Congress Party गुजरात की भीषण गर्मी में, दो कद्दावर कांग्रेसियों- महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल, के गृहराज्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक बार फिर एकत्र हुई. गांधी टोपी और सफेद कुर्ता-पाजामे में करीब 150 वरिष्ठ और मध्यम श्रेणी के पार्टी कार्यकर्ता अहमदाबाद में आयोजित कॉन्क्लेव में बैठे, जो प्रतीकात्मक होने के साथ आत्ममंथन और रणनीतिक पहल का भी अवसर था. कांग्रेस के अस्तित्व से जुड़ा यह शहर फिर पार्टी द्वारा अपनी जड़ें तलाशने की कोशिश का गवाह बना. यह अवसर सत्तारूढ़ भाजपा का विकल्प बनने के लिए रणनीति पेश करने का नहीं, बल्कि पार्टी की लुप्त होती प्रासंगिकता को वापस लाने और गांधी परिवार की कमजोर होती विरासत को मजबूती देने का था.
इस आयोजन की टाइमिंग भी महत्वपूर्ण थी : यह पटेल की 150 वीं जयंती और महात्मा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का सौवां साल है. हालांकि ‘न्यायपथ : संकल्प, समर्पण और संघर्ष’ जैसे नारों के बावजूद कांग्रेस के अस्तित्व से जुड़े प्रश्न अनुत्तरित ही रहे. जैसे 2025 में कांग्रेस का मुद्दा क्या है? पार्टी का नेतृत्व कौन कर रहा है? और क्या गांधी परिवार के रहते हुए भी या इनके बगैर पार्टी का अस्तित्व बना रहेगा? पिछले करीब चार दशकों से कांग्रेस विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प बनने के बजाय गांधी परिवार के वंशवादी आभामंडल को बनाये रखने का मंच भर रह गयी है. कभी इंदिरा गांधी कांग्रेस का पर्याय थीं. आज पार्टी बिखर गयी है, इसकी वैचारिकता भ्रांत और संगठन खोखला है. अहमदाबाद की बैठक में राहुल गांधी प्रभावी रहे. वर्ष 2014 से ही वह कांग्रेस के राजनीतिक संघर्ष का चेहरा बने हुए हैं. पर उनके दिशानिर्देश में भी कांग्रेस की छवि एक अनिच्छुक, अनियमित और अस्पष्ट राजनीतिक पार्टी की है. सम्मेलन में सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और राज्य स्तरीय नेताओं की मौजूदगी रही, पर उनकी सामूहिक गंभीरता भी पार्टी की हताशा को छिपाने में विफल रही. जोश दिखाने के बजाय कांग्रेस नेता घिसी-पिटी बातें करते और लंबे प्रस्ताव पारित करते दिखायी पड़े. गुजरात के अहमदाबाद को कांग्रेस ने 64 साल बाद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक आयोजन के लिए चुना. मोदी और सरदार पटेल के गृहराज्य में अपनी खोयी हुई राजनीतिक जमीन हासिल करने की कांग्रेस की प्रतीकात्मकता स्पष्ट थी.
जिला इकाइयों को ताकतवर बनाने, धार्मिक ध्रुवीकरण पर अंकुश लगाने और एकता कायम रखने की पटेल की विरासत पर हुई बहस ने बताया कि पार्टी किस तरह विखंडित है. आंतरिक रूप से पार्टी में भारी गुटबंदी है, जमीनी स्तर पर नेतृत्व का अभाव है और नेतृत्व केंद्रीकृत है. सम्मेलन में जिला प्रमुखों के बीच शक्ति के विकेंद्रीकरण की बात कही गयी, पर संदेह है कि इस पर अमल होगा. नियुक्तियां अब भी राहुल गांधी के नजदीकियों द्वारा किये जाने की उम्मीद है. काबिलियत और जनाधार पर अब भी बाहुबल, पैसे और परिवार के प्रति निष्ठा को तरजीह मिलती है. पार्टी के लोकतांत्रिक संस्कार दिखावे के लिए ही ज्यादा हैं. कांग्रेस की परेशानी सिर्फ ढांचागत नहीं है, मनोवैज्ञानिक भी है. संसद में आज तीन गांधी हैं-सोनिया गांधी राज्यसभा में तथा राहुल और प्रियंका लोकसभा में. इनका चुनावी अस्तित्व अपने व्यक्तिगत जनाधार के बजाय केरल जैसे राज्यों में पार्टी की मशीनरी तथा सपा जैसे सहयोगियों पर ज्यादा निर्भर है. कभी मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने वाला गांधी परिवार आज राजनीतिक जिम्मेदारी ज्यादा लगता है.
राहुल गांधी का नेतृत्व विरोधाभासी है. वह भाजपा के बहुसंख्यकवाद, संघ की सांस्कृतिक योजना तथा मोदी के प्रधानमंत्री काल में बढ़ती आर्थिक असमानता पर दृढ़ता से अपनी बात रखते हैं. उनकी भारत जोड़ो तथा भारत जोड़ो न्याय यात्राओं ने कांग्रेस को नयी ऊर्जा दी है. पर व्यावहारिक नेतृत्व के मामले में- यानी गठबंधन बनाने, गुटबंदी और विवाद खत्म करने व संगठन का जज्बा बनाये रखने की बात आती है, उनका रिकॉर्ड विचित्र है. संपूर्ण गैरभाजपाई विपक्ष का नेतृत्व करने की उनकी अनिच्छा से भी मोदी और उनके विचारों के विकल्प की संभावना को नुकसान पहुंचा है. ‘इंडिया’ गठबंधन में भी कांग्रेस का नेतृत्व मजबूत नहीं है. द्रमुक और राजद जैसे दल राहुल को पसंद करते हैं, पर ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अखिलेश जैसे क्षत्रप कांग्रेस को बहुत तरजीह नहीं देते. बीते साल राहुल गांधी को मिला नेता विपक्ष का दर्जा एक बड़ा अवसर था, पर सीट वितरण विवाद और क्षेत्रीय वर्चस्व जैसे मुद्दों से कांग्रेस और उनके सहयोगियों के बीच का अविश्वास ही सामने आया.
वैचारिक रूप से राहुल गांधी सामाजिक न्याय, बेरोजगारी और कल्याणकारी लोकप्रियतावाद पर जोर दे रहे हैं. जाति जनगणना पर उनका जोर देना और ओबीसी, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को आकर्षित करने के लिए आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ऊपर ले जाने का वादा करना ऐसे विषय हैं, जिनकी कांग्रेस हमेशा उपेक्षा करती आयी है. राहुल की इस रणनीति के मिश्रित नतीजे आये हैं. कर्नाटक और तेलंगाना में पार्टी को जीत मिली, पर दूसरे राज्यों में वह सफल नहीं हो पायी. वर्ष 2014 से 2024 के बीच इसे सिर्फ नौ राज्यों में जीत मिली, जबकि इस दौरान इसने 25 राज्यों में सत्ता गंवा दी. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली 52 सीटों की तुलना में 2024 में कांग्रेस को 99 सीटें मिलीं, जो बताती है कि पार्टी के लिए सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. कुल 21.2 प्रतिशत राष्ट्रीय वोट शेयर के साथ यह अब भी अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी बनी हुई है.
ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों के विपरीत, हिंदी प्रदेशों, पूर्वोत्तर, दक्षिण भारत और मध्य भारत के हिस्सों में इसकी मौजूदगी है. पर अखिल भारतीय उपस्थिति से चुनाव नहीं जीते जाते. इसके लिए करिश्मा, स्पष्टता और निरंतरता जरूरी है. कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए नया नेतृत्व मॉडल चाहिए,जहां क्षेत्रीय नेताओं के फलने-फूलने की जगह हो और जहां यह स्वीकारा जाता हो कि गांधी परिवार भारत की विपक्षी राजनीति की धुरी नहीं हैं. राहुल गांधी या तो फुल टाइम नेता की भूमिका निभायें या नयी प्रतिभा को जिम्मेदारी सौंपें. कांग्रेस को एक और इंदिरा गांधी की जरूरत है. वर्ष 2029 के लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए अवसर और चेतावनी, दोनों होंगे. उसमें विफल होने पर उसे स्थायी तौर पर भारतीय राजनीति में सहायक की भूमिका में सिमट जाना होगा. अगर कांग्रेस अपने अस्तित्व के प्रति गंभीर है, तो उसे प्रतीकात्मक बदलाव से ज्यादा कुछ करना होगा. उसे नेतृत्व का विकेंद्रीकरण करना होगा, साहसी वैचारिक एजेंडा तैयार करना होगा और विश्वसनीय राष्ट्रीय गठबंधन बनाना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)