने आज से ठीक 75 साल पहली उसी रोज पटना सचिवालय पर तिरंगा फहरा कर अपने सात साथियों के बलिदान को सफल बना दिया था.
माली बन कर सचिवालय के कंगूरे पर चढ़ने और झंडा फहराने वाला वह युवक शहीद नहीं हुआ, मगर ताउम्र एक आदर्श देशभक्ति भरा जीवन जीते रहा. गुमनाम रहा, मगर हर साल 11 अगस्त को अपने साथियों को नमन करने शहीद स्मारक पहुंचता रहा. और अंत में झंडा फहराने के भावोद्वेग में ही 26 जनवरी, 1984 को उसने शरीर त्याग दिया. उस युवक का नाम था रामकृष्ण सिंह.
विधानमंडल के उस वक्त के सुरक्षाकर्मी ने बताया था नाम
यूं तो उस वक्त के किसी सरकारी दस्तावेज में यह विवरण दर्ज नहीं है कि रामकृष्ण सिंह ही वह युवक था, जिसने 11 अगस्त, 1942 को सचिवालय पर तिरंगा फहराया था.
मगर सरकारी दस्तावेज यह जरूर बताते हैं कि उस रोज रामकृष्ण सिंह नामक युवक की पटना सचिवालय से गिरफ्तारी हुई थी. झंडा फहराने वाले युवक रामकृष्ण सिंह ही थे, इसकी पुष्टि 1942 में बिहार विधानमंडल के सुरक्षा प्रभारी राजनंदन ठाकुर ने बाद के दिनों में एक आलेख लिख कर की है.
वे लिखते हैं, जब सचिवालय पर झंडा फहराने वाले को ढूंढ़ लिया गया, तो हमने उससे पूछताछ शुरू की. उसने अपना परिचय दिया- नाम रामकृष्ण सिंह, घर मोकामा, पटना कॉलेज में आॅनर्स का विद्यार्थी. उसने अंगरेजी में भारतीय अफसरों को धिक्कारना शुरू किया- आप लोगों को विदेशियों की सेवा करने में शर्म नहीं आती? फिर उसे गिरफ्तार कर फुलवारीशरीफ कैंप जेल ले जाया गया.
जहां रास्ते में भीड़ ने उसे छुड़ा लिया. उसके घर की कुर्की-जब्ती की गयी और 29 नवंबर, 1942 को उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया. नौ महीने तक वे विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में बंद रहे. अाखिरकार उन्हें चार महीने का सश्रम कारावास मिला.
36 साल की सरकारी सेवा में 12 से अधिक शहरों में तबादला दिलचस्प है कि उस युवक ने कभी इस बात को भुनाने की कोशिश नहीं की कि सचिवालय पर झंडा फहराने वाला वही था.
आजादी के बाद दिसंबर, 1947 में उसने बिहार सिविल सेवा ज्वाइन कर ली. सब डिप्टी कलेक्टर के रूप में नौकरी की शुरुआत की और 1983 में प्लानिंग डिपार्टमेंट के ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद से रिटायर हुए. इस बीच उन्होंने सादगीपूर्ण ईमानदार जीवन जिया. उनके पुत्र नवेंदु शर्मा बताते हैं कि 1942 में ही उन्होंने खादी पहननी शुरू कर दी थी और जीवनपर्यंत खादी पहनते रहे.
1972 तक तो उनके घर में उनकी मां चरखा काट कर धागा तैयार करती थीं. फिर उसी धागे से उनके पिता के लिए खादी ग्रामोद्योग से वस्त्र खरीदा जाता था. ईमानदारी का आलम यह था कि 36 साल की सेवा में 12 से अधिक शहरों में इनका तबादला हुआ और जब रिटायर हुए, तो घर चलाने के लिए एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करनी पड़ी.
घर में काती गयी सूत के कपड़े पहनते रहे
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने उनके मन में देशप्रेम की जो अलख जगायी, वह उन्हें ताउम्र निर्देशित करती रही. धर्म और जाति को नहीं मानने की वजह से तीन बार उन्हें जाति से निकाला गया. 1946-47 के दंगों में उन्होंने कई मुस्लिम परिवारों को मोकामा से सुरक्षित पटना पहुंचाया.
जेल में रहने के दौरान टंकार के नाम से कविताओं की किताब लिखी, जिसमें उन्होंने सचिवालय गोलीकांड का विस्तार से चित्रण किया. मगर कभी उस किताब को छपवाया नहीं. वह किताब आज भी उनके घर में रखी है. जब तक पटना में रहे, 11 अगस्त को हर साल अकेले शहीद स्मारक पहुंचते रहे और अपने मित्रों को चुपचाप नमन करके लौट जाते.
झंडा फहराने के बाद आया था ब्रेन स्ट्रोक
उनकी मृत्यु ने यह साबित कर दिया कि उनका जीवन देश के लिए ही था. वह 26 जनवरी, 1984 का दिन था.जिस फर्म में वे काम करते थे. वहां उन्होंने झंडा फहराने की प्रथा शुरू की थी. उस रोज झंडा फहराते हुए वे इतने विह्वल हुए कि उन्हें वहीं ब्रेन स्ट्रोक आ गया. देर शाम उन्हें पीएमसीएच लाया गया, मगर वे बच न सके. उसी दिन उन्होंने इस संसार को विदा कह दिया.
न कहीं मूर्ति, न कहीं स्मारक
आज भी बहुत कम लोग जानते हैं कि सचिवालय पर झंडा फहराने वाले युवक का नाम क्या था, उसने कैसा जीवन जिया.उनके तीन पुत्र थे, जिनमें से एक का निधन हो गया. दो पुत्र बहादुरपुर स्थित अपने आवास पर रहते हैं. उनकी पत्नी का भी निधन हो चुका है, जिसमें शिरकत करने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहुंचे थे. संकोची स्वभाव के उनके पुत्र नवेंदु शर्मा, जो एक अंगरेजी अखबार से रिटायर हुए हैं, कहते हैं, उनकी स्मृति को जिंदा रखना मेरा पुत्र धर्म है. मगर यह कहना ठीक नहीं लगता कि मेरे पिता के नाम से मूर्ति स्थापित हो. किसी स्मारक का नाम रखा जाये.
हालांकि, बहादुरपुर हाउसिंग कॉलोनी में एक पार्क में उनकी मूर्ति स्थापित करने का फैसला हुआ था. मगर वह काम हो नहीं पाया है. कुछ ऐसा हो कि बिहार के लोगों के मन में मेरे पिता की स्मृति हमेशा के लिए दर्ज हो जाये. यही इच्छा है.
रामकृष्ण 1- रामकृष्ण सिंह की हस्तलिखित पुस्तक टंकार, जिसमें दर्ज है सचिवालय गोलीकांड का विवरण
रामकृष्ण 2- अगस्त क्रांति पुस्तक में प्रकाशित राम कृष्ण सिंह की तसवीर
रामकृष्ण 3- रामकृष्ण सिंह की 1942 में हुई गिरफ्तारी से संबंधित कागजात
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