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संताल परगना में हैं ये प्राचीन दुर्गा मंदिर, जहां आज भी राज परिवार करते हैं पूजा, जानें इतिहास

प्रभात खबर ने नवरात्र के पहले दिन संताल परगना के विभिन्न इस्टेट के प्राचीन मंदिरों के इतिहास को संजोकर विशेष आयोजन किया है. प्रस्तुत है विभिन्न इस्टेट के मंदिरों पर केंद्रित रिपोर्ट ...

आज से शारदीय नवरात्र शुरू हो रहा है. महालया के साथ ही लोग मां दुर्गे की आराधना में लीन हो गये हैं. बड़े-बड़े आकर्षक पंडालों में मां की पूजा की तैयारी अंतिम चरण में है. वहीं संताल परगना के विभिन्न इस्टेट के प्राचीन मंदिरों में मां की आराधना में लोग जुट गये हैं. संताल परगना में कई राज परिवारों के द्वारा आज भी पूजा-अर्चना की जाती है. जैसे देवघर जिले के रोहिणी इस्टेट, बिशनपुर इस्टेट सारवां, बभनगामा इस्टेट, कुकराहा घटवार इस्टेट और तालझारी का नागरा इस्टेट के अलावा दुमका, गोड्डा, साहिबगंज, पाकुड़ और जामताड़ा जिले में भी विभिन्न इस्टेट की ओर से सैंकड़ों सालों से पूजा की जा रही है. राज परिवारों की इस परंपरा को उनकी आज की पीढ़ी आगे बढ़ा रही है. इन इस्टेट के मंदिरों की अपनी अलग-अलग मान्यताएं हैं. आइए उनके बारे में जानते हैं –

डिंडाकोली दुर्गा मंदिर: 304 वर्षों से हो रही है मां की आराधना

करौं, संजय मिश्रा : प्रखंड क्षेत्र के प्रसिद्ध डिंडाकोली दुर्गा मंदिर में पिछले 304 वर्षों से मां की आराधना की जा रही है. यहां के अधिकांश मंदिरों में पूजा तीन दिनों तक होती है. लेकिन डिंडाकोली दुर्गा मंदिर में दस दिनों तक अनुष्ठान होता है. पूरे नवरात्र में अनवरत रूप से चिराग जलाने की परंपरा है. बुजुर्गों के अनुसार इस मंदिर में पहले नवपत्रिका की पूजा होती थी. मंदिर की महत्ता के बारे में पुरानी पीढ़ी के लोग बताते है कि संताली विद्रोह से जुड़ी एक घटना का प्रभाव डिंडाकोली गांव पर भी पड़ा. विद्रोहियों ने इस इलाके में हमला करने की योजना बनायी, जिसकी सूचना गांव के लोगों को हो गयी. हमले से बचने के लोग माता के दरबार में पहुंचे और प्राण रक्षा की गुहार लगायी. लोगों ने संकल्प लिया कि उन लोगों की रक्षा होगी तो भव्य मंदिर और प्रतिमा स्थापित की जायेगी. वहीं गांव पर हमला नहीं हुआ और विद्रोही गांव की सीमा से लौट गये. तब से मंदिर में प्रतिमा स्थापित कर पूजा की शुरूआत हुई. वहीं एक अन्य घटना का जिक्र कर लोग बताते है कि वर्षों पहले गांव के लोग नदी पार कर तालझारी में दुर्गा पूजा करने जाते थे. एक बार भरपूर बारिश होने से सारा क्षेत्र जलमग्न हो गया, जिससे मंदिर में स्थापित मां की प्रतिमा, नवपत्रिका, घट पानी के बहाव में बहने लगे. संयोगवश डिंडाकोली गांव के लोगों को मां की प्रतिमा मिली. तब से उस प्रतिमा को स्थापित कर पूजा अर्चना शुरू की गयी. पुजारी रामदेव सिंह ने बताया कि यहां डिंडाकोली के अलावे सुनसुन डबरा, तारापुर, धमना, चिकिनिया, सिंहपुर, छींट डिंडाकोली, प्रतापपुर, सालतर, भेंडो, सियाटांड़, लकरछरा, भलगढा़ आदि गांव के लोगों का मंडा है.

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1600 ई में बिशनपुर इस्टेट के मर्दन सिंह ने स्थापित की थी वेदी

सारवां, लीलानंद झा : सारवां के प्राचीन शक्ति स्थल के रूप में प्रख्यात बिशनपुर गढ़ दुर्गा मंदिर की महिमा निराली है मंदिर की स्थापना के संबंध में बिशनपुर गढ़ के जमींदार मर्दन सिंह की सातवीं पीढ़ी के वंशज राजेश कुमार सिंह, खनेश कुमार सिंह व राजेंद्र सिंह बताते है कि1600 ई के आसपास दुर्गा पूजा शुरू हुई. इस्टेट के तत्कालीन जमींदार राजा मर्दन सिंह मां दुर्गा के अनन्य भक्त थे और तीर्थ पुरोहितों की देखरेख में बाबा मंदिर भीतरखंड से मां को कदम बलि देकर कर लाया था. इस संबंध में बताया जाता है कि रात्रि विश्राम के समय बिशनपुर कदय नदी तट पर जब राजा रुके तो मां ने रात्रि में स्वप्न दिया और कहा कि कदम को आगे नहीं ले जाओ और विधि-विधान से वेदी स्थापित करो, जिसके बाद वेदी स्थापित कर शारदीय नवरात्र शुरू हुआ. नौ दिनों तक राजा वेदी के नीचे गुफा बना कर मां की आराधना करते थे और विजयादशमी के दिन बाहर आकर पूर्णाहुति करते थे. आज भी परंपरा के अनुसार तुरही के साथ सात किमी दूर सारवां के कदम तालाब में प्रतिमा को कंधे पर लाकर विसर्जन होता है. प्राचीन मंदिर के जीर्ण शीर्ण होने के बाद सन 2000 में ग्रामीणों के सहयोग से भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया. आज भी यहां मां को बलि प्रदान करने की परंपरा है. बिशनपुर गढ़ के राजेश कुमार सिंह ने कहा यह प्राचीन शक्ति स्थल है, जिसे हमारे वंशज राजा मर्दन सिंह ने भीतरखंड से लाकर आरंभ किया था. इस गहवर से क्षेत्र के लोगों की आस्था जुड़ी हुई है. मंदिर के पंडित व पुजारी आचार्य जयनाथ पांडे ने बताया कि 1600 ईसवी के आसपास राजा मर्दन सिंह ने इस शक्ति स्थल की स्थापना की थी.

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तालझारी दुर्गा मंदिर : कामाख्या मंदिर की तर्ज पर होती है पूजा

सारठ, मिथिलेश सिन्हा : प्रखंड क्षेत्र में नगरा सहित 22 गांवों की कुलदेवी के रूप में स्थापित माता दुर्गा मंदिर की ख्याति अपरमपार है. सारठ मेन चौक से 11 किमी दूर तालझारी गांव में मंदिर स्थापित है. नगरा इस्टेट परिवार स्टेट परिवार की देखरेख में 304 वर्ष पहले बने प्राचीन दुर्गा मंदिर में पूजा की तांत्रिक पद्धति की परंपरा का खासा महत्व है. वर्ष 2017 में नगरा स्टेट परिवार के 22 गांवों के लोगों ने एक करोड़ की लागत से प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्वार कर इस भव्य और आकर्षक बनाया. नगरा इस्टेट परिवार नगरा के संजीव शंकर सिंह उर्फ जट्टू सिंह मंदिर की प्रसिद्धि को लेकर बताते है कि 304 वर्षों पूर्व उनके पूर्वज हरि कर व खोशाल कर ने नारंगी से माता दुर्गा को तालझारी गांव में लाकर स्थापित किया था. यहां माता भगवती की नवपत्रिका की पूजा तांत्रिक विधि- विधान से होती है और शारदीय नवरात्र में यहां हजारों बकरे और भैसों की भी बलि होती है. इस्टेट परिवार की परंपरा का पालन करते हुए 25 वर्षो से यहां शारदीय नवरात्र के अलावा चेती, माघी व आषाढ़ नवरात्र की पूजा भी स्टेट परिवार के संजीव शंकर सिंह उर्फ जट्टू सिंह व आलोक शंकर सिंह की देखरेख में होती है. 365 दिनों मंदिर में होने वाली पूजा का सारा खर्च स्टेट परिवार उठाता है. मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद लगे पंचशूल व स्वर्ण कलश भक्तों को आकर्षित करती है. शारदीय नवरात्र में हजारों लोग अष्टमी, नवमी व दशमी में यहां पहुंचते है. पुरोहित बताते है कि पंचशूल पूर्ण से तांत्रिक पद्धति का परिचायक है, जो भक्त यहां सच्चे मन से माता की आराधना करते है. उनकी कामना पूरी होती है. मंदिर के सेवक पुजारी प्रकाश तिवारी और कृष्ण प्रसाद तिवारी यहां के पुरोहित है.

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कुकराहा इस्टेट दुर्गा मंदिर : पश्चिम दरवाजा की है खास प्रसिद्धि

सारठ स्थित कुकराहा के दुर्गा देवी के मंदिर की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली है. विंध्याचल की तर्ज पर पूजा परंपरा और पश्चिम दरवाजा को लेकर भी इस मंदिर की ख्याति है. कुकराहा इस्टेट के वंंशज बताते है कि मंदिर का निर्माण वंशराज सिंह ने 1865 में कराया था. दुर्गा माता की ख्याति को लेकर स्टेट परिवार के विक्रम कुमार सिंह बताते है कि वर्षो पूर्व उनके पूर्वज लखन सिंह अपनी खेत ( जो आज नारंगी मोड़ के नाम से जाना जाता है ) में काम रहे थे. इसी बीच नदी से बचाओ में दुर्गा देवी हूं कि आवाज सुनाई देने लगी. उन्हें इधर उधर देखा तो नदी में कुछ बहता हुआ जा रहा था और उसी से आवाज आ रही थी. लखन सिंह ने गमछे में उसे लपेट कर कुकराहा गांव ले आये और ग्रामीणों से चर्चा कर गाय घर में उसे स्थापित कर तत्काल पूजा शुरू करायी. कुछ दिनों बाद मंदिर का भी निर्माण कराया गया. वर्तमान में इस्टेट परिवार के विक्रम कुमार सिंह संचालक की भूमिका निभा रहे है. वर्ष 2016 में यहा भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया. मंदिर के ऊपर स्वर्ण कलश स्थापित किया गया है. कुकराहा सहित 23 गांवों की कुलदेवी के रूप में विख्यात कुकराहा मंदिर में दो ऐसे तलवार ऐसे है जिसकी ख्याति अलग है. तलवारों के नाम बदरी और नागर है. दुर्गा पूजा के दौरान यहां लगभग तीन हजार बकरे और 50 भैंसे की बलि उन्हीं तलवारों से होती है. मंदिर के पुजारी सनातन तिवारी ने बताया कि वे मा भगवती की सेवा चार वर्षो से कर रहे है ,इससे पूर्व उनके पिता भूतेश चंद तिवारी व उससे पहले उनके दादा सचींद्र नाथ तिवारी किया करते थे.

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शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है मां योगिनी मंदिर

गोड्डा, निरभ किशोर : जिले के पथरगामा प्रखंड के बारकोप गांव के पास ऐतिहासिक माता योगिनी का मंदिर लोगों के लिए आस्था का केंद्र है. जानकारों की मानें तो मंदिर करीब 1100 सौ साल पुराना है. खेतोरी राजाओं से पहले नट राजाओं की आराधना का केंद्र योगिनी मंदिर रहा है. मंदिर दो पहाडों के बीच स्थित है इसलिए इसकी प्राकृतिक छंटा मन को बरबस ही आकर्षित करती है. मंदिर के बारे में वर्तमान मुख्य पुजारी सह खेतोरी राज परिवार के सदस्य आशुतोष सिंह बताते हैं कि मां योगिनी की पूजा अर्चना खेतोरी राज परिवार के यहां से पहले से ही चली आ रही है. बारकोप स्टेट के राजाओं ने मंदिर के बरामदा का निर्माण कराया था जबकि मुख्य मंदिर पहले से ही मौजूद था. मंदिर में मां की पूजा तांत्रिक पद्धति से होती है. तंत्र साधना का केंद्र मां योगिनी की पूजा व दर्शन के लिए झारखंड के साथ बिहार, बंगाल व असम आदि से भी बड़ी संख्या में लोग आते हैं. श्री सिंह ने कहा कि राजपरिवार की ओर से इस मंदिर के सेवायत की व्यवस्था हमेशा से रही है. अंतिम सेवायत समलदेवन थे. 1975 में सेमलदेवन ने मंदिर में पूजा का कार्यभार मुझे साैंप कर कटिहार में बस गये.

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रोहिणी दुर्गा मंदिर : 200 साल पहले शुरू हुई थी पूजा

जसीडीह, निषिद्ध मालवीय : जसीडीह के रोहिणी स्थित दुर्गा मंदिर में इस्टेट परिवार की ओर से करीब 200 सालों से माता की पूजा होती आ रही है. यह शहर की सबसे पुरानी दुर्गा पूजा मानी जाती हैं. यहां मां की पूजा तांत्रिक विधि से की जाती है. कलश स्थापना के दिन से ही यहां मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है. संजीव देव ने बताया कि, दुर्गा मंदिर में करीब 200 साल से पूजा की जा रही है. यहां की पूजा रोहिणी इस्टेट के ठाकुर घराने के पूर्वजों द्वारा शुरु की गयी थी. वर्तमान में परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज वह और उनके भाई चिरंजीव देव माता की आराधना कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि, यहां पहली पूजा से ही बलि दी जाती है, जो नवमी तक चलती है. अष्टमी और नवमी को क्षेत्र से करीब 600 से अधिक भक्त बलि के लिए पहुंचते हैं. माता के दरबार में आने वाले भक्तों की मनोकामना जरूर पूरी होती है. पूजा में आचार्य उपेंद्रनाथ पांडेय, पुरोहित भास्कर पांडेय द्वारा किया जाता है. पूजा में किसी से चंदा नहीं लिया जाता है. पूजा का पूरा खर्च रोहिणी हाट से ली गयी राशि से की जाती है. पूजा के आयोजन में करीब ढाई लाख रुपये का खर्च होता है. सप्तमी, अष्टमी, नवमी और विजयादशमी को भव्य मेला लगता हैं. माता के दरबार में आसपास के दर्जनों गांवों के लोग पूजा-अर्चना करने पहुंचते हैं. पूजा को सफल बनाने में सभी लोगों का सहयोग रहता है.

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घड़ीदार मंडप में 1456 से चल रही पूजा की परंपरा

देवघर, संजीव मिश्रा : बाबा मंदिर के पूरब द्वार के पास शारदीय नवरात्र में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करने की परंपरा वर्ष 1456 से चली आ रही है. इस बार पूजा का 566 वां साल है. यहां पूजा की शुरुआत पितांबर नाथ घड़ीदार ने की थी. वर्तमान में इनके वंशज चंडी चरण घड़ीदार, तपन घड़ीदार व अमित घड़ीदार पूजा की परंपरा का निर्वहण कर रहे हैं. इस मंडप में माता के दर्शन के लिए सबसे अधिक भीड़ होती है. यहां भीड़ को कंट्रोल करने के लिए मुहल्ले के लोगों के अलावा पुलिस बल को भी प्रतिनियुक्त किया जाता है. इस मंडप में पूजा की परंपरा भी अन्य जगहों से पूरी तरह अलग है. अन्य पूजा मंडप में बेलभरनी की पूजा के लिए बेल वृक्ष के पास जाने की परंपरा है, जबकि यहां पूर्व से ही एक परिवार की ओर से जोड़ा बेल लाकर देने की परंपरा है और बेलभरनी की पूजा मंडप में ही षष्ठी तिथि को की जाती है. वहीं माता की प्रतिमा में लगने वाली सामग्री ठाकुर परिवार की ओर से दी जाती है. सप्तमी व अष्टमी तिथि पर पूजा के लिए इस मंडप में लंबी कतार लगती है. घड़ीदार परिवार के तपन घड़ीदार बताते हैं कि इस मंडप में सप्तमी की सुबह से ही काफी भीड़ होती है. हमारी 14वीं पीढ़ी है, जो कि पूजा का आयोजन कर रही है. हमारे परिवार में बस दो लोग ही हैं जो कि एक साल छोड़कर एक साल पूजा की परंपरा का निर्वहन करते आ रहे हैं.

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