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घास ने बदली किस्मत

सुनील मिंज बंजर भूमि और कम पानी वाले शुष्क क्षेत्रों में परंपरागत खेती करने वाले किसानों के लिए पाम रोजा की खेती राहत देने वाली साबित हो सकती है.पाम रोजा एक सुगंधित घास है, जो कम पानी में भी बेहतरीन उपज दे सकती है और इसे वन्य पशुओं से भी कोई नुकसान नहीं होता. इसके […]

सुनील मिंज

बंजर भूमि और कम पानी वाले शुष्क क्षेत्रों में परंपरागत खेती करने वाले किसानों के लिए पाम रोजा की खेती राहत देने वाली साबित हो सकती है.पाम रोजा एक सुगंधित घास है, जो कम पानी में भी बेहतरीन उपज दे सकती है और इसे वन्य पशुओं से भी कोई नुकसान नहीं होता. इसके साथ ही, पाम रोजा की इस नये तरीके की खेती किसानों को परंपरागत फसलों की अपेक्षा ज्यादा फायदा भी दिला सकती है. खासकर पलामू प्रमंडल का मौसम इसकी खेती के लिए बेहद अनुकूल है.

आप जानते ही हैं कि पलामू सूखा के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम है. यहां सूखे से राहत के लिए पानी पर तो काम किया गया, लेकिन कम पानी में उपज देनेवाली खेती का प्राथमिकीकरण नहीं किया गया.

मैंने चार दफा मनिका विकास खंड के जानहों गांव, जो लातेहार जिले के अंतर्गत आता है, का दौरा किया यह समझने के लिए कि पाम रोजा घास है क्या? यह घास किसानों को कैसे मालामाल बना सकती है? इसके पूर्व मैंने इस क्षेत्र में जमीनी स्तर पर काम कर रहे मेरे मित्र मिथिलेश कुमार और जेम्स हेरेंज से इसके बारे में सुन चुका था.

यह भी सुन चुका था कि उनके इंजीनियर और डॉक्टर दंपती मित्र मीरा शाह और डॉक्टर आदि आर्थिक रूप से पिछड़े आदिवासी इलाकों में समुदाय की आर्थिक बेहतरी के लिए काम करना चाहते हैं. उन्होंने एक कंपनी रजिस्टर की और उसका नाम रखा – करम. ठेठ आदिवासी सांस्कृतिक नाम. इस करम से ही वे आदिवासियों को आर्थिक रूप से संगठित करना चाहते हैं.

उन्होंने देखा कि आम बागवानी में पौधों की रोपाई के बीच काफी खाली जमीन है. उसमें पाम रोजा की खेती क्यों न कर दी जाए? इस सोच से उन्होंने जान्हों के कमलेश उरांव और सुरेश उरांव आदि किसानों से संपर्क कर इसके बारे में बताया और लगभग एक हेक्टेयर टांड़ और ऊंची भूमि में इसकी खेती करने का विचार किया. आइडिया यह था कि आम बागवानी में पटवन करते समय इसकी भी सिंचाई कर दी जाए. हालांकि इसमें बहुत कम पानी और खाद की जरूरत पड़ती है.

कमलेश उरांव गांव में रहते जरूर हैं, लेकिन वह प्रगतिशील चेतना वाले किसान बन गये हैं. उन्होंने प्रदान नामक संस्था की आम बागवानी का कई बार एक्सपोजर विजिट किया है. इसलिए उसे यह समझने में तनिक भी देर नहीं हुई कि घास की यह खेती सूखे में कृषि का विकल्प हो सकती है. आज की तारीख में वह पाम रोजा की एक फसल काट चुके हैं.

वह बताते हैं कि उन्होंने 25 हजार की लागत से लगभग दो एकड़ जमीन में पाम रोजा की खेती की. इस खेती में 100 मानव दिवस का सृजन हुआ. उसका भुगतान मनरेगा से किया गया. घास की कटाई और सुगंधित तेल की आसवन विधि से चुआई कर्म में पुनः 100 मानव दिवस का सृजन हुआ. उसकी भी मजदूरी मनरेगा से दी गयी. कुल 11,390 किलोग्राम पाम रोजा की उपज प्राप्त हुई.

करम कंपनी ने तेल निकालने का एक संयंत्र लगा लिया है. उसी संयंत्र में घास से तेल निकला गया. तेल का कुल वजन था– 33.5 किलोग्राम, जिसका बाजार भाव 67,000 रुपये के करीब है. मजेदार बात यह है कि इस संयंत्र के लिए शेड का निर्माण और गोदाम में काम करनेवाले मजदूरों की मजदूरी का भुगतान मनरेगा से किया जा रहा है.

इस कार्य हेतु जो ईंट मशीन के जरिये बनायी जा रही है, वह पर्यावरण फ्रेंडली व सस्ती है. इसके लिए भी मजदूरी का भुगतान मनरेगा खाते से किया जा रहा है. बागवानी, इंटरक्रॉपिंग, कुआं, डीजल पंप, पाम रोजा की खेती, शेड निर्माण आदि के लिए विभिन्न विभागों का बेहतर समन्वय यहां पर देखा जा सकता है.

एक बार इस घास की रोपाई करने से चार-छह साल तक उपज मिलता रहता है. और बड़े मजे से हर तीन महीने में एक बार इसकी फसल काटी जा सकती है. यह घास 150 सेमी से लेकर 200 सेमी तक लंबा हो सकती है. जितनी लंबी घास, उतनी ही अधिक तापमान सहन की क्षमता. यह 10 डिग्री सेल्सियस से लेकर 45 डिग्री सेल्सियस तक तापमान सह सकती है. इसे आखिरी जुलाई के समय दो-तीन बार खेत की जुताई के बाद गोबर खाद देकर रोपा जा सकता है.

इसकी खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 2.5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है. प्राथमिक अवस्था में खर-पतवार पर नियंत्रण की आवश्यकता पड़ सकती है. इस पाम रोजा के ऊपर कोई विशेष कीट का प्रकोप नहीं होता है. तेल घास के सभी भागों में पाया जाता है.

जमीन से 15-20 सेमी छोड़कर इसकी कटाई की जाती है. पहले साल में 20 से 30 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर तेल की प्राप्ति प्राप्त होती है, जबकि दूसरे साल 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यह प्राप्त होगा. तीसरे-चौथे साल में 70-70 किलोग्राम की दर से तेल की प्राप्ति होगी. जैसे -जैसे घास की उम्र बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे तेल की मात्रा भी बढ़ती जाती है. चार साल के बाद नया पौधा फिर से लगाया जाना चाहिए. वर्तमान में इसकी खेती उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु और गुजरात में की जा रही है.

सुगंधित घास के धंधे से जुड़ाव रखने वाले कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि चूंकि इस सुगंधित घास का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन, मसालों, एंटीसेप्टिक, मच्छर से बचानेवाली क्रीम, दर्द निवारक तेल और त्वचा रोग आदि में हो रहा है, इसलिए इसकी खेती का भविष्य भी सुगंधित है.

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