23.1 C
Ranchi

लेटेस्ट वीडियो

बिपन चंद्र की सांप्रदायिकता,पढ़ें शंकर शरण का आलेख

।। शंकर शरण ।। (स्वतंत्र टिप्प्णीकार) इस शीर्षक को दो अर्थों में लिया जा सकता है. एक, भारतीय बौद्धिकता में सांप्रदायिकता को एक विशेष मुद्दे में स्थापित करने वाला विद्वान; और दूसरा, भारतीय इतिहास को संकीर्ण रूप में समेट-सिकोड़ कर अपनी विचारधारा के अनुरूप प्रस्तुत कर फैलाना. दोनों ही अर्थ सही हैं, और यह श्रेय […]

।। शंकर शरण ।।

(स्वतंत्र टिप्प्णीकार)
इस शीर्षक को दो अर्थों में लिया जा सकता है. एक, भारतीय बौद्धिकता में सांप्रदायिकता को एक विशेष मुद्दे में स्थापित करने वाला विद्वान; और दूसरा, भारतीय इतिहास को संकीर्ण रूप में समेट-सिकोड़ कर अपनी विचारधारा के अनुरूप प्रस्तुत कर फैलाना. दोनों ही अर्थ सही हैं, और यह श्रेय बिपन चंद्र को देना होगा कि यह कार्य उन्होंने पूरी सफलता से संपन्न किया. इस में राजनीतिक परिस्थितयों और केंद्रीय सत्ता में कांग्रेस-कम्युनिस्ट गंठजोड़ द्वारा प्रदत्त संसाधनों का भी योगदान था. फिर भी, बिपन चंद्र ने जिस बुद्धि, भाषा और कौशल से अपना लक्ष्य साधा, उस की प्रशंसा करनी ही होगी.
इसका आरंभ 1969 से हुआ, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रेस ने ह्यकम्युनलिज्म एंड द राइटिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री नामक पुस्तिका छापी. इस के तीन लेखकों में एक बिपन चंद्र थे. तब से इस के निरंतर संस्करण छपते रहे. उसकी महत्ता-उपयोगिता इस बात में है कि आज हमारे बौद्धिक परिदृश्य में सांप्रदायिकता को लेकर जो प्रस्थापनाएं मजबूती से जमी हैं, उसकी पहली प्रस्तुति उसी पुस्तिका में की गयी थी. वे प्रस्थापनाएं हैं- इसलाम के आगमन (उसे आक्रमण भी न कहें!) से पहले भारत कोई महान सभ्यता नहीं था.
हिंदू धर्म कोई चीज नहीं, वह तो ब्राह्मणवाद है जो निचली जातियों पर अत्याचार करता है. इसलाम समानता का महान दर्शन है. भारत में कोई मुसलिम शासन-काल न था, वह तो अंगरेजों द्वारा फैलाया झूठ है. मुसलिम शासक भारतीय थे, जिन्हें विदेशी कहना सांप्रदायिकता है. उन्हीं के काल में संस्कृति का विकास हुआ. मुसलिम शासकों ने हिंदुओं पर कोई ऐसे जुल्म न किये, जो पहले नहीं होते थे. राणाप्रताप, शिवाजी को राष्ट्रीय नायक कहना सांप्रदायिकता है. बीसवीं सदी के आरंभ में लोकमान्य तिलक, श्री अरविंद, गांधी जैसे लोगों ने सांप्रदायिकता की शुरुआत की. मुसलिमों ने तो केवल जबाव दिया. अत: मुसलिम सांप्रदायिकता दोषी नहीं, बल्कि मोर जस्टिफायेबल है.
तब से लेकर आज तक सांप्रदायिकता पर सबसे अधिक लिखने वाले बिपन चंद्र ही हुए. यह अलग बात है कि सांप्रदायिकता की उनकी पूरी परिभाषा ऐसी गोल है कि उसका सिरा किसी के पल्ले नहीं पड़ेगा. मगर वह राजनीतिक रूप से मुफीद और उपयोगी रहा, इसलिए उसे खूब प्रचार मिला.
उस गोल परिभाषा को बिपन चंद्र के ही शब्दों में देखिये- सांप्रदायिकता या सांप्रदायिक विचारधारा के तीन तत्व या चरण होते हैं और उनमें एक तारतम्य होता है. इस क्रम में सबसे पहला स्थान इस विश्वास का है कि एक ही धर्म माननेवालों के सांसारिक हित- यानी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित -भी एक जैसे होते हैं… दूसरा तत्व यह विश्वास है कि भारत जैसे बहुभाषी समाज में एक धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित यानी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक हित अन्य किसी भी धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हितों से भिन्न हैं. सांप्रदायिकता अपने तीसरे चरण में तब प्रवेश करती है, जब यह मान लिया जाता है कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों या समुदायों के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं. अत: बुनियादी रूप से सांप्रदायिकता ही वह विचारधारा है, जिसके आधार पर सांप्रदायिक राजनीति खड़ी होती है.
पुष्टि के लिए बिपन चंद्र का दूसरा कथन लें, सांप्रदायिकता अपने-आप में एक विचारधारा है. एक मायने में वह राजनीति है, जो उस विचारधारा के ईद-गिर्द चक्कर लगाती है. यानी, सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता के गिर्द चक्कर लगाती है! यह बिपन चंद्र की थीसिस की सबसे विचित्र किंतु केंद्रीय अवधारणा है, जिसे उन्होंने सर्वाधिक दुहराया भी. बिपन चंद्र ने यह पक्की टेक बना ली कि सांप्रदायिकता पिछले सौ साल का मामला है. यानी सांप्रदायिकता मोटे तौर पर 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद की परिघटना है. यह काल-सीमा बिपन चंद्र के लिए एक मानसिक बेड़ी बन गयी, यद्यपि सभी कम्युनिस्ट अंधविश्वासियों की तरह उन्होंने भी इसे महसूस या जाहिर नहीं किया.
मानसिक बेड़ी इस अर्थ में कि बिपन चंद्र ने जिसे सांप्रदायिक कथन, सांप्रदायिक कार्य आदि माना है- वही जब दो सौ या आठ सौ साल पहले हू-ब-हू उसी रूप में मिलती है तो वे उसे सांप्रदायिकता मानने से ही इंकार कर देते थे! यदि आज किसी नेता का बयान सांप्रदायिकता है, वही यदि तीन सौ साल पहले आगरा से मुगल बादशाह के मुंह से निकला हो तो वह सांप्रदायिकता नहीं! उसी तरह, जो हिंसा बीसवीं शती में ह्यसांप्रदायिक दंगाह्ण है, ठीक वैसी चीज 18वीं शती में सांप्रदायिक दंगा नहीं हैं.
क्यों? क्योंकि बिपन चंद्र ने सौ सालवाली सीमा निर्धारित कर दी! इसलिए उससे पहले जो भी हुआ, उसे सांप्रदायिकता नहीं माना जा सकता! यह कोरी जिद है, जो बिपन चंद्र की आजीवन विशेषता रही. अन्यथा बिपन चंद्र ने सांप्रदायिकता को पारिभाषित करने, पहचानने के जो भी फार्मूले बनाये, उसी आधार पर सदियों पहले भी भारत के कई मुसलिम शासकों में सांप्रदायिकता को बिलकुल साफ देखा जा सकता है. बल्कि कई दूसरे देशों में भी और कई सदियों पहले से. अत: जैसे भी देखें, बिपन चंद्र द्वारा दी गयी सांप्रदायिकता की परिभाषा- धर्म-आधारित सामाजिक-राजनीतिक पहचान की विचारधारा इसलाम पर और उसकी उम्मतवादी राजनीति पर हू-ब-हू फिट होती है. तब क्या बिपन चंद्र ने इसलाम को सांप्रदायिकता, वर्तमान इसलामी देशों को सांप्रदायिक देश, और भारतीय इतिहास में मुस्लिम शासकों के राज्य को सांप्रदायिक राज्य माना? कभी नहीं.
अत: यही लगता है कि बिपन चंद्र ने अपनी परिभाषा केवल हिंदू सांप्रदायिकों को ध्यान में रखकर या उन्हें घेरने के लिए बनायी थी. पर इस भोलेपन में, मानो उसे कोई मुसलमानों पर लागू नहीं करेगा! जैसे हमारे देश की राजनीति मुसलिम बहुल राज्यों, क्षेत्रों को सेक्यूलरिज्म की निष्ठा से मुक्त रखती है, उसी तरह चंद्र ने अपनी सांप्रदायिकता की परिभाषा और संपूर्ण ऐतिहासिक विश्लेषण से, इसलाम और मुसलिम शासकों को मुक्त रखा है.
उसी प्रतिबद्धता के कारण बिपन चंद्र का यह भी स्थायी अंदाज रहा कि बीजेपी और साइंटिफिक और सेक्यूलर हिस्ट्रीह्ण के सिवा पूरे परिदृश्य में कोई और तत्व, संगठन या नजरिये का अस्तित्व नहीं. यह कट्टर लेनिनवादी शैली बिपन चंद्र की अनन्य विशेषता थी. साइंटिफिक, सेक्यूलर हिस्टरी के अलावा और कोई इतिहास-लेखन नहीं, वह सिर्फ बीजेपी की राजनीतिक कुत्सा है. बात खत्म. जो इससे भिन्न कुछ कहे, वह संघी-सांप्रदायिक. गोल तर्क का गोल फैसला. इसी कारण, बिपन चंद्र अपने साथी कामरेड इतिहासकारों के साथ अयोध्या-विवाद में भी कूदे, और मुसलमानों को कट्टर रुख लेने के लिए प्रेरित किया.
इस प्रकार, बिपन चंद्र ने भले सांप्रदायिकता पर सबसे अधिक लिखा-बोला, किंतु वह सब कुछ जड़-धारणाओं-मार्क्सवादी अंधविश्वास, हिंदू-विरोध और वर्तमान को दिशा देने की राजनीतिक इच्छा- की ही तरह-तरह से पुनरावृत्ति थी. मगर, बार-बार एक ही चीज विद्वान नहीं, राजनीतिक प्रचारक लिखते हैं. प्रचारक होना अपने-आप में बुरा नहीं, इसलिए कहना चाहिए कि बिपन चंद्र के साथ एक निष्ठावान कम्युनिस्ट प्रचारक की पारी खत्म हो गयी है.
जिन्हें यह अतिरंजना लगे, उन्हें 1974 में, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहास अध्ययन केंद्र के चेयरमैन पद से लिखा हुआ बिपन चंद्र का लेख टोटल रेक्टिफिकेशन पढ़ना चाहिए. उसमें पूरे आवेग के साथ बिपन चंद्र ने कम्युनिस्टों को लक्ष्य का ध्यान दिलाते हुए कहा था, मार्क्सवाद अपने मूल चरित्र में ही क्रांतिकारी कार्रवाई का दर्शन है. इसीलिए, भारत के मार्क्सवादियों का विशेष कर्तव्य है वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकना; दूसरे शब्दों में, भारत में क्रांति संपन्न करना.
बिपन चंद्र का वह लेख अपनी रौ में किसी कम्युनिस्ट नेता को भी पीछे छोड़ देता है! उस में कम्युनिस्ट पार्टी के काम को आगे बढ़ाने के लिए लंबी-चौड़ी, उत्साहपूर्ण तजवीजें दी गयी थीं. इसलिए यह कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आज यहां कम्युनिस्टों ने अपना सबसे सफल प्रचारक खो दिया है.
Prabhat Khabar Digital Desk
Prabhat Khabar Digital Desk
यह प्रभात खबर का डिजिटल न्यूज डेस्क है। इसमें प्रभात खबर के डिजिटल टीम के साथियों की रूटीन खबरें प्रकाशित होती हैं।

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

संबंधित ख़बरें

Trending News

जरूर पढ़ें

वायरल खबरें

ऐप पर पढें
होम आप का शहर
News Snap News Reel