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मेरी संगीत साधना के अभिन्न अंग हैं पंडित कुमार गंधर्व : शुभा मुद्गल

संगीत की दुनिया के अलौकिक साधक कुमार गंधर्व जी के जन्म शताब्दी वर्ष के खास मौके पर उनकी शिष्या रहीं प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतज्ञ व गायिका शुभा मुद्गल से बातचीत.

आप कुमार गंधर्व जी की स्मृतियों को कैसे याद करती हैं? आपसे जुड़ी कोई खास स्मृति जो आप शेयर करना चाहें?

सत्य तो यह है कि पंडित कुमार गंधर्व जी को याद करने का कोई विशेष प्रयास मुझे नहीं करना पड़ता है, क्योंकि उनका संगीत, उनकी अनूठी गायकी व मौलिक विचार मेरे जीवन व मेरी संगीत साधना का अभिन्न अंग कब के बन चुके हैं. उनकी जन्म शताब्दी पर जो आयोजन हो रहे हैं, लेख लिखे जा रहे हैं, गोष्ठी-चर्चा आदि आयोजित हो रहीं हैं, वह सब उचित भी है और निष्पक्ष रूप से आयोजित होने ही चाहिए, लेकिन जैसा मैं कह चुकी हूं, मेरी संगीत यात्रा में तो उनका स्वर, उनकी रचनाएं सदैव मेरे साथ ही हैं. फिर भी आपने विशेष स्मृति को उजागर करने का अनुरोध किया है तो बता दूं कि मेरा बचपन इलाहाबाद (तत्कालीन प्रयागराज) में बीता. शहर में कुछ ऐसे जानकार व संगीत प्रेमी थे, जो कुमार जी के गायन के भक्त भी थे और उनके मित्र भी. उनमें से एक श्री सत्येंद्र वर्मा जी, जो शहर के नामी गिरामी वकील रहे, प्रतिवर्ष अपने बंगले पर कुमार जी का गायन आयोजित करते थे. शहर के सभी संगीत प्रेमियों को खुला निमंत्रण था कि आयें और गायन का आनंद लें. हमारा पूरा परिवार यानी मां, पिताजी, मैं और मेरी छोटी बहन हर वर्ष इस कार्यक्रम को सुनते और प्रतीक्षा करते कि अगले वर्ष कुमार जी कब पधारेंगे.

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मेरी संगीत साधना के अभिन्न अंग हैं पंडित कुमार गंधर्व : शुभा मुद्गल 2
कुमार जी के बारे में कहा जाता है कि वे हमेशा प्रयोगधर्मी रहे, उन्होंने प्रकृति से उभरे संगीत और लोक संगीत को भी अपनी संगीत में जगह दी. इस बारे में थोड़ा बताएं. साथ ही शास्त्रीय संगीत में प्रयोगधर्मिता के संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?

कुमार जी ने लोक संगीत का अध्ययन पूरे सम्मान से किया और उसे अपनाया भी, इसके एक नहीं, अनेक प्रमाण हैं. उनके द्वारा रचित ‘धुन-उगम राग’ उनकी इस प्रयोगधर्मिता का प्रमाण देते हैं. सांप को लुभाने हेतु संपेरे की बीन की धुन में से ‘अहिमोहिनी’ राग का सार निकाल, उसमें से ख्याल की बंदिशें रचना और उन्हें बाकायदा ख्याल शैली में प्रस्तुत करना कुमार जी ने कर दिखाया. इसके अतिरिक्त वे ‘मालवा की लोक धुनों’ पर पूरा कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे. उनके पास तो रागदारी की सामग्री का पूरा खजाना था, लोक गीतों की ओर वे किसी अभाव के कारण नहीं झुके, बल्कि लोक संगीत कितना समृद्ध है शायद यह समझ कर उन्होंने ऐसा कार्यक्रम तैयार किया.

शास्त्रीय संगीत की महत्ता और भविष्य को लेकर आप क्या सोचती हैं? नये संगीत साधकों से आप क्या कहना चाहेंगी?

ऐसे तो मेक इन इंडिया के नारे लगाये जा रहे हैं देश में, लेकिन जो पारंपरिक कलाएं हैं उनके विषय में न कोई सोच रहा है, न किसी की रुचि है. इसलिए पारंपरिक कलाओं को कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है. यदा-कदा कोई भव्य आयोजन का वास्ता देकर यह कहे कि मेरा कहा सही नहीं है, तो उनके विचार उनको मुबारक, लेकिन कटु सत्य यह है कि ऐसा समय भी आ सकता है, जब ध्रुपद आदि पारंपरिक संगीत कलाओं को सुनने भारतीय विदेश यात्रा करने पर मजबूर हो सकते हैं.

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