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संकट के घेरे में सर्वोच्च न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए प्रस्तावित न्यायाधीश केएम जोसेफ के नाम को सरकार ने वापस कर दिया है. इस प्रकरण से न्यायालय के भीतर और बाहर चल रही गर्म बहस को नया आयाम मिल गया है. जजों को मुकदमे आवंटित करने तथा राजनीतिक हस्तक्षेप की बातें भी चर्चा में हैं. पूरे मामले की गंभीरता […]

सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए प्रस्तावित न्यायाधीश केएम जोसेफ के नाम को सरकार ने वापस कर दिया है. इस प्रकरण से न्यायालय के भीतर और बाहर चल रही गर्म बहस को नया आयाम मिल गया है. जजों को मुकदमे आवंटित करने तथा राजनीतिक हस्तक्षेप की बातें भी चर्चा में हैं.

पूरे मामले की गंभीरता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ प्रमुख विपक्षी दलों ने प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाने का प्रयास किया तथा न्यायपालिका की स्वायत्तता पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं. इस अभूतपूर्व संकट से जुड़े विविध पहलुओं के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-दिनों…

प्रशासनिक कार्य है जजों की नियुक्ति

जस्टिस केएम जोसेफ के नाम को सरकार ने कोलेजियम को वापस क्यों भेज दिया, यह तो सरकार जाने कि उसके पास उनकी सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति न करने का आधार क्या है. वहीं अगर कांग्रेस के लोग यह कह रहे हैं कि न्यायपालिका में सरकार हस्तक्षेप कर रही है, तो यह उसका अपना राजनीतिक मामला है कि वह जो चाहे सरकार पर आरोप लगाये.

जहां तक सवाल एक जज की नियुक्ति का है, तो मैं इसके संवैधानिक पहलू पर ही बात करूंगा. न किसी के पक्ष में, और न किसी के विपक्ष में. जजों की नियुक्ति का विषय कोई छोटा विषय नहीं है, बल्कि बहुत बड़ा विषय है.

पहली बात तो यह कि जजों की नियुक्ति एक प्रशासनिक मामला है, न्यायिक नहीं. देश में तमाम प्रशासनिक मामलों को देखने और हल करने का काम कार्यपालिका के जिम्मे है. इनमें से कुछ पदों के लिए राष्ट्रपति अपनी मुहर लगाते हैं.

जबकि न्यायपालिका का काम है कि वह तमाम मुकदमों पर कानून के मुताबिक फैसले करे. केंद्र और राज्य सरकारों के झगड़ों या फिर दो राज्यों के बीच के झगड़ों को सुलझाये. न्यायपालिका का काम किसी की नियुक्ति करने का है ही नहीं, इसलिए न्यायपालिका केंद्र सरकार पर किसी की नियुक्ति के लिए दबाव नहीं बना सकती. सरकार कोई रबर स्टांप नहीं है कि उसके पास जिस नाम की सिफारिश जायेगी, उसे वह मंजूर कर लेगी. सरकार के पास पूरा अधिकार है कि वह किसी के नाम को नामंजूर कर दे.

भारतीय लोकतंत्र के सारे स्तंभों का अपना-अपना काम स्पष्ट है कि किसे क्या करना है. यहां शक्ति के विभाजन की अवधारणा काम करती है, जिसके तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने-अपने दायित्व निर्धारित हैं.

शक्ति के विभाजन का तात्पर्य ही है कि एक-दूसरे के कामों में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा. छोटे से लेकर बड़े तक किसी भी पद की नियुक्ति की प्रक्रिया कार्यकारी प्रकार्य (एक्जीक्यूटिव फंक्शन) के तहत आता है.

इसलिए जजों की नियुक्ति एक प्रशासकीय कार्य हुआ, न्यायिक नहीं. इसलिए जजों की नियुक्ति न्यायपालिका नहीं कर सकती. दुनिया में कहीं भी किसी भी देश में ऐसा नहीं है, जहां जज खुद ही जज नियुक्त करते हों. यह मूलत: गलत है.

मेरा मानना है कि प्रशासनिक कार्यों के लिए न्यायपालिका किसी भी तरह से सरकार को बाध्य नहीं कर सकती. हमारे संविधान निर्माताओं ने यह कभी नहीं सोचा था कि न्यायपालिका कानून बनायेगी या संविधान संशोधन करेगी. लेकिन, जजों की नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम बनाकर न्यापालिका ने यह काम किया. यह संविधान का उल्लंघन हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट जजों के नाम की सिफारिश कर सकता है, सरकार पर दबाव नहीं बना सकता. सुप्रीम कोर्ट में पांच सदस्यों की जो कॉलेजियम है, जिसने जजों के नाम की सिफारिश की है, उसमें आपस में ही एका नहीं है.

कई मामलों में कॉलेजियम के चार जज एक तरफ हैं, तो मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) दूसरी तरफ. सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि उसकी छवि पर जो आघात हुआ है, उसको दुरुस्त करने की कोशिश करे और संकट से गुजर रही न्यायपालिका की गरिमा को वापस लाये. इसके लिए बाहरी दखल की कतई जरूरत नहीं है, कोर्ट ही अपने भीतर की तमाम खामियों को दुरुस्त करे, तो बेहतर होगा.

जैसे घर के भीतर ही घर के मसले हल किये जाते हैं, ठीक उसी तरह से न्यायपालिका भी अपने घर की समस्याओं का खुद हल निकाले. सरकार को भी इस मामले में दखल नहीं देना चाहिए. दोनों एक-दूसरे के काम में दखल दे रहे हैं, इसलिए इस वक्त संकट बढ़ गया है.

मान्य परंपराओं का नहीं हो रहा पालन

जजों की प्रेस कांफ्रेंस, चीफ जस्टिस के विरुद्ध महाभियोग की नोटिस और अब जस्टिस जोसेफ की नियुक्ति पर विवाद से सुप्रीम कोर्ट फिर विवादों के घेरे में है. कॉलेजियम द्वारा मई, 2016 में की गयी अनुशंसा के बावजूद जोसेफ का उत्तराखंड से आंध्र प्रदेश-तेलंगाना हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस पद पर स्थानांतरण नहीं हुआ.

और अब जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाया जा रहा, जिसके लिए सरकार द्वारा दिये गये तर्क तथ्यों और परंपराओं के विपरीत हैं.

प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद द्वारा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को लिखे गये पत्र के अनुसार हाइकोर्ट के जजों की वरिष्ठता सूची में जोसेफ 42वें स्थान पर हैं.

इस बारे में दिल्ली स्थित संस्था सेंटर फॉर एकाउंटेबिलिटी एंड सिस्टमिक चेंज (सीएएससी) द्वारा जजों की वरिष्ठता सूची के विश्लेषण के अनुसार, देश में 24 हाइकोर्टों के चीफ जस्टिस में से जस्टिस जोसेफ सबसे वरिष्ठ हैं.

अमूमन हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस ही सुप्रीम कोर्ट के जज बनते हैं, तो फिर जजों की पुरानी वरिष्ठता से जोसेफ की नियुक्ति को बेवजह क्यों उलझाया जा रहा है? वर्तमान चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा समेत अनेक जज भी जब सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नत हुए, तो उस समय वे लोग जजों की वरिष्ठता सूची में सबसे ऊपर नहीं थे. सवाल यह है कि यदि जोसेफ हाइकोर्ट जजों में जूनियर हैं, तो उन्हें कॉलेजियम की सिफारिश पर वर्तमान भाजपा सरकार ने 2014 में उत्तराखंड का चीफ जस्टिस क्यों बनाया था?

कानून मंत्री ने अपने पत्र में सुप्रीम कोर्ट में सभी राज्यों के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाते हुए कहा है कि जोसेफ की नियुक्ति से सुप्रीम कोर्ट में केरल के दो जज हो जायेंगे, जबकि देश के 10 हाइकोर्टों से सुप्रीम कोर्ट में कोई जज नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट में जज बनने के लिए राज्यवार आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने से दिल्ली और बंबई हाइकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में तीन जज हैं. इलाहाबाद, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश हाइकोर्ट से भी सुप्रीम कोर्ट में दो जज हैं,

तो फिर केरल से दो जजों पर आपत्ति क्यों? सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान जज कुरियन जोसेफ वैसे भी नवंबर, 2018 में रिटायर हो जायेंगे, जिसके बाद केएम जोसेफ केरल राज्य से सुप्रीम कोर्ट में इकलौते जज हो सकते थे.

जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाने के लिए कानून मंत्री ने अपने पत्र में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के शून्य प्रतिनिधित्व की बात उठाकर मामले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की है.

सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति के आखिरी जज केजी बालाकृष्णन थे और अनुसूचित जनजाति वर्ग से भी सुप्रीम कोर्ट में कोई जज नहीं है. न्यायपालिका में क्षेत्रवार और जाति के आधार पर नियुक्ति के लिए गंभीर विमर्श और मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) में बदलाव की बजाय जोसेफ को ही बलि का बकरा क्यों बनाया जा रहा है?

जोसेफ की नियुक्ति पर अड़ंगेबाजी की बजाय, क्या सुप्रीम कोर्ट के पांच रिक्त पदों पर अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के जजों की नियुक्ति की बात नहीं होनी चाहिए? कॉलेजियम की सिफारिश के बावजूद पूर्व सॉलिसीटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम को वर्ष 2014 में जज नहीं बनाये जाने और खंडित नियुक्ति आदेश पर विरोध जताते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने सरकार को सख्त पत्र लिखा था.

पर जोसेफ के मामले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा है कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिश को वापस भेज सकती है. जस्टिस जोसेफ वरिष्ठतम होने के साथ काबिल जज हैं. सवाल यह है कि यदि कॉलेजियम द्वारा जोसेफ के नाम की संस्तुति दोबारा की गयी, तो क्या केंद्र सरकार उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनायेगी?

जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया

देश के न्यायालयों (उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय) में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली को ‘कॉलेजियम सिस्टम’ कहा जाता है.

वर्ष 1993 से लागू इस सिस्टम के जरिये ही जजों के स्थानांतरण, तैनाती और पदोन्नति का फैसला होता है.

कॉलेजियम पांच लोगों का एक समूह है. इसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधाीश समेत उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं. वरिष्ठ न्यायाधीश जे चेलामेश्वर मौजूदा समय में इसी समूह में सदस्य हैं.

कॉलेजियम कथित तौर पर व्यक्ति के गुण-कौशल का मूल्यांकन करता है और उसकी नियुक्ति करता है. फिर सरकार उस नियुक्ति को हरी झंडी दे देती है.

इस सिस्टम को नया रूप देने के लिए केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) बनाया था. यह सरकार द्वारा प्रस्तावित एक संवैधानिक संस्था थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया.

एनजेएसी में छह सदस्य रखने का प्रस्ताव था, जिसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, कानून मंत्री और विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ीं दो जानी-मानी हस्तियों को बतौर सदस्य शामिल करने की बात थी. लेकिन इसे यह कह कर रद्द किया गया कि न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति का नया कानून गैर संवैधानिक है. इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ेगा.

एमओपी पर न्यायालय बनाम सरकार

न्यायपालिका और सरकार के बीच पहली बार तनाव 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के फैसले के बाद मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) को अंतिम रूप न दिये जाने पर सामने आया था. एमओपी पर सुप्रीम कोर्ट को सरकार के साथ मिलकर दिशा-निर्देश तैयार करने थे, लेकिन यह सरकार की ओर से अधर में लटका हुआ है. उस समय उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को संयुक्त रूप से पत्र लिखने वाले चार न्यायाधीशों ने इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट के कामकाज के बारे में गंभीर चिंताएं व्यक्त करते हुए एक पत्र लिखा था.

मेमोरेंडम की प्रक्रिया को सार्वजनिक करने से सरकार का इंकार

केंद्र सरकार ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में एमओपी यानी मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर के संबंध में किसी तरह की सूचना देने से इंकार कर दिया है.

पारस नाथ सिंह ने इस संबंध में सूचना का अधिकार के तहत एक आवेदन दिया था, जिसमें इस बारे में बताने की मांग की गयी थी. लेकिन सरकार ने इसे कॉन्फिडेंशियल बताते हुए इस जानकारी को सार्वजनिक करने से मना कर दिया. आरटीआइ के तहत ये जानकारियां मांगी गयी थी :

मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर के तहत सरकार और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के बीच इस संबंध में किस तरह के पत्राचार किये गये.

मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के साथ आखिरी बार पत्राचार कब किया गया था.

मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर के ड्राफ्ट की प्रमाणित कॉपी को सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने केंद्र सरकार को मार्च, 2017 में भेजा.

मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर जैसे मसलों को डील करते हुए न्याय विभाग में फाइल नोटिंग के समय इसे विस्तृत रूप से तैयार किया गया.

सीपीआइओ ने 15 फरवरी को दिये गये अपने जवाब में यह सूचना मुहैया कराने से मना कर दिया और कहा कि इसमें संशोधन जारी है, जिसे पूरा होने तक इस बारे में कुछ नहीं बताया जा सकता.

यह जवाब मिलने के बाद पारसनाथ सिंह ने अपील दायर की और कहा कि सूचना के अधिकार के तहत केवल सेक्शन आठ और नौ के अधीन ही सूचना देने से मना किया जा सकता है.

उन्होंने सरकार को लिखा कि इन तथ्यों को जानना नागरिक का मौलिक अधिकार है और इस सूचना तक उसकी पहुंच होनी चाहिए. सरकार को इस सूचना को छिपाने के लिए उन्होंने एक कठोर पत्र लिखा.

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग भारत सरकार द्वारा स्थापित एक ऐसा प्रस्तावित निकाय था, जो उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश समेत भारत के मुख्य न्यायाधीश की पारदर्शी तरीके से नियुक्ति करने को प्रतिबद्ध था.

कॉलेजियम सिस्टम

कॉलेजियम सिस्टम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए उत्तरदायी एक फोरम है. इस फोरम का गठन उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों के अनुसार हुआ है. उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम का प्रमुख भारत का मुख्य न्यायाधीश होता है और इसी न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य होते हैं.

संविधान में प्रावधान

उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217 के तहत राष्ट्रपति करता है. इसके लिए राष्ट्रपति उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से सलाह कर सकता है.

अनुच्छेद 124 (2) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है. यह अनुच्छेद कहता है कि उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में होगी और वह जरूरत पड़ने पर इस मामले में उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह ले सकता है.

लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेनी होगी.

अनुच्छेद 217 उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति से संबंधित है. इस अनुच्छेद के अनुसार न्यायाधीश की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास होगा और वे ही भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल से सलाह के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे.

प्रस्ताव वापसी पर सरकार

ने गिनाये ये कारण

जस्टिस जोसेफ को उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश

बनाने की सिफारिश लौटाने के पक्ष में सरकार ने तीन कारण गिनाये हैं :

जस्टिस जोसेफ से सीनियर कई दूसरे योग्य न्यायाधीश देश में हैं.

केरल हाइकोर्ट का सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही पर्याप्त प्रतिनिधित्व है.

सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति समुदायों से कोई न्यायाधीश नहीं है.

क्या कहा कानून मंत्री ने

केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने सरकार के फैसले और उसके आधार की जानकारी दी. सरकार ने कहा कि अभी जस्टिस जोसेफ को पदोन्नति देना विभिन्न उच्च न्यायालयों के दूसरे कहीं ज्यादा वरिष्ठ, योग्य और उपयुक्त मुख्य न्यायाधीशों और अन्य न्यायाधीशों के साथ उचित बरताव नहीं कहा जायेगा.

रोस्टर पर याचिका

वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने इस महीने की दो तारीख को सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डालकर रोस्टर प्रणाली के बारे में स्पष्टीकरण मांगा था. अभी संबंधित खंडपीठ ने इस पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है.

हालांकि पहले न्यायालय कह चुका है कि प्रधान न्यायाधीश के पास ही रोस्टर बनाने का अधिकार है. जनवरी में चार वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश द्वारा विभिन्न खंडपीठों को सुनवाई के लिए मुकदमे आवंटित करने के तरीके पर सवाल उठाया था.

रोस्टर का संबंध न्यायालय की प्रशासनिक जिम्मेदारी से है तथा सर्वोच्च या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रशासनिक मुखिया होने के नाते मुकदमों का भी बंटवारा करते रहे हैं. यह एक ऐसा अधिकार है, जिसे कानूनी चुनौती नहीं दी जा सकती है.

सर्वोच्च न्यायालय में बंटवारे का मुद्दा तब विवादों के घेरे में आया, जब प्रधान न्यायाधीश के अवकाश पर रहने के दौरान वरिष्ठतम न्यायाधीश जस्ती चेलामेश्वर ने एक मामले को पांच वरिष्ठतम जजों की पीठ के हवाले कर दिया था. इस फैसले को प्रधान न्यायाधीश ने यह कहते हुए पलट दिया था कि रोस्टर का मास्टर होने के नाते सिर्फ वही मुकदमों का बंटवारा कर सकते हैं.

प्रधान न्यायाधीश के रोस्टर का मास्टर होने का मामला पारंपरिक है और यह वर्षों से चला आ रहा है, हालांकि यह भी एक मान्य तर्क है कि सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीश बराबर हैं और इसमें प्रधान न्यायाधीश का स्थान पहला है.

शांति भूषण ने अपनी याचिका में

निम्न राहतें मांगी हैं

मामलों की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय नियमावली, 2013 और अन्य स्थापित प्रक्रियाओं के अनुरूप हो.

न्यायालय के रजिस्ट्री अधिकारी मामलों के बंटवारे के बारे में वरिष्ठ जजों की सलाह भी लें, सिर्फ प्रधान न्यायाधीश की नहीं.

रोस्टर कॉलेजियम तय करे जिसमें पांच वरिष्ठतम जज होते हैं.

त्वरित सुनवाई के मामलों में समय तय हो, पर खंडपीठ नियमानुसार ही बने.

इस याचिका में अनेक ऐसे मामलों का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि प्रधान न्यायाधीश ने मनमाने तरीके से खंडपीठों को मुकदमे आवंटित किये. जानकारों का मानना है कि इस याचिका पर जो भी फैसला आये, उसके रोस्टर सिस्टम पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे.

न्यायपालिका पर कम होगा लोगों का भरोसा

ये हालात दुर्भाग्यपूर्ण है. सरकार का जस्टिस केएम जोसफ की नियुक्ति को रोकने के फैसले से देश में गलत संदेश जा रहा है. इससे संदेश जा रहा है कि जो सरकार के खिलाफ फैसला देगा, उसकी इसी तरह खिलाफत होगी.

इसका गहरा असर न्यायपालिका, खास तौर पर हाईकोर्ट के जजों पर पड़ेगा. यह मसला महज न्यायाधीश केएम जोसफ का ही नहीं है. यह मामला न्यायपालिका से जुड़ा है. कॉलेजियम ने दो नाम भेजे, एक क्लियर किया और दूसरा वापस भेजा.

सरकार का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश के खिलाफ है. कॉलेजियम इस पर क्या कदम उठायेगा कह नहीं सकते, लेकिन इससे लोगों में न्यायपालिका पर भरोसा कम होगा. न्यायपालिका लोकतंत्र का अहम स्तंभ है, यहां ऐसा होगा तो लोगों की न्यायपालिका को लेकर उम्मीदों का क्या होगा.

टीएस ठाकुर, पूर्व मुख्य न्यायाधीश

सरकार की राय होती है, वीटो नहीं

अंतिम फैसला कोलेजियम का होता है, न कि सरकार का. सरकार की राय होती है, लेकिन इसमें कोई वीटो नहीं है. यदि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम केएम जोसेफ की नियुक्ति पर सरकार की गलतफहमी स्वीकार नहीं करने का फैसला करता है, तो वह फैसला सरकार पर बाध्यकारी होगा. यह कानून है.

सोली सोराबजी, वरिष्ठ विधिवेत्ता और पूर्व अटॉर्नी जनरल

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