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आज भी प्रेरित करता है संतालों का हूल विद्रोह

राजेश सिन्हा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 30 जून 1855 एक महत्वपूर्ण दिन था. यह िदन न सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के नजरिये से, बल्कि मानव सभ्यता के दो अलग-अलग रूप के बीच टकराव को लेकर भी याद िकया जाता है. हालांिक इसकी चर्चा कम हुई है. इसके महत्व को देखते हुए […]

राजेश सिन्हा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 30 जून 1855 एक महत्वपूर्ण दिन था. यह िदन न सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के नजरिये से, बल्कि मानव सभ्यता के दो अलग-अलग रूप के बीच टकराव को लेकर भी याद िकया जाता है. हालांिक इसकी चर्चा कम हुई है.
इसके महत्व को देखते हुए आज इसके महत्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करना जरूरी हो गया है. 30 जून 1855 को तब की ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के बंगाल प्रेसिडेंसी के इलाके में संथालों ने भोगनाडीह में हूल यानी विद्रोह की घोषणा कर दी थी. वर्तमान झारखंड के संताल परगना डिवीजन के साहिबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह में 30 जून 1855 को 400 गांवों के लगभग 50 हज़ार संथालों ने घोषणा कर दी कि वह अब अंग्रेजी यानी ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत को मालगुजारी नहीं देंगे.
इस आंदोलन की भूमिका और सभा का नेतृत्व भोगनाडीहनिवासी और तबके भूमिहीन ग्राम प्रधान चुन्नी मंडी के चार पुत्र- सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव कर रहे थे. यह सबकुछ अचानक नहीं हुआ था. इसके लिए जमीन अंग्रेजी हुकूमत की जमींदारी व्यवस्था ने तैयार कर दी थी. 1757 की प्लासी की लड़ाई और 1764 की बक्सर की लड़ाई में विजय के बाद अंग्रेजी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने- इलाके में बंगाल प्रेसिडेंसी की स्थापना 1765 में की थी, जिसकी राजधानी कलकत्ता थी.
इसके साम्राज्य की सीमा वर्तमान पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा खैबर पख्तूनख्वा से लेकर, पूर्व में तबके बर्मा सिंगापुर और मलेशिया के पेनांग तक थी. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का साम्राज्य उस वक्त कितना बड़ा था.
कई वर्षों तक बंगाल का गवर्नर भारत का वायसराय ही होता था. 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस ने परमानेंट सेटेलमेंट एक्ट के द्वारा बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा वाराणसी के राज्यों में जमींदारी व्यवस्था की शुरुआत की थी. यह मध्यकालीन यूरोपीय बंधुआ मजदूर वाली व्यवस्था, जिसे ‘सर्फडम‘ कहा जाता था, उससे प्रभावित थी. उस व्यवस्था में बंधुआ मजदूरों को जमीन के साथ खरीदा-बेचा जाता था और उनका अपने जीवन और अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं होता था.
इस व्यवस्था के तहत जमींदारों के लिए निश्चित इलाका चिह्नित कर दिया जाता था, जिसे वह कंपनी साम्राज्य के प्रतिनिधि के रूप में नियंत्रित करते थे और लोगों से मालगुजारी वसूल करते थे. संतालों की आर्थिक जीवनशैली अंग्रेजों के आने के पहले छोटे-छोटे जंगलों को काटकर खेती करने पर निर्भर थी.
संताल शिकार भी किया करते थे. अंग्रेजी कंपनी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर, उनके एजेंट जमींदार और भारी सूद पर कर्ज पर पैसा देने वाले साहूकारों के हाथों लगातार हो रहे शोषण से तंग संतालों ने स्थानीय दारोगा से शिकायत करनी शुरू की.
यह सिलसिला करीब पांच सालों तक चलता रहा. इस असंतोष को भोगनाडीह के ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्रों सिद्धू , कान्हू ,चांद और भैरव ने आंदोलन का रूप दिया था. जब टूट गया सब्र का बांध जब सब्र का बांध टूट गया, तो 30 जून 1855 को संतालों ने पारंपरिक हथियारों से लैस होकर आमसभा बुलायी, जिसमें करीब 50 हज़ार सामान्य नर नारी शामिल हुए.
उन्होंने अंग्रेजी कंपनी की हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की घोषणा करते हुए मालगुजारी नहीं देने की घोषणा की. यह संतालों का विद्रोह यानी हूल था, जिसकी शुरुआत हो चुकी थी. इस विद्रोह के दौरान में संथालों ने खुद की सरकार बनाने की भी घोषणा कर दी थी जिसे तबके अंग्रेज इतिहासकार समानांतर सरकार की घोषणा के रूप में देखते हैं. इस हूल क्रांति का मूल उद्देश्य दो था- स्वयं की कर वसूली करने की व्यवस्था लागू करना तथा अपनी परंपराओं के हिसाब से कानून बनाना.
शुरू हुआ संघर्ष का दौर जब अंग्रेजों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने एक दारोगा को सिद्धू,कान्हू , चांद व भैरव को गिरफ्तार करने के लिए भेजा. लेकिन संताल विद्रोहियों ने उसकासर काट दिया. इसके बाद अंग्रेज ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत के कई एजेंटों- जैसे जमींदार और साहूकारों पर भी हमले हुए. यह हूल अब जोर पकड़ता जा रहा था. अंग्रेजों ने सिद्धू कान्हो की गिरफ्तारी के लिए तब दस हज़ार रुपये की इनाम की घोषणा की थी, जो उस समय के लिहाज से बहुत अधिकथी.
इससे भी जब बात नहीं बनी तो ब्रिटिश कंपनी की हुकूमत ने बहुत बड़ी फौज भेजी,जिसमें कई भारतीय जमींदारों और मुर्शिदाबाद के नवाब ने अंग्रजी हुकूमत की मददकी थी. संथालों के साथ साथ ग्वालों और लोहारों के घरों को तोड़ा गया क्योंकि संताल हूल के समर्थन में वे भी शामिल थे. लेकिन वे हूल आंदोलन का समर्थन करते रहे-दमन के बावजूद.
युद्धों और लड़ाइयों का सिलसिला ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने संथालों के विरुद्ध सेवंथ नेटिव इन्फेंट्रीरेजीमेंट , 40 नेटिव इन्फेंट्री के साथ-साथ अन्य सैनिकों को भी उतारा. जुलाई 1855 से जनवरी 1856 के बीच कई युद्ध झड़प हुए. इस दौरान अंग्रेजों ने मार्शल लॉ भी लगा दिया था.
इस पूरे विद्रोह में करीब 60 हज़ार संतालों ने में हिस्सा लिया था, जिसमें से करीब 20 हज़ार मारे गये थे. बहराइच में अंग्रेजों के खिलाफ एक लड़ाई में चांद और भैरव वीरगति को प्राप्त हो गये और बाद में सिद्धो और कान्हो को भी गिरफ्तार कर 26 जुलाई को उन्हें उनके गांव में ही सरेआम पेड़ से लटककर फांसी दे दी गयी. इस प्रकार एक पूरा परिवार, जिसने संतालों को नेतृत्व प्रदान किया था, उसका भौतिक अंत हो गया. लेकिन उनकी वीरता उन्हें आज भी जीवित रखे हुए है.
आज भी प्रासंगिक है हूलसंथाल हूल आज भी प्रासंगिक है , क्योंकि इतने बारे बलिदानों के बावजूद संतालों की तरफ से एक भी किस्सा द्वेष, नफरत और अराजकता भरी हिंसा सुनने को नहीं मिला. संथाल आज भी शालीनता और गौरव से हर वर्ष 30 जून को हूल दिवस कास्मरण कर अपने बलिदानों को नमन करते हैं.
(लेखक आकाशवाणी समाचार के झारखंड के प्रमुख हैं)

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