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जानिए, राजपक्षे की हार के पांच बड़े कारण

कोलंबो : श्रीलंका में कल हुए राष्‍ट्रपति चुनाव में लगभग एक दशक से राष्‍ट्रपति रहे महेंद्रा राजपक्षे को करारी हार का सामना करना पड़ा. राजपक्षे को उनके ही सहयोगी रहे मैथ्रिपाला सिरिसेना से कड़ी टक्‍कर मिली, जो बाद में उनके हार का कारण भी बना. एक संपन्‍न परिवार में जन्‍में राजपक्षे को विरासत में राजनीतिक […]

कोलंबो : श्रीलंका में कल हुए राष्‍ट्रपति चुनाव में लगभग एक दशक से राष्‍ट्रपति रहे महेंद्रा राजपक्षे को करारी हार का सामना करना पड़ा. राजपक्षे को उनके ही सहयोगी रहे मैथ्रिपाला सिरिसेना से कड़ी टक्‍कर मिली, जो बाद में उनके हार का कारण भी बना. एक संपन्‍न परिवार में जन्‍में राजपक्षे को विरासत में राजनीतिक पहचान मिली थी. लॉ से ग्रेजुएट राजपक्षे अपने पिता के वारिस के रूप में सबसे पहले श्रीलंका की संसद में पहुंचे. बाद में श्रीलंका के विकास को मुद्दा बनाकर उन्‍होंने राष्‍ट्रपति और सेना के सर्वोच्‍च सेनानायक के पद पर स्‍थापित होने का गौरव हासिल किया. एक दशक तक राष्‍ट्रपति रहने के बाद आज आये ताजा चुनावी परिणामों में राजपक्षे की हार के पांच प्रमुख जानकारों के अनुसार कुछ ये बताये जा रहे हैं.

परिवारवाद का आरोप

महेंद्रा राजपक्षे पर परिवारवाद का आरोप लगता आया है. राजपक्षे के शासन को उनके भाइयों के नियंत्रण वाली सत्ता कहा जाता रहा है. दूशभर में इसका विरोध होता आया है. विपक्ष ने इस मुद्दे को कई बार उठाया और आम लोगों तक भी इसे संदेश के रूप में पहुंचाने का काम किया था. यह सही है कि उनके तीनों भाई सत्ता में अहम स्थान रखते थे. एक रक्षा प्रमुख बनाये गये थे, दूसरे श्रीलंका की आर्थिक विकास की जिम्मेदारी देखते थे और तीसरे संसद के स्पीकर थे. इसके विरोध में वहां के लगभग डेढ करोड़ लोगों में अधिकांश ने वोटिंग में भी राजपक्षे का विरोध किया और उन्‍हें हार का सामना करना पड़ा.

अपनी ही पार्टी में बगावत के सुर

राजपक्षे को अपनी ही पार्टी के कदावर नेताओं का साथ इस चुनाव में नहीं मिला. एक समय एनके सहयोगी रहे मैथ्रीपाला सिरिसेना ने ही उनको इस चुनाव में हरा दिया. कभी राजपक्षे की सत्‍ता में स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री के पद पर काम कर चुके हैं. राजपक्षे की मुश्किले तब बढ़ गयी, जब पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सिरीसेना (63) ने चुनाव के ऐलान के एक दिन बाद ही उनका साथ छोड़ दिया और मुकाबले में उतर गए. इस घटनाक्रम के बाद चुनाव से अपने लिए कुछ ज्यादा की उम्मीद नहीं कर रहे विपक्ष में भी मानो जान आ गयी. विपक्ष एकजुट होकर सिरिसेना को जीताने में जुट गया. ऐसे में परिवारवाद के आरोपों से जुझ रहे राजपक्षे अलग-थलग पड़ गये. हालांकि चुनाव के कुछ दिन पूर्व तक राजपक्षे ने अपने जीतने की उम्‍मीदे जतायी थीं.

अल्‍पसंख्‍यकों का विरोध

श्रीलंका में तमिल और मुस्‍लमान अल्‍पसंख्‍यक का दर्जा रखते हैं. बौद्ध धर्म से संबंध रखने वाले राजपक्षे को शुरुआती दिनों में अल्‍पसंख्‍यकों का समर्थन जरुर प्राप्‍त था; लेकिन बाद में राजपक्षे की नीतियों की वजह से उनकी चारोओर आलोचना होने लगी. श्रीलंका का ये ‘किंग’ उस समय मुश्किल में लगने लगा जब मतदाताओं का हुजूम मतदान के लिए बुथों पर जमा होने लगे. सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं ने भी पार्टी छोड़कर सिरिसेना का रुख कर लिया. श्रीलंका की राजनीति में दल-बदल आम बात है लेकिन हाल के सालों में जितने भी लोगों ने पार्टी छोड़ी है, वे सरकार की ओर ही गए हैं. लेकिन, इस बार धारा उल्टी बहती हुई दिखी और दग़ाबाज़ी के किस्से भी खूब कहे सुने गये. बहुसंख्‍यक सिंहलियों और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच दशकों तक चले संघर्ष की वजह से श्रीलंका में राजनीतिक विभाजन की रेखा बड़ी गहरी है. राजपक्षे और उनके प्रतिद्वंद्वी सिरिसेना दोनों बहुसंख्यक सिंहली बौद्ध समुदाय से आते हैं. ऐसे में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक तमिल और मुस्लिमों का वोट साबित हुआ.

लिट्टे के विरोध में सैन्‍य अभियान की आलोचना

तमिलों को लगता है कि सिंहलियों और बौद्धों के वर्चस्व वाली सत्ता में उन्हें दरकिनार कर दिया गया है. जबकि मुसलमानों को अतिवादी बौद्ध भिक्षुओं के हमलों का सामना करना पड़ता रहा है. तमिलों को लगता है एक दशक के शासन में राजपक्षे ने लिट्टे को नेस्‍तानाबूत करने का पूरा प्रयास किया. इसमें सबसे ज्‍यादा नुकसान तमिलों को हुआ. तमिल लोगों के मारे जाने के बाद उनमें मौजूदा सरकार के प्रति काफी रोश नजर आया. इसका परिणाम चुनावों में देखने को मिला और राजपक्षे को करारी हार का सामना करना पड़ा. मुसलमानों को लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं को राजपक्षे की शह हासिल है. तमिल विद्रोही संगठन के नेता प्रभाकरन की हत्‍या भी राजपक्षे के शासन काल में ही हुई है.

विपक्षी द्वारा प्रशासन और कोर्ट को आजादी देने का वादा

माना जाता है कि राजपक्षे के शासनकाल में मीडिया को काफी आजादी मिली हुई थी. इसके परिणाम स्‍वरुप प्रशासन और कोर्ट की आजादी पर कई बार प्रश्‍नचिन्‍ह लगाया जाता रहा है. ऐसे में एसको अहम मुद्दा बनते हुए विपक्षी दलों के नेता सिरिसेना ने कोर्टृ पुलिस और प्रशासन की आजादी की बात करते हुए लोगों से अपने पक्ष में वोट करने की अपील की. सिरिसेना को राजपक्षे के शासनकाल में स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री के रूप में बेहतरीन काम का भी अच्‍छा फल नागरिकों के समर्थन के रूप में मिला. अल्‍पसंख्‍यक तमिल और मुस्‍लमानों ने परिवारवाद और बौद्ध वर्चस्‍व को समाप्‍त करने के उद्देश्‍य से भी राजपक्षे के विरोध में वोट किये. इस चुनाव में राजपक्षे ने कसी विशेष मुद्दे को अपने वादों में शामिल नहीं किया जिनका नुकसान उन्‍हें उठाना पड़ा.

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