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पढ़िये, रवीश कुमार की विशेष टिप्पणी

।।रवीश कुमार।। हमें इम्तिहान के वक्त ही शिक्षा की बदहाली क्यों दिखती है? सन 2014 में छत्तीसगढ़ में दसवीं के करीब 44 प्रतिशत छात्र फेल हो गये थे. मध्य प्रदेश में 52 प्रतिशत और राजस्थान में 33 प्रतिशत छात्र फेल हुए थे. वहीं बिहार में 25 प्रतिशत, तो उत्तर प्रदेश में 13 प्रतिशत बच्चे फेल […]

।।रवीश कुमार।।
हमें इम्तिहान के वक्त ही शिक्षा की बदहाली क्यों दिखती है?
सन 2014 में छत्तीसगढ़ में दसवीं के करीब 44 प्रतिशत छात्र फेल हो गये थे. मध्य प्रदेश में 52 प्रतिशत और राजस्थान में 33 प्रतिशत छात्र फेल हुए थे. वहीं बिहार में 25 प्रतिशत, तो उत्तर प्रदेश में 13 प्रतिशत बच्चे फेल हुए थे. जिन राज्यों में लाखों की संख्या में दसवीं के बच्चे फेल होते हों, वहां आप परीक्षा में नकल की समस्या को कैसे देखना चाहेंगे?
मार्च के महीने में जहां तमाम राज्यों में बजट का हिसाब देने के लिए लूट चल रही होती है, उसी महीने में भारत के ‘भविष्य’ बोर्ड का इम्तिहान दे रहे होते हैं. मार्च का महीना हमारी सरकारी और सार्वजनिक संस्कृति में भ्रष्ट महीना माना जाता है. उत्तर प्रदेश में भले ही चमत्कारिक ढंग से 90 प्रतिशत बच्चे पास होने लगे हों, मगर यूपी का हर कोई जानता है कि चोरी (नकल) हकीकत है. मध्य प्रदेश में चाहे आधे बच्चे फेल हो जाते हों, पर आप दावे के साथ नहीं कह सकते कि वहां चोरी नहीं होती बिहार के हाजीपुर जिले की जिस तसवीर ने तहलका मचा दिया है, उससे जुड़ा हर सवाल और चिंता वाजिब है.
2007 के यूपी विधानसभा चुनाव कवर करते समय मैं झांसी से जालौन की सीमा में प्रवेश कर ही रहा था कि पिनौरा गांव के एक स्कूल पर नजर पड़ गयी. बोर्ड के इम्तिहान चल रहे थे और ठीक हाजीपुर की तरह बड़ी संख्या में छात्रों के परिजन खिड़कियों से लटके हुए थे.
भीड़ बहुत थी, लिहाजा कार धीरे-धीरे बैक कर एक पेड़ की ओट में लगायी और गाड़ी से ही सारा मंजर शूट करना पड़ा.
बिहार की ताजा तसवीरों ने एक बार फिर से शर्मसार किया है. बल्कि उससे ज्यादा झकझोरा है. नकल करने वाला कौन है? कई लोगों ने लिखा है कि सरकारी स्कूल में वंचित तबका ही पढ़ता है. इसे हम जातिगत नजरिये से देख सकते हैं. लेकिन हम तब क्यों नहीं जागते, जब इन स्कूलों के टीचरों को चुनाव से लेकर तमाम ऐसे कामों में लगाया जाता है, जिनका पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं है?
हम तब क्यों नही जागते, जब ट्रेनिंग के दौरान टीचर पांचवीं क्लास के सवालों का जवाब नहीं दे पाते? हम तब क्यों नहीं जागते, जब स्कूल के स्कूल अस्थायी टीचरों से भरे होते हैं और वे पढ़ाने से ज्यादा राजधानियों के चौक पर नौकरी पक्की कराने के लिए लाठियां खा रहे होते हैं? स्कूल के स्कूल रद्दी मास्टरों से भरे हैं. अच्छे मास्टर भी हैं, पर वे भी तो इसी सिस्टम के शिकार हैं.
आखिर, क्यों चोरी करनी पड़ती है? हमारी शिक्षा व्यवस्था गणित और अंगरेजी के नाम पर लाखों छात्रों को समाज और कानून की नजर में अपराधी बना रही है. गणित और अंगरेजी से डरा हुआ बच्च भला कैसे दूसरे विषयों में मन लगा सकता है? इसीलिए, चोरी के बहाने बिहार से आयी तमाम तसवीरों को देखिए. पढ़ाये जाने वाले विषयों ने कितना आतंकित किया होगा? एक तसवीर में एक लड़की के चेहरे पर शून्य पसरा हुआ है, लेकिन शून्य की आकृति के बीच जो भय का दैत्य दिख रहा है, वह डरा देने वाला है. क्या चोरी करने या फेल होने वाले वही छात्र हैं, जो पढ़ते नहीं हैं? यह पूरी तसवीर नहीं है.
‘मैथ्स ब्रेक्स हार्ट्स, सीबीएसइ स्ट्राइक्स फीयर’- 19 मार्च, टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली. इसी अखबार के पहले पन्ने पर एक और खबर थी, जिसका उन्वान था -‘टफ मैथ्स पेपर लीव्स मेनी इन टीयर्स’. ये उन बच्चों का हाल है, जिन्हें सरकारी स्कूलों से बेहतर शिक्षा मिलती है. कोचिंग से लेकर ट्यूशन तक हाजिर रहता है.
सामाजिक और आर्थिक स्थिति से कमजोर उन बच्चों की कल्पना कीजिए, जिन्हें गणित और अंगरेजी का परचा भीतर से तोड़ देता होगा. मैं खुद कमजोर विद्यार्थी होने के नाते इस पीड़ा से गुजरा हूं. मुङो यह देश गणित से हारा हुआ देश लगता है. किसी भी शहर की दीवारों पर मर्दाना कमजोरी की दवा बेचनेवालों के साथ गणित और अंगरेजी के ही मास्टर पास होने की दवा बेचते नजर आते हैं.
उस लड़की की तसवीर दोबारा से याद आ रही है, जो अपनी गोद में चोरी के फर्रे को दबाये बैठी है और कॉपी पर लिख रही है. उसकी आंखों में वही दहशत देखी, जिसे मैं अपने दिनों में दूसरों से छिपाता फिरता था. मैंने नकल का रास्ता कभी नहीं चुना, लेकिन भय से आज तक मुक्त नहीं हो सका हूं.
आज भी सोचता हूं कि मैं स्कूल क्यों गया, जब आधे से ज्यादा विषय समझ ही नहीं सका. अक्सर सोचता हूं कि संस्कृत, गणित, फिजिक्स और बायोलॉजी का चैप्टर याद क्यों नहीं आ रहा है, जिसे तीन बजे सुबह से ही उठ कर रटने लगता था. आज चार लाइन अंगरेजी की नहीं लिख सकता, मगर तब रट-रट कर पास हो गया था. आज भी जब रिपोर्टिग के दौरान किसी स्कूल में जाता हूं, तो बच्चों से जरूर पूछता हूं कि आप जो पढ़ रहे हैं, वह समझ पा रहे हैं कि क्या पढ़ रहे हैं. क्यों पढ़ रहे हैं.
बिहार की इस तसवीर पर किसी से कोई नरमी करने की जरूरत नहीं है. वहां का समाज जानता है कि कौन मेरिट से पास हुआ है और कौन चोरी से. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरिट से पास होने वालों की गुणवत्ता बहुत बेहतर ही हो. पढ़ाने और विषय को समझने में इतना अंतर रह जाता है कि रटने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता. यह शिक्षा व्यवस्था एक बोझ की तरह हमारी पीठ पर लादी गयी है, जिसे हम कभी 90 प्रतिशत तो कभी मेरिट के नाम पर ढो रहे हैं.
बेरोजगारी दूर करने के नाम पर चपरासी और सिपाही बनने की बाध्यता न होती तो ये सारे लोग एक सर्टिफिकेट के लिए चोरी करने का जोखिम नहीं उठाते. किसी को पूछना चाहिए था कि आप क्या बनने के लिए चोरी से पास हो रहे हैं, जवाब मिल जाता.
चोरी रोक देना एक प्रशासनिक सफलता हो सकती है, लेकिन क्लास रूम में जो हो रहा है या जो नहीं हो रहा है, उसका समाधान तो तब भी नहीं होता है. हम क्यों समान गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूल तैयार नहीं कर पाये हैं? क्या आंकड़े यह नहीं बता रहे हैं कि सारी भाषणबाजी अखबारों और टीवी में हो रही है, क्लास रूम में कुछ नहीं हो रहा है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह आलेख एनडीटीवी के ब्लॉग से साभार लिया गया है.)

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