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जरूरी नहीं सूरज ही बनें जुगनू भी कम नहीं हैं

वरिष्ठ कथाकार-साहित्यकार देवेंद्र सिंह 80 वर्ष के हो चुके हैं. फिर भी अनवरत लिख रहे हैं. उनकी कथावस्तु के केंद्र में गांव हैं, किसान हैं, बेरोजगार हैं और हाशिये पर धकेल दिये गये तकरीबन वो सारे पात्र हैं, जो रोज हमारे आसपास दिखते हैं. उनकी रचनाओं में एक कालखंड का इतिहास है. उनकी रचनाएं मानवीय […]

वरिष्ठ कथाकार-साहित्यकार देवेंद्र सिंह 80 वर्ष के हो चुके हैं. फिर भी अनवरत लिख रहे हैं. उनकी कथावस्तु के केंद्र में गांव हैं, किसान हैं, बेरोजगार हैं और हाशिये पर धकेल दिये गये तकरीबन वो सारे पात्र हैं, जो रोज हमारे आसपास दिखते हैं. उनकी रचनाओं में एक कालखंड का इतिहास है. उनकी रचनाएं मानवीय संवेदनाओं को उकेरती हुईं अंग संस्कृति की खुशबू से भर देती हैं. जीवन का सच कई रूपों में ढलता है.
देवेंद्र सिंह इस सच को सहजता से आपके सामने रख देते हैं.
इस सहजता से कि आप दंग रह जाते हैं. यहां किस्सागोई है, फेंटेसी है, यथार्थ है, लेखनी का जादू है. वह शब्दों के कारीगर हैं. शब्दों के शिल्पकार हैं. हमारा आपका सच- उनके शब्दों से होकर निकलता है और समाज का सच एक आईना बन कर हमारे सामने आ जाता है.वरिष्ठ साहित्यकार कथाकार देवेंद्र सिंह से इन विषयों पर निशिरंजन ठाकुर ने बातचीत की है…
Qआपके जीवन में साहित्य की शुरुआत कब से और कैसे हुई ?
-साहित्य की शुरुआत तो तभी हो गयी थी जब पाचवीं कक्षा में गांव के पुस्तकालय में प्रेमचंद की किताबें मैंने पढ़ी थी. तब से शुरू हुआ साहित्य का यह सफर अभी तक अनवरत जारी है. वैसे पहली कहानी तो 1963 में छपी थी. लेकिन सक्रिय लेखन 1991 से शुरू हुआ. इस बीच छिटपुट कुछ लिखता-पढ़ता रहा था.
Qलेखन की कौन-सी विधा
आपको प्रिय है?
-लेखन की कथा विधा मुझे सबसे प्रिय है. इममें पाठकों तक सहज रूप से भावों का संप्रेषण होता है.
Qआपकी कहानी तिरहुतिया, आत्मकथ्यात्मक उपन्यास अत्ता पत्ता, रैन भई यही देस, आमुख कथा आदि की राष्ट्रीय स्तर तक पर चर्चा हुई. इन रचनाओं के खास होने की वजह?
-किसी भी रचनाकार की हर रचना खास ही होती है. तिरहुतिया कहानी वसुधा के कहानी विशेषांक में छपी थी. अपनी खास कथ्यशैली और विषय की वजह से राष्ट्रीय स्तर पर इस कहानी की चर्चा हुई थी. अत्ता पत्ता और अन्य उल्लेखित उपन्यास में एक विशेष कालखंड को प्रामाणिक रूप से लिखने की कोशिश की गयी है. भाषा आंचलिक और बेहद सहज है. यह पाठकों की प्रतिक्रिया रही. शायद इन वजहों से ये रचनाएं काफी चर्चित रही.
Qआज साहित्य व साहित्यकारों से गांव और किसान दूर होते जा रहे हैं. क्यों?
-गांव को तो सरकार ने भी सौतेला बेटा मान लिया है. उसी तरह साहित्यकार भी गांव को उपेक्षित कर रहे हैं. जो गांव से ही निकल कर आये, वह भी गांव को भूल गये. दरअसल पूरे देश पर मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग मानसकिता हावी है. इनके पास गांव के लिए समय नहीं है. शहरीकरण बढ़ा है और बढ़ता ही जा रहा है. पढ़े-लिखे और समृद्ध लोगों में गांव छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ी है. इन वजहों गांव और किसान उपेक्षित हो गये हैं. यह उपेक्षा अभी और गंभीर हो गयी है.
Qकथा साहित्य के क्षेत्र में रिक्तता क्यों आती जा रही है?
-ऐसी रिक्तता भी नहीं है. ठहराव भी नहीं है. लोग लिख रहे हैं और बेहतर लिख रहे हैं. सत्तर के दशक में नयी कहानी का आंदोलन शुरू हुआ था. तो उस समय कई बेहतरीन कहानियां और रचनाएं लिखी गयीं. कई नये लेखक साहित्यिक परिदृश्य पर उभरे. अभी वह स्थिति तो नहीं है. साहित्य की भी एक प्रवृत्ति होती है. इसमें कभी अच्छा तो कभी सूखा होता है. लेकिन यह उतार-चढ़ाव क्रमिक है. यह होते रहता है.
Q सोशल मीडिया का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
-सच कहूं तो सोशल मीडिया साहित्य का प्रतिलोम है. सोशल मीडिया पर तुरंत का साहित्य होता है. जबकि साहित्य एक गंभीर लेखनी के रूप में सामने आना चाहिए. साहित्य एक साधना की तरह है.
यहां रचनाकार को परफेक्शन का ध्यान रखना चाहिए. हां, सोशल मीडिया से पाठकों तक पहुंचने का रास्ता बेहद सुगम हो गया है. लेकिन आप क्या लेकर पाठकों तक पहुंच रहे हैं, इसका भी ध्यान रखना चाहिए. इसकी गुणवत्ता का ध्यान रखना चाहिए. इसलिए शायद सोशल मीडिया पर बहुत अच्छी रचनाएं, बहुत अच्छी सामग्री नहीं आ पाती हैं. वरना सोशल मीडिया बहुत अच्छा प्लेटफॉर्म है. लोकग्राह्य व सहज रचनाएं हों लेकिन गुणवत्तापूर्ण रचनाएं हों. रचनाकारों के लिए इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है.
Q इस कठिन समय में नयी पौध को आप क्या संदेश देंगे?
-आप जो कर सकते हैं करें. समाज के लिए, जनहित के लिए करें. जरूरी नहीं है कि सूरज ही बना जाये. आप जुगनू बन कर भी टिमटिमा सकते हैं. आपका व्यक्तिगत प्रयास भी समाज के लिए एक सार्थक पहल हो सकता है. निराश होने की जगह प्रयास करें.

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