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Friday, March 29, 2024

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My Mati: संस्कृति, परंपरा व सामूहिकता के लिए सहेजिए झारखंडी मेला

जब झारखंड में यातायात की सुविधाएं काफी कम थीं, तब लोग जंगल-पहाड़ों के बीच दूर–दराज के गांवों में बसते थे. बाजार, मेला, जतरा उनके लिए संपर्क-केंद्र की तरह जरूरी थे. इससे उनकी भौतिक जरूरतें पूरी होती थीं. मनोरंजन का अवसर भी मिलता था. इस तरह पारस्परिक संवाद से उनमें एकता की भावना पैदा होती थी.

सुजीत केशरी

मेला मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है. मेला संस्कृति का दर्पण है तो परंपरा की पहचान है. सामूहिकता का सूत्रधार है तो संस्कार का आधार है. जीवन-शैली व आर्थिक स्थिति का झरोखा है. मेला आधुनिकता की अंधी दौड़ में मानवता का सार लाने का अवसर देता है. सभ्य कहलाने की चाह में हम मेले से दूर होते जा रहे हैं. छोटे-छोटे मेले खत्म होते जा रहे हैं. मेले बचेंगे तो गांव बचेंगे. मेले के माध्यम से ही हम शहरीकरण की आंधी से बच सकते हैं. अपनी संस्कृति, परंपरा, संस्कार व सामूहिकता को बचाने के लिए हमें मेला के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है.

झारखंड में मेले का इतिहास बहुत पुराना है. अभी तक की जानकारी के अनुसार सुतियांबे का ऐतिहासिक इंद मेला सबसे पुराना प्रतीत होता है. इतिहासकार डॉ बी पी केशरी के अनुसार ‘‘इस मेला की शुरुआत होने के पीछे एक घटना है. 83 ईस्वी में सुतियांबे के प्रधान मानकी महाराजा मदरा मुंडा ने नागवंशी फणिमुकुट राय को पड़हा पंचों की राय से अपना उत्तराधिकारी बनाया था. इसी की स्मृति में करम पर्व के दूसरे-तीसरे दिन प्रतिवर्ष इस मेले का आयोजन किया जाता है. ‘टोपर’ (सफेद कपड़े का गोलाकार आकृति) इसका प्रतीक है. झारखंड में मुड़मा मेला (रांची के मांडर प्रखंड अनतर्गत) रांची के जगन्नाथपुर की रथयात्रा पर लगने वाला मेला, रामरेखा मेला (सिमडेगा) और हिजला मेला (दुमका) इसी तरह के प्रमुख ऐतिहासिक मेले हैं.’’

झारखंड में इन मेलों का अपना इतिहास तो है ही, इनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान भी जुड़ी हुई है. सुतियांबे के ‘इंद मेले’ में मुंडा संस्कृति, ‘मुड़मा मेले’ में उरांव संस्कृति, ‘रामरेखा मेला’ में सदान संस्कृति और ‘हिजला मेला’ में संताल संस्कृति की प्रधानता है. जगन्नथपुर (रांची) की ‘रथयात्रा’ में सभी का समन्वय है. ‘टुसु मेला’ में पंचपरगना की संस्कृति विशेष रूप से झलकती है. यह संस्कृति मेला के विशेष अनुष्ठानों और नाच-गान की विशिष्टता से रेखांकित होती है. सोहराई के अवसर पर प्राय: सभी जगहों पर ‘डाइर जतरा’ का आयोजन किया जाता है. इसका संबंध पालतू पशुओं के समादर से है. ‘मंडा मेला’ शिवोपासना का पर्व है. इसमें आग पर चलने की प्रथा बहुत पुरानी है. आदिवासी-सदान सभी इसमें सम्मिलित होते हैं. ‘दसई’ (दशहरा) पूजा और मेला में शक्ति की उपासना की जाती है. इन मेलों से संस्कृति संवर्द्वन के साथ-साथ प्राचीन परंपरा चलती रहती है और आपसी सामूहिकता बनी रहती है.

मेला एक सामूहिक आयोजन है. अत: यह हमारे गांवों की सामूहिकता को बरकरार रखने के का सबसे कारगर माध्यम है. इतिहासकार डॉ बीपी केशरी के अनुसार ‘‘मेला सामूहिक आयोजन है. इसमें सभी जाति-धर्म के लोग सम्मिलित होते हैं. संभवत सामूहिकता को बनाये रखने के उद्देश्य से ही मेले के आयोजन की परंपरा शुरू हुई होगी.’’ मेला-जतरा में समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों का प्रभाव निश्चित रूप से दिखाई पड़ता है. इसी से इसमें ताजगी बनी रहती है. आजकल के मेलों में ‘रामढेलुआ’ (लकड़ी व लोहे के वैसे झूले जिसे हाथ से घुमाया या झुलाया जाता है.) कम दिखाई पड़ते हैं. इनकी जगह इलेक्ट्रोनिक रामढेलुआ (इस झूले को बिजली या जेनरेटर से घुमाया जाता है.) लेता जा रहा है. बदलाव का यह एक ठोस उदाहरण है. तकनीक व भूमंडलीकरण ने भी मेलों को प्रभावित किया है, लेकिन इसका ज्यादा असर शहरों के मेले में दिखता है. गांवों के मेलोें पर अब भी इसका प्रभाव कम दिखाई देता है.

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मेला–जतरा ग्रामीण संस्कृति का अविभाज्य अंग है. पर इसके आगे चुनौतियां भी कई हैं. जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ेगा, ई-मार्केटिंग बढ़ेगी, वैसे-वैसे इसकी जरूरत कम होती जाएगी. शहर के मेलों में आर्थिक पक्ष की प्रधानता होती है तो गांव के मेला-जतरा में सांस्कृतिक पक्ष की. कोई भी मेला धर्म, जाति, भाषा एवं क्षेत्र के बंधनों से पूरी तरह से मुक्त नहीं होता है. उनकी ये विशिष्टताएं किसी न किसी अंश में जरूर मौजूद रहती हैं. झारखंड में यह बंधन प्रखर नहीं है. इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि झारखंड की संस्कृति एक साझी विरासत है. यहां धर्म, जाति, संप्रदाय आदि की संकीर्णता प्राय: नहीं है. आदिवासियों का जीवन सादगी और सरलता का प्रतीक है. वे प्रकृति के ज्यादा अनुकूल हैं.

जब झारखंड में यातायात की सुविधाएं काफी कम थीं, तब लोग जंगल-पहाड़ों के बीच दूर–दराज के गांवों में बसते थे. बाजार, मेला, जतरा उनके लिए संपर्क-केंद्र की तरह जरूरी थे. इससे उनकी भौतिक जरूरतें पूरी होती थीं. मनोरंजन का अवसर भी मिलता था. इस तरह पारस्परिक संवाद से उनमें एकता की भावना पैदा होती थी. आज भी इनकी जरूरत यहां बनी हुई है. प्राचीन काल में मेला जनसंपर्क का सशक्त माध्यम हुआ करता था.

मेला ग्रामीण अर्थतंत्र को को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है. अप्रत्यक्ष रूप से शहर भी इससे प्रभावित होते हैं. बहुत सारे परिवार पूरी तरह से मेले पर निर्भर रहते हैं. मसलन मिठाई बनाने वाले, खिलौने बनाने वाले व औजार बनाने वाले सैकड़ों लोग नियमित रूप से आजीविका का जुगाड़ करते हैं. यातायात की सुविधा से जनसंपर्क अब उतनी बड़ी समस्या नहीं रह गयी है. जनसंचार के विविध माध्यमों से मेलों का महत्व कम होता जा रहा है. मेला-जतरा के आयोजन में दो ही पक्ष प्रधान हैं. एक तो आयोजन करने वाले, दूसरे आयोजन में शामिल होने वाले अन्य लोग. दोनों के समन्वित सहयोग से ही मेला-जतरा का आयोजन सफल होता है. किसी की भूमिका को कमतर नहीं किया जा सकता. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.

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