Gita Updesh: प्रेम में निश्छल रहकर भी प्रेम न मिले तो क्या करें? यह सवाल हर उस व्यक्ति के मन में उठता है, जिसने उम्र पर सच्चे दिल से प्रेम किया हो, लेकिन उसे बदले में सिर्फ मौन, दूरी या अस्वीकार मिला हो. अक्सर हमारे पास कई लोग देखने को मिल जाते हैं, जिन्होंने अपने प्रेम को उसी तरह वैसे ही देखा, जैसे आत्मा अपने परमात्मा को नि:स्वार्थ, निर्मल और नि:शब्द देखती है. फिर भी उस प्रेम का उत्तर सिर्फ मौन मिला. न उसे समझा गया और न ही स्वीकारा गया. यह स्थिति उसी तरह है, जैसे किसी फूल ने पूरी तरह खिलकर खुद को अर्पित कर दिया हो, लेकिन हवा ने उसे छूकर अनदेखा कर दिया हो. अगर आप भी ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं, तो यही पल है जहां श्रीमद्भगवद्गीता एक दोस्त की तरह हमारे पास बैठती है और जीवन का सार समझाने का जरिया बनता है, क्योंकि गीता का मार्ग है अहंकार से परे प्रेम करना, प्रेम में अपेक्षा न रखना और अपने भाव को ईश्वरमय बना देना.
निष्काम प्रेम ही सबसे ऊंचा प्रेम
श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया है कि निष्काम प्रेम ही सबसे ऊंचा प्रेम होता है. निश्छल प्रेम करना अपने आप में ही एक पवित्र कर्म है. अगर तुमने उसे बिना स्वार्थ के किया, तो वह पहले से ही पूर्ण है, भले सामने वाला उसे समझे या नहीं. इसलिए आसक्तिहीन होकर सदा अपना कर्तव्य करते रहो.
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प्रेम को ईश्वर में अर्पित कर दो
गीता उपदेश के अनुसार, अगर प्रेम में तुम्हारा भाव निर्मल था, तो उसे एक इंसान से हटाकर भगवान को अर्पित कर दो. वह प्रेम तब तुम्हें दुख नहीं देगा, बल्कि भक्ति में बदल जाएगा. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम जो कुछ भी करते हो, जो खाते हो, जो देते हो, वह सब मुझे अर्पित कर दो. इससे मनुष्य को कष्ट से छुटकारा मिल जाता है.
प्रेम में परिष्कृत होता है इंसान
गीता उपदेश में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इंसान जो जो शुभ कर्म करता है, वह कभी नष्ट नहीं होता है. ऐसे में कहा जाता है कि निश्छल प्रेम कभी व्यर्थ नहीं जाता है. चाहे प्रेम में फल न मिला हो, क्योंकि ऐसा प्रेम आत्मिक विकास का हिस्सा बन जाता है. जो इंसान को कभी प्रेम मिला ही नहीं वह इंसान खोता नहीं बल्कि मानसिक रूप से परिष्कृत होता है.
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