सुशांत सरीन
रक्षा विशेषज्ञ
एक बार फिर से पाकिस्तान को एफएटीएफ द्वारा चेतावनी दी गयी है और उसे ग्रे लिस्ट में बरकरार रखा गया है. पाकिस्तान को जून तक के लिए समय दिया गया है कि अगले कुछ महीनों में वह सभी मानदंडों को पूरा कर ले.
यही चेतावनी पिछले अक्तूबर में भी दी गयी थी कि फरवरी तक सब कुछ सही कर लें. फरवरी तक पाकिस्तान ने सभी जरूरी दिशा-निर्देशों को पूरा नहीं किया. अब दोबारा भी वही बात कही गयी है. पिछले अक्तूबर से लेकर आज तक पाकिस्तान ने जो 27 मापदंड थे, उसमें से 14 पूरे कर लिये हैं. लेकिन, अभी उसे 13 मापदंडों पर खरा उतरना है. इससे पहले अक्तूूबर तक उसने चार या पांच मापदंडों को पूरा किया था. अब पाकिस्तान दिखा रहा है कि वह पहले से ज्यादा सतर्क है और आवश्यक कार्रवाई कर रहा है. उसे चेतावनी पर चेतावनी मिल रही है. सवाल है कि एफएटीएफ के मापदंड वस्तुनिष्ठ कसौटी के हिसाब से तय होते हैं, लेकिन एफएटीएफ की निर्णय करनेवाली व्यवस्था में भी राजनीति आ जाती है.
राजनीति यह है कि कोई नहीं चाहता कि पाकिस्तान ब्लैक लिस्ट हो, लेकिन यह भी कोई नहीं चाहता कि वह ग्रे लिस्ट से बाहर आये. सब चाहते हैं कि उसके सिर पर तलवार लटकी रहे, ताकि वह काम करता रहे या दिखाता रहे कि वह सही दिशा में आगे बढ़ रहा है. अब तक तमाम तरह के राजनीतिक या कूटनीतिक कारणों से उस पर दबाव बनाया जाता रहा है. अगर जून तक वह पर्याप्त कार्रवाई नहीं करता है, तो एक बार फिर से उसे चेतावनी दे दी जायेगी.
उसके ब्लैक लिस्ट में जाने की संभावनाएं कम हैं. आमतौर पर माना जाता है कि अगर तीन देश ब्लैक लिस्ट की मुखालफत करते हैं, तो वह देश ब्लैक लिस्ट होने से बच सकता है. अब चीन के अलावा तुर्की और मलयेशिया का भी खुले तौर पर पाकिस्तान को समर्थन मिल रहा है. पाकिस्तान के बचाव का एक कारण यह भी है.
ग्रे लिस्ट से बाहर व्हॉइट लिस्ट में आने के लिए 12 वोटों की जरूरत होती है, जो पाकिस्तान के लिए कतई आसान नहीं है. यह भी एक कारण है कि वह ब्लैक लिस्ट में नहीं जायेगा, लेकिन ग्रे लिस्ट से बाहर भी नहीं निकलेगा.
जून तक एफएटीएफ में चीन की अध्यक्षता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह नियमों से ऊपर होकर काम करेगा. अध्यक्षता का मतलब यह नहीं कि सब चीन के अधीन है, बाकी देशों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. एक हद तक चीन पाकिस्तान की मदद कर सकता है और निस्संदेह कर भी रहा है. कुल मिला कर कार्रवाई एफएटीएफ की कायदे-कानून के हिसाब से ही होगी. चीन को लेकर तमाम तरह का भ्रम भी रहता है. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हमारा प्रभाव इससे कम होता है.
दोस्तों को अपने पक्ष में लाने के लिए कोशिश होती रहनी चाहिए. जहां तक कूटनीतिक मसला है, तो उसको उसी तरह से देखा जाना चाहिए. जहां तक तुर्की और मलयेशिया का सवाल है, उनका प्रभाव बहुत सीमित है, उससे ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है. मलेशिया की क्षमता और प्रभाव ऐसा नहीं है कि वह भारत के रास्ते में आ सके. तुर्की का भी अब उतना प्रभाव नहीं रहा, लेकिन अब उसका रुख स्पष्ट हो रहा है. आतंक के खिलाफ लड़ाई की जब बात होती है, तो यह कहना आसान है कि सबको मिल कर आगे आना चाहिए. वास्तव में ऐसा होता नहीं. सब एक साथ इस पर अमल नहीं करते. जहां पर जिसको जरूरत पड़ती है, वह आतंकवाद का इस्तेमाल भी करता है और अपनी आवश्यकता पड़ने पर मुखालफत भी करता है. यह खेल तो है, यही वजह है कि आतंकवाद को लेकर रुख स्पष्ट नहीं हो पाता और आतंकवाद का कोई ठोस हल नहीं निकल पाता.
भारत को अपने स्तर पर खुद तैयारी करनी चाहिए और अपने आंतरिक मुद्दों, समस्याओं और अर्थव्यवस्था की मजबूती पर ध्यान देना चाहिए. सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा मिले और कानून के उल्लंघन पर कड़े दंड हों. अपनी आंतरिक सुरक्षा प्रणाली और सीमा सुरक्षा पर ध्यान देना जरूरी है. किसी दूसरे देश से यह उम्मीद करना कि वह आपकी लड़ाई लड़ेगा, सही नहीं है. अपने स्तर पर हमें खुद प्रयास करना होगा.