आरा.
श्री दिगंबर जैन चंद्रप्रभु मंदिर में विराजमान मुनिश्री 108 विशल्यसागर जी महाराज ने धर्मसभा में कहा कि ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल इंद्रिय संयम ही नहीं, बल्कि विचारों, वचन और कर्मों से पवित्रता बनाए रखना है. इससे आत्मा के मार्ग पर चलकर आत्म-शुद्धि प्राप्त होती है. बाहर की यात्रा भोग की यात्रा है, भीतर की यात्रा योग की यात्रा है. जब ऊर्जा नीचे की ओर जाती है तब संतान को जन्म देने में कारण बन जाती है.जब ऊर्जा उर्ध्वारोहण करती है तब भगवान को जन्म देने में कारण बन जाती है. ऊर्जा एक है पर उपयोग अनेक हैं. ब्रह्मचर्य की साधना कर्म विराधना का कारण है. पतित से पावन होने वाली समस्त आत्माओं ने ब्रह्मचर्य को स्वीकारा है. गृहस्थ इसे अणुव्रत के रूप में स्वीकारता है तो स्वदार संतोष व्रत के साथ अष्टमी चतुर्दशी या माह में 5 दिन, 10 दिन, 15 दिन ब्रह्मचर्य स्वीकार करता है. अपने जीवन को, धर्म को, यश को, शील को सुरक्षित करता है. इसलिए भारतीय संस्कृति में चार आश्रमों में ब्रह्मचर्य को सर्वप्रथम रखा. अगर शक्ति हो तो जीवन पर्यन्त इसे संभाल कर रखें. गृहस्थ जीवन में भी प्रवेश करे तो ब्रह्मचर्य का ख्याल रखते हुए संसार में कदम रखें. अन्यथा यौवन का यौवन ही नहीं आ पायेगा. अपरिपक्व शक्ति का नाश, प्रसन्नता, ओज, बुद्धि, कार्यक्षमता को समाप्त कर समय से पूर्व ही मृत्यु के आगोश में जिंदगी समा जायेगी. ब्रह्मचर्य का अर्थ है. चैतन्य आत्मा का भोग करना. क्योंकि मनुष्य के पास अथाह शक्ति है. वह चाहे तो संसार का सृजन भी कर सकता है. वह चाहे तो परमात्मा का भी सूजन कर सकता है. उसकी ऊर्जा एक आग की भांति है. वह चाहे तो परमात्मा का दीप जलाकर स्वयं को प्रकाशित कर सकता है. वह चाहे तो किसी के मकान में आग लगाकर उसे स्वाहा भी कर सकता है.जब ऊर्जा बाहर की ओर जाती है तब देह का स्पर्श चाहती है. जब ऊर्जा भीतर की ओर जाती है तब आत्मा का दर्शन करती है. मीडिया प्रभारी निलेश कुमार जैन ने बताया कि मुनिश्री के आहारचर्या में काफी संख्या में जैन श्रद्धालु, मुनिश्री को पडग़ाहन कर आहारचर्या सम्पन्न कराए.संध्याकालीन कार्यक्रम में शास्त्र प्रवचन, मंगल आरती, प्रश्नमंच, पुरस्कार वितरण एवं भक्ति आराधना का कार्यक्रम संपन्न हुआ.
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