वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार व स्तंभकार
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पिछली बार मैंने अपनी एक दोस्त के बेटे का जिक्र किया था कि वह सवा दो साल का है और अपने पापा को देखकर बहुत सारी बातें, आचरण उसकी आदत में शामिल होते जा रहे हैं. उसकी मां ने स्पष्ट बताया कि ये सारी आदतें इसके पप्पा की हैं. ये पूरा वाकया बताने की वजह है.
यह किस्सा उन पिताओं के लिए है, जो कहते हैं कि बच्चों में गुण, संस्कार डालना, अच्छा-बुरा बताना मां की ही जिम्मेदारी है. बच्चों के जरा भी बिगड़ने पर केवल मां को दोषी ठहराते हैं. यही कहते हैं कि वह बच्चों पर ध्यान नहीं देती. कोई भी अच्छी बात हो, चाहे क्लास में अच्छे मार्क्स लाने की हो या वेल बिहेव्ड की, तब सीधे मुंह से यही निकलता है- आखिर बेटा किसका है? किस पर गया है, पिता पर न?
इसका मतलब तो यही हुआ कि मां पढ़ने में फिसड्डी रही. और अब संस्कारों की बात करते हैं, तो अगर ‘बेटा पिता पर गया’, तो मां में संस्कार भी नहीं, वह बच्चे का ध्यान ही नहीं रखती! अब यहां पर कुछ प्रश्न हैं. क्या विवाह से पहले नहीं पता था कि लड़की पढ़ी-लिखी नहीं? क्या अनपढ़ संस्कारी नहीं होते? ऐसा तो नहीं है कि जंगल के पेड़ पर सेब नहीं लगते. केवल बागों में ही फलते हैं. पेड़ कहीं का भी हो- वह फल ही देगा.
संस्कार भी ऐसा ही फल है जो पढ़ाई-लिखाई से तो आता ही है, लेकिन समझदारी, स्वविवेक होना भी जरूरी है. एक और प्रश्न- क्या घर में पढ़ी-लिखी केवल पत्नी ही है? क्या घर के किसी सदस्य का बच्चे पर प्रभाव नहीं पड़ेगा? हो सकता है आपका बच्चा तेज आवाज में बद्तमीजी से बोलता हो, तो क्या आपकी पत्नी ही इस तरह बोलती है?
पहले की पीढ़ियों में बहुत कम लोग पढ़े-लिखे होते थे. हमारी मां की पीढ़ी तो फिर भी पढ़ी-लिखी थी, लेकिन उससे पहले तो खासकर महिलाएं स्कूल तक नहीं जाती थीं. तो क्या हमारी मां- पापा की पीढ़ी पढ़ी- लिखी, संस्कारी नहीं थी? बहुत से लोग तो पढ़-लिखकर भी कुछ नहीं सीख पाते. अगर ऐसा है तो भी आप जिम्मेदार हैं. साक्षरता और ज्ञान अलग –अलग बातें हैं.
हमारे यहां अक्सर लोग पढ़कर साक्षर ही होते हैं. ज्ञान तब कहा जायेगा जब आप समय को पहचानेंगे. समय के बहाव को जानेंगे. आपको स्कूल ने नाव चलाना सिखा दिया. अब उस समय कैसा माहौल था, कैसे बहाव थे और आज क्या हालात हैं? ये फैसला लेना आपकी जिम्मेवारी है.
आप नाव पर ही निर्भर रहेंगे या उस बहाव को देखकर कुछ नयी चीजों को भी चुनेंगे? निश्चित रूप से मां का शिशु के जीवन में अहम रोल है. वह हर पल बच्चे के साथ रहती है.
उसे अपने बच्चे की रोने की आवाज में दर्द है या भूख, यह भी समझ आता है. बड़े होने पर वह कब-क्या चाहता है, उसके कहने से पहले मां जान जाती है, लेकिन बच्चे में जो आदतें पड़ती हैं, वह दोनों की आदतें होती हैं. अगर ज्वाइंट फैमिली है, तो उनके रहने-खाने के ढंग का प्रभाव भी बच्चे पर पड़ता है. शुरू में अमूमन सभी बच्चों के रोल मॉडल उनके पापा होते हैं, क्योंकि वह काफी लंबे अंतराल के बाद मिलते हैं.
पापा ही क्यों, अगर घर में अन्य सदस्य हैं- जैसे चाचा, बाबा वगैरह तो वह उनको भी कॉपी करेगा. शाम को जब उनसे मिलते हैं, तो उनके आगे-पीछे घूमते हैं और उनको कॉपी करते हैं. यही नकल करना कब उसकी आदत बन जाता है, पता ही नहीं चलता. पापा-चाचा के शेविंग का स्टाइल, बाबा के चलने का तरीका, वे चश्में से कैसे देखते है? कैसे खांसते हैं? दादी कैसे हंसती हैं? ये सारी बातें अलग चरित्र की हैं. सच यह है कि मां ही शुरू से बच्चे का होमवर्क कराती है. बहुत से पति भी यह जिम्मेदारी शेयर करते हैं.
उसमें भी होता यह है कि मां के जितना धैर्य उन पिताओं में नहीं होता और परेशान होकर कहते हैं- ‘ अब तुम ही पढ़ाओ’. तो यह कहना कि बच्चे की हर खराब आदत, गलत काम के लिए केवल मां ही जिम्मेदार है, गलत है. घर का हर सदस्य उतना ही जिम्मेदार है जितना कि मां, क्योंकि बच्चा वही करेगा जो देखेगा. चाहे वह किसी को भी फॉलो करे.
हर बात में यह कहना कि मां ने कुछ सिखाया ही नहीं, यह भी गलत है, तो अगली बार यह कहने से पहले आप सोचकर कहें कि आखिर गलती कहां है. आप भी अपने आचरण ऐसे बनाएं कि बच्चा आपको कॉपी करे और उसके द्वारा आपकी नकल करना उसकी आदत बन जाये. आदत, आचरण एक दिन में नहीं बनते. समय लगता है.
आजकल सभी कोशिश करते हैं कि लड़की पढ़ी-लिखी आये. उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कोई मां चाहती है कि उसका बच्चा पढ़ने में कमजोर रहे, गंदा बच्चा बने? वह खुद काम करके उसे पढ़ाती है, तो यह तो नहीं हो सकता कि क्लास में अव्वल आया तो बेटा आपका और कहीं मारपीट झगड़ा हो जाये, तो मां की गलती. मां ने तो नहीं कहा था कि लड़कर आओ. बेहतर होगा कि आप जब ऑफिस से आएं, तो उसके साथ बैठकर दिन भर का जायजा लीजिए और उसकी सारी बातें सुनिए.
क्रमश: