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अपने-अपने जयप्रकाश : जेपी के अनुयायियों ने उनके ही मुद्दों को भुला दिया

डीएम दिवाकर जेपी ने जब छात्रों और नौजवानों के आंदोलन को नेतृत्व दिया था, उस वक्त उन्होंने यह नहीं सोचा था कि वे जिन लोगों को नेतृत्व दे रहे हैं, बाद में वे उन्हें ही भुला देंगे. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि राइट टू रिकॉल, भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जेपी आंदोलन के […]

डीएम दिवाकर
जेपी ने जब छात्रों और नौजवानों के आंदोलन को नेतृत्व दिया था, उस वक्त उन्होंने यह नहीं सोचा था कि वे जिन लोगों को नेतृत्व दे रहे हैं, बाद में वे उन्हें ही भुला देंगे. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि राइट टू रिकॉल, भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जेपी आंदोलन के प्रमुख मुद्दे थे.
वे उस आंदोलन से इन मुद्दों को स्थायी समाधान चाहते थे. आज जब केंद्र समेत देश के बीस से अधिक राज्यों में खुद को जेपी का अनुयायी कहने वाले लोगों की सरकार है, तब इन मुद्दों पर कोई गंभीर बात नहीं होती. आज के दौर में भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी कई गुणा बढ़ी है.
जहां तक राइट टू रिकॉल का सवाल है, तो उस पर तो कोई बात ही नहीं करता. जितनी मुस्तैदी इन लोगों ने एक देश, एक कर जीएसटी लागू करने में दिखायी, उस हिसाब से तो ये राइट टू रिकॉल की चर्चा तक नहीं करते. और तो और सबके लिए समान शिक्षा के मसले पर भी कोई बात नहीं है. इन परिस्थितियों को देखते हुए तो यही लगता है कि आज की तारीख में अगर जेपी जिंदा होते तो देश के मौजूदा हाल को देख कर निराश ही होते.
पूर्व निदेशक, एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट, पटना
जेपी और लोहिया एक हो जाते तो नहीं बंटता देश
नरेंद्र पाठक
मैंने बाबूजी के कंधों पर बैठकर जेपी को देखा था बक्सर के किला मैदान में. जब भारतीय राजनीति का अध्ययन आरम्भ किया तो हमारी कक्षाओं में लोहिया के विचार और उनके सामाजिक आर्थिक संदर्भ अधिक प्रासंगिक जान पड़े. हर तरह की विषमता से लड़ने वाली वैचारिकता का मैं कायल हो गया.
मुझे आपातकाल के दौरान जननायक कर्पूरी ठाकुर का एक लिखित दस्तावेज मिला था जिसकी बानगी यह थी कि जेपी का व्यक्तित्व बहुत विराट था, किंतु वह भावुक आदमी थे. भावुक आदमी अपने निर्णयों को आखिरी मंजिल तक नही ले जाता है.
मधु लिमये ने मुझको बताया ‘संविधान सभा बनने के दौरान और उसके बाद जब देश के बंटवारे की बात चल रही थी तब गांधीजी ने जेपी और लोहिया को एक साथ लाने का बहुत प्रयास किया. अगर वे दोनों उस समय एक हो जाते तो शायद देश का बंटवारा न होता.
आज़ादी के बाद पहले आम चुनाव में ही देश मे समाजवादी सरकार बन जाती लेकिन दोनो में व्यक्तित्व का टकराव बहुत था. जेपी ने अपनी गलती को स्वीकार किया लेकिन तबतक बहुत देर हो गयी थी, लोहिया का इंतकाल हो गया था.’ मेरी राय में 1974 के जेपी 1965-67 के लोहिया के प्रतिरूप थे.
लेखक एवं विचारक, पटना

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