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जान‍िए कैसे करें शुरू में ही पहचान, तो आसान होगा प्रोस्टेट कैंसर का उपचार

विशेषज्ञों के अनुसार प्रोस्टेट कैंसर कई कारणों से हो सकता है. वृद्धावस्था में इसके होने की संभावना अधिक देखी गयी है. दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इसके मरीजों की संख्या में भिन्नता पायी गयी है. जापान में इसके मरीज कम हैं, मध्य और पश्चिम अमेरिका में अपेक्षाकृत ज्यादा और उत्तरी अमेरिका और उत्तरी यूरोप में […]

विशेषज्ञों के अनुसार प्रोस्टेट कैंसर कई कारणों से हो सकता है. वृद्धावस्था में इसके होने की संभावना अधिक देखी गयी है. दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इसके मरीजों की संख्या में भिन्नता पायी गयी है.
जापान में इसके मरीज कम हैं, मध्य और पश्चिम अमेरिका में अपेक्षाकृत ज्यादा और उत्तरी अमेरिका और उत्तरी यूरोप में इसके मरीजों की संख्या काफी ज्यादा है. अनुवांशिक कारण और खाने-पीने की आदतें भी प्रोस्टेट कैंसर का कारण हो सकती हैं. पारिवारिक पृष्ठभूमि भी इस रोग के कारणों में एक प्रमुख कारक है. अगर किसी के पिता, चाचा या भाई को कैंसर है, तो ऐसे मामलों में रिक्स दो से ग्यारह गुना ज्यादा बना रहता है.
मोटे लोगों में प्रोस्टेट कैंसर होने की संभावना अधिक देखी गयी है. एशियाई देश जहां लोग वसायुक्त भोजन कम लेते हैं, उनमें इसके कम मामले देखने को मिलते हैं. नये अनुसंधानों के अनुसार लाइकोपिन, ऐलेनियम और विटामिन-ई युक्त पदार्थ लेने से कैंसर की संभावना कम हो जाती है. पके टमाटर में लाइकोपिन ज्यादा होता है, जो एंटी-ऑक्सीडेंट होने के कारण कैंसरस सेल के विकास को रोकते हैं. हालांकि अभी भी प्रोस्टेट कैंसर के होने का सही कारण पूरी तरह ज्ञात नहीं है.
प्रारंभिक लक्षण : शुरुआती अवस्था में इसके लक्षण पता नहीं चलते. कुछ लोगों में कुछ लक्षण, जैसे- मूत्र त्याग में अस्थिरता जैसे चीजों का पता चलता है. लेकिन ये लक्षण उनमें भी दिखते हैं, जिनके प्रोस्टेट ग्लैंड का आकार असामान्य रूप से बढ़ जाता है. प्रोस्टेट कैंसर होने पर पेशाब में खून आना और दर्द उठने जैसे लक्षण दिखाई देते हैं. यह समस्या तकलीफदेह तो होती ही है, लेकिन थोड़ी भी कोताही बरती जाये तो कैंसर में परिवर्तित होकर जानलेवा भी हो सकता है.
इसलिए समय रहते इसकी पहचान और चिकित्सा जरूरी है, क्योंकि प्रोस्टेट ग्रंथि जब ज्यादा बढ़ जाती है, तो कई बार वह मूत्र नली को बिल्कुल ही बंद कर देती है. इसकी वजह से बहुत देर तक पेशाब नहीं आता और पेशाब की थैली पूरी तरह से भर जाती है. इससे पेशाब के गुर्दों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. बहुत देर तक पेशाब न हो पाने की वजह से सिरदर्द, उल्टी आना, बेचैनी होना, सुस्ती आना जैसी शिकायतें भी सामने आ सकती हैं.
पीएसए टेस्ट है जरूरी : प्रारंभिक अवस्था में इसका निदान प्रोस्टेट स्पेसिफिक एंटीजन टेस्ट (पीएसए) को माप कर किया जाता है. यह सामान्य प्रोस्टेट ग्लैंड से ही बनता है. अधिकतर पीएसए वीर्य में ही होता है और बहुत थोड़ा ही भाग रक्त में प्रवेश करता है. अधिकतर पुरुषों में प्रत्येक मिली रक्त में पीएसए 4 नैनोग्राम से भी कम होता है. पीएसए प्रोस्टेट में बननेवाला प्रोटीन है, जिसकी जांच रक्त परीक्षण द्वारा होती है.
सामान्य जांच में डॉक्टर मलाशय द्वार से ऊंगली डालकर जांच करते हैं कि अंदर कोई ठोस गांठें तो नहीं बनीं. इसके अलावा डॉक्टर पुष्टि के लिए एमआरआइ व सीटी स्कैन आदि के लिए लिख सकते हैं.
किनको है अधिक खतरा
वैसे तो कैंसर का यह प्रकार 60 से अधिक उम्रवाले पुरुषों के प्रोस्टेट ग्रंथि में होने की संभावना अधिक होती है, मगर वर्तमान लाइफस्‍टाइल के कारण यह किसी भी उम्र में हो सकती है. जिन पुरुषों का पीएसए 2.5 से लेकर 4 के बीच में होता है, उनमें 20-25 प्रतिशत तक कैंसर होने का खतरा होता है.
लेकिन अगर यह स्तर 4 से अधिक और 10 से कम हो, तो ऐसे पुरुषों में 30 से 35 प्रतिशत तक प्रोस्टेट कैंसर होने का खतरा होता है और अगर यह दर 10 से अधिक हो जाये, तो कैंसर होने के आसार 67 प्रतिशत तक हो जाते हैं. यह दर पीएसए बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती रहती है.
शुरुआती लक्षणों को न करें नजरअंदाज
मूत्र त्याग में परेशानी, जलन
मूत्र या वीर्य में खून आना
पीठ, कूल्हों या श्रोणि में दर्द
अचानक वजन कम होना
टेस्टिकल्स में बदलाव आदि हो, तो पीएसए जांच कराएं.
एक अनुमान के मुताबिक पुरुषों में कैंसर से होनेवाली मृत्यु का कारण
31% फेफड़े के कैंसर
10% प्रोस्टेट कैंसर
8% कोलोरेक्टल
6% पैंक्रिएटिक
4% लिवर कैंसर
आधुनिकतम उपचार है आरएफए
डॉ प्रदीप मुले
हेड इंटरवेशनल रेडियोलॉजिस्ट
फोर्टिस हास्पिटल
वसंत कुंज, नयी दिल्ली
आरएफए (रेडियो फ्रीक्वेंसी एब्लेशन) प्रोस्टेट कैंसर का आधुनिकतम उपचार है. यह प्रक्रिया ट्यूमर को घटाकर उस आकार में ले आती है, जिसे बाद में सर्जरी करके आसानी से निकाला जा सके. इससे दर्द से आराम मिलता है और अन्य दुष्प्रभावों को भी कम किया जा सकता है.
कैंसर से ग्रस्त मरीजों के जीवन को बेहतर बनाया जा सकता है. आरएफए से केवल 4 सेमी के ट्यूमर का उपचार किया जा सकता है. बड़े ट्यूमरों के उपचार के लिए केमो एंबोलाइजेशन करके बाद में आरएफए किया जा सकता है. ये दोनों ही प्रक्रियाएं शल्य रहित हैं और इनमें मरीज को केवल एक दिन के लिए ही हॉस्पिटल में रुकना पड़ता है.
इस प्रक्रिया के दौरान एंबो लाइजेशन से ट्यूमर का आकार घटाया जा सकता है, जबकि आरएफए से कैंसर के सेलों को नष्ट किया जा सकता है. यह कैंसर सेलों को नष्ट करता है, जिससे किसी प्रकार के दुष्प्रभाव का खतरा नहीं रहता है, साथ ही कोई टॉक्सिक दुष्प्रभाव भी नहीं होता है. इसमें शल्य प्रक्रिया का कोई निशान नहीं पड़ता है. पर इस थेरेपी की मदद से ही लिवर कैंसर का उपचार किया जायेगा.

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