नई दिल्ली : भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास ने आज 5 अगस्त 2022 को नीतिगत ब्याज दर रेपो रेट में 0.50 फीसदी या 50 बेसिस प्वाइंट बढ़ोतरी करने का ऐलान किया है. यह संभवत: देश में पहला ऐसा मौका होगा, जब केंद्रीय बैंक ने लगातार तीसरे महीने कर्ज को महंगा किया है. इससे पहले, आरबीआई ने अप्रैल 2022 में रेपो रेट में 0.40 फीसदी, मई में 0.50 फीसदी और अब अगस्त में 0.50 फीसदी इजाफा किया गया है. इन तीन महीनों के दौरान रेपो रेट में अब तक कुल 1.40 फीसदी तक इजाफा किया जा चुका है. आरबीआई के इस फैसले से देश के आम आदमी की जेब पर भारी बोझ बढ़ेगा. आइए, जानते हैं कि आम आदमी की जेब पर रेपो रेट में बढ़ोतरी का कैसे प्रभाव पड़ता है…?
भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से जिस ब्याज दर पर देश के व्यावसायिक, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों सहित वित्तीय क्षेत्र के संस्थानों को कर्ज दिया जाता है, उसे रेपो रेट कहा जाता है. रिजर्व बैंक की ओर से रेपो रेट में कटौती करने का अर्थ कर्ज को सस्ता करना है. इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि रिजर्व बैंक रेपो रेट में कटौती करके देश के सभी प्रकार के बैंकों और वित्तीय संस्थानों को सस्ती दरों पर कर्ज मुहैया कराता है, जिससे बैंक और वित्तीय संस्थान अपने ग्राहकों को भी सस्ती ब्याज दरों पर कर्ज उपलब्ध कराते हैं और पहले से लिये गये कर्जों की मासिक किस्त को सस्ता करते हैं. रेपो रेट में कटौती होने पर होम लोन, कार लोन समेत अन्य दूसरे प्रकार के कर्ज सस्ते हो जाते हैं. इसके साथ ही, अगर कर्ज की लागत कम रहेगी तो इससे जुड़े उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी जिससे कंपनियों का विस्तार होगा और नए रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे. इसमें गौर करने वाली बात यह है कि रेपो रेट में कटौती का लाभ पर्सनल लोन लेने वाले ग्राहकों को नहीं मिलता है.
रिजर्व बैंक की ओर से निर्धारित की जाने वाली रेपो रेट वह बाहरी बेंचमार्क भी होता है, जिसके आधार पर देश के सभी सरकारी और निजी बैंक अपने कर्ज की ब्याज दरें तय करते हैं. इस दर से जुड़े कर्ज को रेपो लिंक्ड लेंडिग रेट (आरएलएलआर) कहा जाता है, जिसमें बैंक अपने कुछ आंतरिक खर्चों को जोड़कर खुदरा कर्ज की ब्याज दरें तय करते हैं. इसके अलावा बैंक अपने इंटरनल बेंचमार्क मार्जिनल कॉस्ट ऑफ लेंडिंग रेट (एमसीएलआर) के आधार पर भी कर्ज बांटते हैं.
द्विमासिक मौद्रिक समीक्षा के दौरान रिजर्व बैंक की ओर से रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट निर्धारित किया जाता है. रेपो रेट में बढ़ोतरी से शेयर बाजार और भारतीय अर्थव्यवस्था से लेकर आम आदमी तक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. रिजर्व बैंक की ओर से रेपो रेट में कटौती की जाती है, तो आम आदमी को बहुत बड़ी राहत मिलती है, क्योंकि जब कर्ज सस्ता होता है तो लोगों के खर्च बढ़ जाते हैं और बाजार में नकदी का प्रवाह भी बढ़ जाता है. वहीं, रेपो रेट में बढ़ोतरी होने पर लोन महंगा होता है और लोगों के खर्च घट जाते हैं. हालांकि, रिजर्व बैंक की इस रेपो रेट से आम आदमी का ताल्लुक कम ही रहता है, लेकिन यह देश के प्रत्येक नागरिक के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.
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रिजर्व बैंक की ओर से रेपो रेट में किए गए बदलाव का सीधा असर बैंकों की आमदनी, उनकी कार्यप्रणाली, जमाकर्ज और मार्जिन पर पड़ता है. इसके साथ ही, रेपो रेट में बदलाव का असर स्टॉक एक्सचेंज में कारोबार कर रहे बैंकों के शेयरों पर भी देखने को मिलता है. रेपो रेट में कटौती या बढ़ोतरी की वजह से बैंक शेयरों में उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है. इसके साथ ही, कर्ज सस्ता या महंगा होने से ऑटो और होम लोन की ब्याज दरों में भी बदलाव पड़ता है, जिसका सीधा असर इनसे जुड़ी कंपनियों के शेयरों पर भी देखने को मिलता है.
रेपो रेट में बदलाव का असर देश में उपभोक्ता सामान बनाने, बेचने और आपूर्ति करने वाली कंपनियों पर भी पड़ता है. इसका सीधा असर ऑटोमोबाइल सेक्टर की कंपनियों, रियल एस्टेट कंपनियां, एनबीएफसी, सीमेंट, स्टील सहित बुनियादी क्षेत्र की लगभग सभी कंपनियों पर इसका कुछ न कुछ असर दिखाई पड़ता है. रियल एस्टेट क्षेत्र से करीब दो सौ क्षेत्र की कंपनियां जुड़ी हुई होती हैं. रेपो रेट में बदलाव का असर इन सभी कंपनियों पर दिखाई देता है.
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जैसा कि आपको ऊपर में यह बता दिया गया है कि रिजर्व बैंक की ओर से तय की जाने वाली रेपो रेट में किसी भी प्रकार के बदलाव का असर देश की हजारों कंपनियों पर पड़ता है. देश के बैंक, एनबीएफसी, वित्तीय संस्थान, रियल एस्टेट, बुनियादी ढांचा क्षेत्र के अलावा सभी सेक्टर अर्थव्यवस्था के साथ सीधे जुड़े होते हैं. रेपो रेट में कटौती या बढ़ोतरी का असर देश की हजारों कंपनियों और बैंकों के जरिए अर्थव्यवस्था पर भी दिखाई देता है. रेपो रेट में बढ़ोतरी होने की वजह से महंगाई बढ़ने के आसार अधिक रहते हैं, जिसकी वजह से आर्थिक गतिविधियां सुस्त पड़ती हैं, जिससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर भी उसका असर दिखाई देता है. इसीलिए रेपो रेट निर्धारित करते समय महंगाई और आर्थिक वृद्धि के मानकों और कारकों पर गौर करता है और उसकी कोशिश महंगाई को काबू में रखने की होती है, ताकि उसका असर आर्थिक गतिविधियों पर न पड़े.