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आदिवासी स्त्री तथा आदिवासी संस्कृति के इतर स्त्री

II पार्वती तिर्की II भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य-पश्चिमी हिस्सा का स्त्री समाज का साम्राज्यवादी इतिहास कुछ ऐसा रहा है, जहां साम्राज्यवादी शक्तियों के टकराहट में पराजित राजा के राज्य के रानी के नेतृत्व मेें स्त्रियां विजित शक्ति की आजीवन गुलामी और यौन शोषण के शिकार से बचने के लिए तथा आत्म सम्मान रक्षा हेतु आत्मदाह […]

II पार्वती तिर्की II

भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य-पश्चिमी हिस्सा का स्त्री समाज का साम्राज्यवादी इतिहास कुछ ऐसा रहा है, जहां साम्राज्यवादी शक्तियों के टकराहट में पराजित राजा के राज्य के रानी के नेतृत्व मेें स्त्रियां विजित शक्ति की आजीवन गुलामी और यौन शोषण के शिकार से बचने के लिए तथा आत्म सम्मान रक्षा हेतु आत्मदाह करती थीं, खासकर क्षत्रिय स्त्रियों का इतिहास, जिसमें आत्मरक्षा का सम्मानीय विकल्प ‘जौहर’ माना गया था.

712 में मुहम्मद-बिन-कासिम के राजा दाहिर के सिंध राज्य पर हमले में राजा की हार के पश्चात् रानियोें व महिलाओं द्वारा कासिम के विरुद्ध युद्ध के अंतिम प्रयास के बाद भविष्य का विकल्प गुलामी न चुनते हुए जौहर किया था. मध्य भारत के रणथंभौर, चंदेली, चित्तौड़गढ़ आदि हिस्से के साम्राज्यवादी इतिहास स्त्रियों की जौहर गाथा का गौरवगान गाता है. जहां 14वीं-16वीं शताब्दी के मध्य आक्रमणकारी मुगल शासकों तथा राजपूत शासकों में हुए युद्धों में राजपूतों की हार के पश्चात् रानियों की नेतृत्वकारी भूमिका में अनेकों स्त्रियों का आत्मरक्षात्मक जौहर का इतिहास है. इन जौहर का जिक्र अमीर खुसरो की फारसी किताब में मिलती है.

जौहर संबंधी जिक्र जायसी कृत ‘पद्मावत’ महाकाव्य में मिलता है, जिसका आधार लेकर हाल ही में संजय लीला भंसाली की अपनी कल्पना आधारित ‘पदमावत’ फिल्म आयी थी. महाकाव्य तथा फिल्म के काल्पनिक व ऐतिहासिक तथ्यों के पचड़े पर न पड़ कर अगर स्त्री पक्ष पर ध्यान दिया जाये तो इतिहास, साहित्य, फिल्म में स्त्री जौहर आत्मरक्षात्मक सम्मानीय कार्य अपने आप में तथा उस समाज पर कुछ प्रश्न खड़े करती है.स्त्री के आत्म पर प्रश्न खड़े करती है.

स्त्री के कमजोर पक्ष का उद्घाटन करती है. चूंकि क्षत्रिय स्त्रियों के युद्ध कला में पारंगत होने के बावजूद आत्मरक्षा की तलवार पुरुषों के हाथों ही है. समाज में पुरुष आधारित स्त्री आत्म का चित्र खींचा गया है. ठीक इससे उलट भारत के काफी मजबूत और सशक्त स्त्री समाज से अनभिज्ञ हैं, जिस समाज में स्त्री के वीरगाथात्मक गीत अभी भी प्रचलित हैं, जिस स्त्री वीरता की याद में उन आदिवासी समाज में ‘जनी शिकार’ उत्सव का आयोजन किया जाता है.गीत कुछ इस प्रकार है :-

‘‘रोहिदस गढ़ेनू सिनगी दई रहचा, रोहिदस नू नमन बच्छा बाचा।’’

(रोहतास गढ़ में सिनगी दीदी थी, रोहतासगढ़ में हमें बचाया था)

वर्तमान बिहार स्थित रोहतासगढ़ कभी आदिवासी पूर्वजों का निवास स्थल हुआ करता था. आदिवासी राजा का प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आधारित शासन था.14वीं शताब्दी के प्रारंभ में रोहतास किले पर अफगान तुर्क पठानों की कुदृष्टि ने युद्ध का आह्वान किया था. जिस युद्ध में तुर्क सेना से आदिवासी स्त्रियों ने लोहा लिया था.

बारह वर्षों के अंतराल में हुए तीन युद्ध तत्कालीन राजा की पुत्री सिनगी दई, चंपू दई और कईली दई आदि कई वीरांगनाओं के नेतृत्व में लड़े गये. जिस युद्ध में तुर्क सेना की हार भी हुई.अंतिम छलपूर्वक जीत पर तुर्क सेना ने अपना झंडा रोहतास किले पर वर्ष 1538 में फहराया, फिर आदिवासी कुईल नदी तट होते छोटानागपुर प्रवेश किये.भारतीय उपमहाद्वीप के दो भिन्न संस्कृतियों पूर्व-पश्चिम का स्त्री समाज अलग-अलग पक्ष को उजागर करती है.

(लेखिका काशी हिंदू विश्वविद्यालय,वाराणसी के हिंदी विभाग में शोध छात्रा हैं)

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