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भारत को सांस्कृतिक व भावनात्मक एकता के सूत्र में पिरोता है संस्कृत

मुजफ्फरपुर : संस्कृत की मूल अवधारणा में ही त्याग की प्रवृत्ति है. मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह स्वयं पर आत्मानुशासन लागू करें. जीवन में विधि और निषेध दोनों ही महत्वपूर्ण हैं. ये बातें एमपी सिन्हा साइंस कॉलेज में संपूर्णानंद संस्कृत विवि वाराणसी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो राजीव रंजन सिंह ने कहीं. वे संस्कृत […]

मुजफ्फरपुर : संस्कृत की मूल अवधारणा में ही त्याग की प्रवृत्ति है. मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह स्वयं पर आत्मानुशासन लागू करें. जीवन में विधि और निषेध दोनों ही महत्वपूर्ण हैं. ये बातें एमपी सिन्हा साइंस कॉलेज में संपूर्णानंद संस्कृत विवि वाराणसी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो राजीव रंजन सिंह ने कहीं.

वे संस्कृत विभाग की ओर से आयोजित संगोष्ठी ‘संस्कृत साहित्येषु व्यक्ति निर्माणेन राष्ट्र निर्माणम्’ विषय पर बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि हम दूसरों के अनुभवों के आलोक
में अपनी स्वीकृति और असहमति दोनों तय करते हैं. पूरी समझबूझ के साथ हम ज्ञान के लिए जो कर्म करते हैं, वही धर्म है.
विषय प्रवेश कराते हुए कॉलेज के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ अमरेंद्र ठाकुर ने कहा कि संस्कृत भारत की सांस्कृतिक भाषा रही है. शताब्दियों से समग्र भारत को सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता के सूत्र में पिरोने का काम संस्कृत ने किया है. विवि के पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो इंद्रनाथ झा ने कहा कि संस्कृत भाषा और साहित्य संकीर्णतावाद से पूर्णत मुक्त है. संस्कृत पूरे विश्व के समृद्धि की बात करता है. अध्यक्षता करते
हुए प्राचार्य प्रो शफीक आलम ने
कहा कि संस्कृत भाषा भारत की प्राचीनतम भाषा है.
संगोष्ठी का संचालन डाॅ शेखर शंकर मिश्र व धन्यवाद ज्ञापन डॉ जेपीएन देव ने किया. इस मौके पर प्रो श्रीप्रकाश पांडेय, प्रो अनिल कुमार सिंह, डाॅ अश्विनी कुमार अशरफ, प्रो ज्योति नारायण सिंह, डॉ रामनरेश सिंह, डॉ अमरनाथ शर्मा, डॉ राज कुमार सिंह, विश्वनाथ पांडेय, डॉ आलोक रंजन त्रिपाठी, डॉ अब्दुल बरकात आदि मौजूद थे.

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