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अब कृत्रिम हाथ भी महसूस कर सकेंगे स्पर्श, जानें

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, सेंसर और रोबोटिक तकनीक के सहयोग से बने कृत्रिम हाथों से दिव्यांगजन जल्द ही सामान्य हाथों जैसा काम ले सकेंगे. ये हाथ स्पर्श और भावनाओं के बीच तालमेल बनाकर कोमल एवं कठोर वस्तुओं को उठा सकेंगे. इस विशेष शोध के साथ कुछ नये गैजेट्स और जानकारियों के साथ प्रस्तुत है आज का इन्फो […]

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, सेंसर और रोबोटिक तकनीक के सहयोग से बने कृत्रिम हाथों से दिव्यांगजन जल्द ही सामान्य हाथों जैसा काम ले सकेंगे. ये हाथ स्पर्श और भावनाओं के बीच तालमेल बनाकर कोमल एवं कठोर वस्तुओं को उठा सकेंगे. इस विशेष शोध के साथ कुछ नये गैजेट्स और जानकारियों के साथ प्रस्तुत है आज का इन्फो टेक…
अमेरिका स्थित उटा विश्वविद्यालय ने रोबोटिक हाथ के लिए एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिसके माध्यम से ये हाथ ठीक उसी तरह काम कर सकते हैं, जैसा असली हाथ करते हैं. यानी ये हाथ स्पर्श को महसूस करने में सक्षम होंगे. यह अध्ययन साइंस रोबोटिक्स जर्नल के हालिया संस्करण में प्रकाशित हुआ है.
यह तकनीक उटा विश्वविद्यालय के बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर ग्रेगरी क्लार्क के नेतृत्व में विकसित की गयी है. इस तकनीक के माध्यम से ल्यूक आर्म (रोबोटिक हाथ) ठीक उसी तरह किसी वस्तु के स्पर्श को महसूस कर सकता है, जैसा मस्तिष्क के संकेत पर हमारे हाथ करते हैं.
इसका अर्थ यह हुआ कि जब एक दिव्यांग व्यक्ति कृत्रिम हाथ पहनेगा तो वह जिस भी वस्तु को हाथ में लेगा, वह यह महसूस करने में सक्षम होगा कि स्पर्श करनेवाली वस्तु कोमल है या कठोर. इस तरह वह यह समझ पायेगा कि उस वस्तु को किस तरह पकड़ना है. ऐसे में इस रोबोटिक हाथ के साथ दिव्यांग व्यक्ति उन नाजुक कार्यों को भी कर सकेगा, जो मेटल हुक या पंजे लगे कृत्रिम हाथ के लिए असंभव है.
ऐसे काम करेगी नयी तकनीक
ल्यूक आर्म पर बीते 15 वर्षों से काम हो रहा है. यह आर्म धातु के मोटरों से बना है और इसके हाथों पर सिलिकन स्किन लगा है. यह एक्सटर्नल बैटरी से संचालित होता है, जिसके तार एक कंप्यूटर में लगे होते हैं.
ल्यूक आर्म को न्यू हैंपशायर की कंपनी डेका रिसर्च ने विकसित किया है. इसी आर्म के लिए उटा यूनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर एक नये सिस्टम को विकसित कर रहे हैं. इस सिस्टम से लैस रोबोटिक हाथ, पहनने वाले के नसों को जकड़ लेती है, एकदम उन जैविक तारों की तरह जो हाथ हिलाने के संकेत भेजती है.
इस सिस्टम के तहत इलेक्ट्रोड ऐरे यानी माइक्रोइलेक्ट्रोड्स और वायर्स की पोटली को अपंग व्यक्ति के हाथ की कलाई की नसों में प्रत्यारोपित कर शरीर के बाहर एक कंप्यूटर से जोड़ दिया जाता है. यह इलेक्ट्रोड ऐरे हाथ के बाकी नसों के संकेतों की व्याख्या करता है और कंप्यूटर उसे डिजिटल संकेत में बदल हाथ को हिलाने की आज्ञा देता है. लेकिन यह तकनीक एक अन्य तरीके से भी काम करती है. वस्तुओं को उठाने जैसा कार्य करने के लिए हाथों को हिलाने की आवश्यकता होती है, जिसके लिए मस्तिष्क संकेत भेजता है.
ऐसे में कृत्रिम हाथ के लिए भी यह सीखना जरूरी है कि वस्तु के स्पर्श को कैसे महसूस किया जाये जिससे यह पता चल सके कि वस्तु को पकड़ते समय उस पर कितना दबाव देना है, क्योंकि सिर्फ वस्तु को देखकर इस बारे में नहीं जाना जा सकता है. ऐसा करने के लिए प्रॉस्थेटिक आर्म (कृत्रिम हाथ) के हाथ में सेंसर लगा होता है, जो इलेक्ट्रोड ऐरे के माध्यम से तंत्रिकाओं को संकेत भेजता है ताकि किसी वस्तु को पकड़ने के बाद हाथ को जैसा महसूस हुआ, इसका वह अनुकरण कर सके.
इस तकनीक को विकसित करनेवाले बायोमेडिकल इंजीनियरों के लीडर क्लार्क का कहना है कि कृत्रित हाथ में संवेदनशीलता पैदा करना एक बड़ी बात है, लेकिन आप इन सूचनाओं को जिस तरीके से भेजते हैं, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है. सूचनाओं को भेजने का तरीका जैविक तौर पर जितना यथार्थवादी होगा, मस्तिष्क उसे उतने ही बेहतर तरीके से समझ पायेगा.
नतीजा, संवेदनाओं का प्रदर्शन उतना ही बेहतर होगा. क्लार्क कहते हैं कि मनुष्य अलग-अलग प्रकार के संकेतों को किस तरह प्राप्त करता है, इसे जानने के लिए उनकी टीम ने गणितीय गणना के साथ प्राइमेट (बंदर, लंगूर, मनुष्य आदी स्तनधारी इसी समूह में आते हैं) के हाथ के रिकॉर्ड किये हुए आवेगों का इस्तेमाल कर एक मॉडल तैयार किया. बाद में इसी मॉडल को ल्यूक आर्म सिस्टम में लागू किया गया.
अब भी जारी है शोध
स्पर्श की भावना से लैस ल्यूक आर्म की प्रतिकृति के अतिरिक्त बायोमेडिकल इंजीनियरों की पूरी टीम पहले से ही इस आर्म के पूरी तरह से पोर्टेबल वर्जन को तैयार करने में जुटी है. ल्यूक आर्म के इस पोर्टेबल वर्जन को शरीर के बाहर कंप्यूटर के तार से जोड़ने की जरूरत नहीं होगी. बल्कि सबकुछ बिना तार के एक-दूसरे से जुड़ा होगा. इस प्रकार ल्यूक आर्म पहननेवाला व्यक्ति खुद को सहज महसूस करेगा. क्लार्क की मानें तो इलेक्ट्रोड ऐरे न सिर्फ मस्तिष्क तक सूचनओं को भेजने में सक्षम हैं, बल्कि यह दर्द और तापमान को भी महसूस कर सकता है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि भले ही वर्तमान में वे केवल उन्हीं अपंग व्यक्तियों के लिए काम कर रहे हैं, जिन्होंने कोहनी के नीचे अपने हाथ के वे हिस्से खो दिये हैं, जहां हाथों को हिलानेवाली मांसपेशियां स्थित होती हैं. लेकिन उनका शोध उन व्यक्तियों पर भी लागू हो सकता है, जिन्होंने कोहनी के ऊपर के अपने हाथ खो दिये हैं. क्लार्क को वर्ष 2020 या 2021 तक रोबोटिक आर्म इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होने की उम्मीद है.
भारतीय वायुसेना आज एक मोबाइल गेम जारी करनेवाली है, जो बहुत जल्द गेम लवर का फेवरेट गेम बननेवाला है. इस नये गेम को एप्प स्टोर पर देखा जा सकेगा. आइओएस और एंड्रॉयड डिवाइस यूजर इस गेम को खेलने का मजा उठा सकते हैं. इस गेम काे ‘इंडियन एयरफोर्स : ए कट अबॉव’ नाम दिया गया है. भारतीय वायुसेना ने इस गेम का एक टीजर भी लॉन्च किया है. यह टीजर भारतीय वायु सेना के विमानों के सभी मॉडल जैसी विशेषताओं को दिखाता है, साथ ही गेम के पायलटों के लिए सर्वश्रेष्ठ तकनीक का वादा भी करता है.
इस मोबाइल गेम में विभिन्न भारतीय जेट और चॉपर चुनने का विकल्प उपलब्ध होगा. 1.41 मिनट की यह क्लिप आपको मातृभूमि के लिए लड़ने और दुश्मन के दिलों में डर पैदा करने के लिए वायु योद्धा बनने का आग्रह करती दिखती है. गेम का टीजर, टेक्स्ट के माध्यम से गौरव के रास्ते पर चलने की बात करता है और भविष्य के खिलाड़ियों को इस खेल में शामिल होने के लिए मनाने की पुरजोर कोशिश करता नजर आता है. लेकिन अगर आप वायु योद्धा बनने को तैयार नहीं होते हैं तो गेम के भीतर बंदूक जैसी मूंछ रखे एक चरित्र भी दिया गया है. इस चरित्र का लुक अभिनंदन वर्धमान की तरह है.
यह गेम अपने खिलाड़ियों में से एक को वायु योद्धा बनाने को लेकर गंभीर है. इतना गंभीर कि मोबाइल गेम के टीजर को देखकर आभास होता है जैसे यह भारतीय वायुसेना में भर्ती का वीडियो है. गेम प्ले सिर्फ हवाई युद्ध तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें जमीन पर भी सामरिक विकल्प उपलब्ध कराया गया है. भारत में मोबाइल गेम की जितनी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए यह अासानी से समझा जा सकता है कि जल्द ही इससे बहुत से किशोरवय के बच्चे जुड़ जायेंगे.

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