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पेरिस जलवायु समझौते से, अमेरिका के हटने से पर्यावरण बचाने की मुहिम को झटका

दिसंबर, 2015 में दुनिया के लगभग हर देश ने धरती को उत्तरोत्तर गर्म होते जाने से रोकने के लिए पेरिस जलवायु समझौते पर सहमति जतायी थी. इसमें अमेरिका भी शामिल था, लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को इस समझौते से बाहर कर लिया है. वैश्विक तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के खतरों से […]

दिसंबर, 2015 में दुनिया के लगभग हर देश ने धरती को उत्तरोत्तर गर्म होते जाने से रोकने के लिए पेरिस जलवायु समझौते पर सहमति जतायी थी. इसमें अमेरिका भी शामिल था, लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को इस समझौते से बाहर कर लिया है. वैश्विक तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने की कोशिशों के लिए यह फैसला एक बड़ा झटका है. ट्रंप के निर्णय के मायने और इसके असर को विश्लेषित करते हुए आज के इन-दिनों की प्रस्तुति…

डॉ गोपाल कृष्ण

लोकनीति विश्लेषक व संपादक, टॉक्सिकवॉच डॉटओआरजी

इक्की सवीं सदी का अत्यंत पर्यावरण विरोधी निर्णय लेकर विश्व के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति ने एक जून को यह घोषणा कर दी कि 2020 से लागू होनेवाले और जलवायु संकट से निबटने के लिए बने 195 देशों के अंतरराष्ट्रीय कानून- पेरिस समझौता, 2016 से उन्होंने अमेरिका को अलग कर लिया है. डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि ‘अमेरिकी व्यापारियों, मजदूरों, नागरिकों और करदाताओं के हित के शर्तों पर मोल भाव करने के बाद वे दोबारा इस समझौते या किसी बिल्कुल नये सौदे में शामिल हो सकते है. मगर, एक ऐसे समझौते के लिए वार्ता करेंगे, जिससे कि मुनासिब सौदा हो सके. यदि ऐसा होता है तो ठीक और अगर नहीं होता है तो भी ठीक है.’ उन्होंने ने अमेरिका को राष्ट्रहित में संयुक्त राष्ट्र की पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता कानून से बाहर कर लिया. इस तरह अमेरिका ने अपने राष्ट्रहित को बाकी 194 देशों के विरुद्ध कर लिया है. जर्मनी, फ्रांस और इटली ने असाधारण संयुक्त बयान जारी कर यह स्पष्ट कर दिया है कि पेरिस समझौता पर दोबारा वार्ता या मोल-भाव नहीं होगा.

गौरतलब है कि पेरिस समझौता अमेरिकी प्रभाव में गैर-बाध्यकारी और कमजोर बनाया गया है. ऐसा अमेरिका को साथ में लेने के लिए किया गया था. इस कानून के तहत एक ऐसी वैश्विक योजना बनायी गयी है, जिससे वैश्विक तापमान पूर्व औद्योगिक के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से कम की वृद्धि हो. पेरिस समझौता 4 नवंबर, 2016 से अंतरराष्ट्रीय कानून बन चुका है. असल में अमेरिकी कंपनियां अपना अदूरदर्शी औद्योगिक प्रभुत्व बनाये रखने के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के लिए कभी इच्छुक नहीं रही हैं. औद्योगिक क्रांति काल यानी 1780 से पहले वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड जैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा काफी कम थी. ट्रंप का यह रुख नया नहीं है. ऐसी ही तरकीब से क्योटो प्रोटोकॉल को कमजोर कर उसमें कार्बन व्यापार को समाधान के रूप में उनके द्वारा शामिल करवाया गया था. अन्य देश अमेरिका को क्योटो प्रोटोकॉल में शामिल रखने के लिए कानून को कमजोर करने के लिए तैयार हो गये थे. इसके बावजूद अमेरिका ने अपने को क्योटो प्रोटोकॉल से या कहते हुए बाहर कर लिया था कि अमेरिकी जीवन-शैली पर वार्ता नहीं हो सकती. पिछली बार ‘अमेरिकी जीवन-शैली’ की आड़ में निर्णय लिये गये थे, लेकिन इस बार ‘अमेरिकी व्यापारियों, मजदूरों, नागरिकों और करदाताओं के हित’ का हवाला देकर यह कदम उठाया गया है.

जलवायु समस्या और बाजार

अमेरिकी राष्ट्रपति के इस निर्णय ने जलवायु संकट के समाधान के लिए बने संबंधित अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार को एक बार फिर केंद्र में ला दिया है. ये कानून प्रति व्यक्ति होनेवाले उत्सर्जन और प्रदूषण को आधार नहीं बनाते हैं. बावजूद इसके कि जलवायु समस्या की जड़ में बाजार है, ये कानून बाजार पर ही निर्भर है. अभी तक बने सभी कानून असफल रहे है क्योंकि वे ‘राष्ट्र’ केंद्रित है और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नहीं है. जलवायु समस्या के जड़ में गैर बराबरी है, मगर ये कानून देशों के बीच और देश के अंदर बराबरी के उपाय नहीं करते. गौरतलब है कि सबसे पहले निकारागुआ ने अपने आपको अमेरिकी प्रभाव में बने पेरिस समझौता से अपने को यह कह कर अलग रखा कि जलवायु संकट से जूझने के लिए यह संधि नाकाफी है.

विकसित देशों की संवेदनशीलता!

असल में अमीर देशों, उनकी कंपनियों और दानदाताओं के बहकावे में भारत और अन्य देशों में यह बात अभी भी मीडिया की सुर्खियों से दूर है कि 2020 तक क्योटो प्रोटोकॉल ही एक मात्र जलवायु संबंधी अंतरराष्ट्रीय कानून है. पेरिस समझौता तो 2020 के बाद लागू होगा. क्योटो प्रोटोकॉल की प्रथम प्रतिबद्धता अवधि 2012 में समाप्त हो गयी, उसके बाद प्रोटोकॉल में द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि 2012-2020 तक के लिया दोहा में संशोधन किया गया. दोहा अमेंडमेंट टू क्योटो प्रोटोकॉल के कानून बनने के लिए 144 देशों की सहमति चाहिए, मगर अभी तक केवल 77 देशों ने इस पर सहमति प्रदान की है. इनमें से 37 देशों के लिए बाध्यकारी लक्ष्य है. गौरतलब है कि गैर-बाध्यकारी और कमजोर पेरिस समझौता के रहनुमा जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने अभी तक दोहा अमेंडमेंट पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं. इसके कारण एक मात्र जलवायु कानून ‘दोहा अमेंडमेंट टू क्योटो प्रोटोकॉल’ द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि के चार साल बीत जाने के बाद भी अभी तक लागू नहीं हो सका है. इससे जलवायु संकट के प्रति अमेरिका के अलावा अन्य विकसित देशों की संवेदनशीलता का पता चलता है. असल में क्योटो प्रोटोकॉल, 2005 और पेरिस समझौता दोनों यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज नामक मूल संधि (जो मार्च 1994 में अंतरराष्ट्रीय कानून बना) के संतान हैं.

जलवायु संधि और राष्ट्र की सीमाएं

पिछले दो शतक के दौरान पृथ्वी पर मानव इतिहास में ‘राष्ट्र’ संबंधित अवधारणा को समझे बिना पृथ्वी और इसके वायुमंडल के विनाश की प्रक्रिया को नहीं समझा जा सकता है. 18वीं शताब्दी में यूरोप के नक्शे को पहली बार राष्ट्रीयता के सिद्धांतों पर दोबारा बनाया गया, उसी के बाद नये आजाद हुए राष्ट्रों ने अपने आपको को इन्हीं सिद्धांतों के तहत गढ़ा है. जलवायु परिवर्तन और अन्य वातावरण संबंधी समस्या की जड़ में 18वीं शताब्दी में किये गये अदूरदर्शी ‘राष्ट्र’ की अवधारणा और औद्योगिक क्रांति के करतूत है. उद्योग और युद्ध उद्योग के गठजोड़ ने प्रकृति के शोषण के भयावह दूरगामी परिणाम को नजरअंदाज कर कंपनियों की मुनाफे की अंतहीन भूख को और हवा दी. प्रकृति के प्रति संवेदनशील सभ्यताओं को संगीनों के साये में उनके संसाधनों और विश्व दृष्टि को अपना गुलाम बना लिया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों और व्यापारों ने अधिकतर राष्ट्रों को अपने वश में कर लिया है. ऐसे में अमेरिकी सरकार और उसके सहयोगी देशों के इच्छा के विरुद्ध जून 2014 में संयुक्त राष्ट्र की ह्यूमन राइट्स काउंसिल ने एक ऐसे बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि का दूरगामी प्रस्ताव पारित हुआ, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों और व्यापारों पर लगाम लगा सके. इस संबंध में तीसरी और अगली बैठक अक्तूबर 2017 में तय है. सवाल यह है कि जो सरकार गैर-बाध्यकारी जलवायु संधि भी स्वीकार नहीं करती, वह बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय कानून के लिए कैसे तैयार होगी. यह सरकार आर्थिक वृद्धि के अपने मॉडल को कट्टरवादी फौजों की तरह बिना सवाल आज्ञाकारिता की तरकीब से थोप रही है, जिससे हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से, समुद्र के जल-स्तर के बढ़ने से, चक्रवातों से, नदियों के सूखने से, अनियमित बारिस से और जलवायु में अप्रत्याशित बदलाव से एक ऐसा वैश्विक सुरक्षा संकट पैदा हो रहा है, जो यथास्थितिवाद व युद्ध उद्योग को और बढ़ावा देगा. जलवायु संकट का ‘राष्ट्र’ की अवधारणा के तहत कोई समाधान नहीं हो सकता, क्योंकि पर्यावरण और वायुमंडल ‘राष्ट्र’ की सीमाओं की इज्जत नहीं करते.

अमेरिका की अवैज्ञानिक शुतुरमुर्गी नीति

जलवायु के संबंध में हो रही वार्ता में व्यक्तियों और वर्गों की जिम्मेवारी तय किये बिना कोई समाधान हो ही नहीं सकता. नैतिक रूप से राष्ट्रों को अपने मजदूरों, नागरिकों और करदाताओं के पीछे छिप कर कार्बन व्यापार और बाजार की पैरवी कर जलवायु संकट से नहीं निपटा जा सकता है. गैर-बाजारू तरीके से जलवायु संकट से निपटने के लिए कंपनियों और बहुराष्ट्रीय निगमों पर अनिवार्य टैक्स लगाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही समाधान निकलेगा. हैरतअंगेज बात यह कि जलवायु संकट काल में भी युद्ध उद्योग की जवाबदेही तय नहीं की जा रही है. इसी दौरान आज विश्व के अधिकतर देशों ने अक्षय ऊर्जा का नीतिगत लक्ष्य अपना लिये हैं. इस ऊर्जा के बाजार, निवेश, उद्योग और नीति क्षेत्र में हाल के वर्षों में परिवर्तन की रफ्तार बहुत तेज है. अक्षय ऊर्जा की कीमत निरंतर घट रही है. वह दिन दूर नहीं, जब उसकी कीमत पारंपरिक ऊर्जा के बराबर या उससे भी कम हो जायेगा. जलवायु संकट और खतरनाक परमाणु ऊर्जा आदि से निजात दिलाने में इस उर्जा की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. स्पष्ट है कि अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके सहयोगीयों ने प्रदूषण कारी उद्योगों के दबाव में अदूरदर्शी और अवैज्ञानिक शुतुरमुर्गी नीति अपना लिया है.

ट्रंप ने की समझौते से बाहर होने की घोषणा

-व्हाइट हाउस रोज गार्डेन में आयोजित एक समारोह में राष्ट्रपति डोनाल्ड ने अपेन चुनावी वादे को पूरा करते हुए पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के अलग होने की घोषणा कर दी. हालांकि, ट्रंप ने नयी समझौते या समझौते में नयी शर्तों के साथ सहमत होने की बात कही है. दुनिया के दूसरे सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक देश अमेरिका के समझौते से अलग होने के घोषणा के बाद समझौते को मानने वाले देशों की संख्या तीन हो गयी है. इससे पहले सीरिया और निकारागुआ पेरिस समझौते का हिस्सा नहीं थे.

ट्रंप ने क्यों किया फैसला

ट्रंप ने व्हाइट हाउस के बाहर इकट्ठा भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि पेरिस समझौते से अमेरिका को नुकसान हो रहा है और दुनिया के बड़े प्रदूषक देशों को इससे फायदा हो रहा है. उन्होंने कहा कि लॉबिंग करके लोग अमेरिकी को झुकाना चाहते हैं, जोकि उनके राष्ट्रपति रहते हुए संभव नहीं है. उन्होंने कहा कि वह पिट्सबर्ग के नागरिकों के प्रतिनिधि हैं, न कि पेरिस के. ट्रंप ने दावा किया कि समझौते की वजह से अमेरिकी जीडीपी को तीन ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होगा और 65 लाख नौकरिया छिन जायेंगी, जब कि भारत और चीन को इससे फायदा होगा.

पेरिस में बनी थी सहमति

जलवायु परिवर्तन या वैश्विक तापन उद्योगों और कृषि गतिविधियों से उत्सर्जित गैसों के घातक प्रभावों का नतीजा है. इसी वैश्विक चुनौती के मद्देनजर दुनियाभर के देश पेरिस में बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने के लिए सहमत हुए.

इन मुद्दों पर सहमत

< वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे लाते हुए औद्योगिकीकरण काल से पूर्व के स्तर पर लाना और किसी भी सूरत में तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना. अमेरिकी थिंक टैंक के अनुसार यदि पेरिस समझौते लागू करने में सफल होते हैं, तो वर्ष 2100 तक वैश्विक सतह पर तापमान बढ़ोतरी को 3.3 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है.

< ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को उस स्तर पर लाना, जिसे पेड़, मृदा और समुद्र प्राकृतिक ढंग से अवशोषित कर सकें.

< हर पांच वर्ष में प्रत्येक देश के प्रयासों की समीक्षा.

< जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिए समृद्ध देशों द्वारा गरीब देशों को ‘क्लाइमेट फाइनेंस’ की मदद की जाये, जिससे ये देश नवीकरणीय ऊर्जा का रुख कर सकें.

< 197 पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर किया था, जिसमें 147 देशों ने इसकी पुष्टि की थी.

सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक कौन

ट्रंप ने चीन और भारत को सबसे बड़ा कॉर्बन उत्सर्जक और अमेरिका को सबसे बड़ा पर्यावरण संरक्षक बताया है, जोकि तथ्यों के आधार पर बिल्कुल गलत है. वर्ष 2015 के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति अमेरिका का कॉर्बन उत्सर्जन चीन से दोगुना और भारत आठ गुना है. अमेरिका में प्रतिव्यक्ति औसत कॉर्बन उत्सर्जन 16.07 किलोटन, चीन में 7.73 किलोटन और भारत में 1.87 किलोटन दर्ज किया गया था. यूरोपियन कमीशन के एमिशन डाटाबेस फॉर ग्लोबल एटमॉस्फेरिक रिसर्च की 2015 के आंकड़ों के मुताबिक सकल कॉर्बन डाइ-ऑक्साइड उत्सर्जन के मामले चीन (आबादी अधिक होने की वजह से) पहले स्थान पर रहा. इसके बाद अमेरिका, यूरोपीय समूह और भारत का नंबर है.

भारत ने कहा पर्यावरण के लिए समर्पित

ट्रंप ने भले ही भारत और चीन पर निशाना साधते हुए पेरिस समझौते से अमेरिका का अलग कर लिया है, लेकिन भारत समेत समझौते में शामिल सभी देशों ने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की. रूस में इकोनॉमिक फोरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि पेरिस समझौते के प्रति भारत पूर्ण रूप से समर्पित है. उन्होंने वेदों का उल्लेख करते हुए कहा कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना अपराध है. उन्होंने कहा अपनी भावी पीढ़ी के हकों को छिनने का कोई अधिकार नहीं है.

यूरोपीय समूह ने ट्रंप के फैसले को किया दरकिनार

वैश्विक नेताओं, व्यावसायिकों और अमेरिकी स्टेट गवर्नर द्वारा ट्रंप के फैसले की आलोचना के बाद यूरोपीय समूह ने ऐतिहासिक समझौते को बरकरार रखने के लिए प्रतिबद्धता जतायी है. इयू ने ट्रंप द्वारा पुनर्विचार की शर्तों को दरकिनार कर अमेरिकी बिजनेस और स्टेट गवर्नर के साथ मिलकर काम करने की बात कही है. ट्रंप के फैसले की फेसबुक, एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट आलोचना कर चुके हैं.

ग्रीन क्लाइमेट फंड

ग्रीन क्लाइमेट फंड संयुक्त राष्ट्र का एक कार्यक्रम है, जिसके तहत औद्योगीकृत देशों से प्राप्त धन का विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों निपटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. ट्रंप ने कहा है कि फंड के तहत इकट्ठा धन कहां जा रहा है, किसी को पता नहीं है, जबकि फंड की वेबसाइट पर विभिन्न प्रोजेक्ट के लिए जारी की गयी धनराशि का विवरण उपलब्ध है. यूएनएफसीसीसी के लॉजिक के आधार पर ही पेरिस समझौते हुआ है, जिस पर ट्रंप अनर्गल सवाल खड़े कर रहे हैं.

तमाम देशों ने की कड़ी आलोचना

ऑस्टेलियाई प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल ने कहा कि ट्रंप का फैसला निराशाजनक है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं है. सबसे बड़े कॉर्बन उत्सर्जक देश चीन ने निराशा जाहिर करते हुए समझौते को जारी रखने पर बल दिया है.

ट्रंप का निर्णय जलवायु से अधिक अमेरिका के लिए नुकसानदेह

क्या पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को निकालने का राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का फैसला दुनिया को जलती तबाही की ओर धकेल सकता है? वैश्विक तापमान पर अंकुश लगाने के लिए दुनिया के बाकी देशों की असाधारण एकता और इसके साथ हरित अर्थव्यवस्था में वृद्धि, स्वच्छ ऊर्जा के खर्च में कमी जैसे कारक आश्वस्त होने के ठोस कारण हैं.

ट्रंप के इस निर्णय का सबसे संभावित नुकसान अमेरिकी अर्थव्यवस्था को हो सकता, जिसे बचाने का वे दावा कर रहे हैंः अन्वेषण, निवेश और व्यापार बनाने की अमेरिका की दक्षता को अब उसकी सरकार का समर्थन नहीं मिलेगा. मौजूदा सदी का नेतृत्व करने का सम्मान अब 20वीं सदी के जीवाश्म-आधारित अर्थव्यवस्था को फिर से बढ़ावा देने के बरबादी भरे प्रयास के लिए बलिदान किया जा सकता है.

ट्रंप चाहे ‘जितनी मर्जी, उतना कोयला’ खोद निकालें, वे कोयला से चलनेवाले ऊर्जा केंद्र बनाने के लिए कंपनियों को मजबूर नहीं कर सकते हैं, जब वायु और सौर ऊर्जा सस्ते हैं तथा कंपनियों के अधिकारी इतने समझदार हैं कि वे नये संयंत्र पर एक अरब डॉलर नहीं खर्च करना चाहेंगे, जिसे ट्रंप के बाद का राष्ट्रपति बंद कर देगा.

अब भी अमेरिकी राज्य और शहर स्वच्छ हवा, पानी और नागरिकों को जलवायु स्थायित्व देने के वादे के लिए हरित भविष्य के लिए प्रयास जारी रखेंगे. यह कोई छोटी बात नहीं है. कैलिफोर्निया और न्यूयॉर्क शहरों को जोड़ दें, तो वे दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं.

निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा है, और चीन से लेकर भारत, रूस और यूरोपीय संघ तक सभी सभ्यता के सामने आयी इस सबसे बड़ी चुनौती से जूझने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को दोहरा रहे हैं. सबसे महत्वपूर्ण चीन, दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक, है, जो हाल के वर्षों में जलवायु को नुकसान पहुंचानेवाले से जलवायु नेतृत्वकर्ता के रूप में परिवर्तित हो गया है.

क्या चीन के शब्दों पर भरोसा किया जा सकता है? इसका उत्तर है- हां, क्योंकि इसका निश्चय किसी हवा-हवाई सिद्धांत पर आधारित नहीं है, बल्कि अपनी बड़ी आबादी को वायु प्रदूषण तथा कार्बन उत्सर्जन से होनेवाले आसन्न जल और खाद्य संकट से बचाने की महती आवश्यकता पर आधारित है. साथ ही, चीन स्वच्छ ऊर्जा तकनीक की आपूर्ति के क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित करने जा रहा है.

लेकिन, अमेरिका का इस समझौते से निकलना शेष विश्व के लिए निःसंदेह खतरे की घंटी है. वैज्ञानिकों से चेतावनी दे दी है कि इस सदी के दूसरे आधे हिस्से में शून्य-उत्सर्जन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए कई संभावित रास्ते हैं ताकि गंभीर, व्यापक और स्थायी प्रभावों को दरकिनार किया जा सके. लेकिन, सबसे अच्छा यह है कि शुरूआत पहले से की जाए और 2020 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में गिरावट लायी जाए.

यदि अमेरिका में कार्बन उत्सर्जन कम न हो- और इसकी भरपाई दूसरों देशों द्वारा नहीं की जाए, तो प्रगति बाधित हो जायेगी तथा वैश्विक तापमान में एक या दो डिग्री के दसवें हिस्से की वृद्धि हो सकती है. यह सबसे प्रभावित देशों को समुद्र में डूबने के लिए मजबूर कर सकता है.

खराब ऊर्जा से बनी चीजों को निर्यातित करनेवाला बिगड़ैल अमेरिका दूसरे देशों को भी प्रतिस्पर्द्धा के मारे अपनी प्रतिबद्धताओं से मुंह मोड़ने के लिए उकसा सकता है. हालांकि अभी इसके आसार नहीं दिख रहे हैं. वैकल्पिक रूप से, अन्य देश अमेरिकी निर्यात पर बहुत अधिक कार्बन टैक्स लगा कर उसे दंडित कर सकते हैं. लेकिन इससे बदले की भावना भी भड़क सकती है जिसके परिणाम अनिश्चित होंगे.

अमेरिका जलवायु-संबंधी सहायता कार्यक्रमों के सबसे बड़े धनदाताओं में से है. इन कार्यक्रमों से विकासशील देशों को भरोसे में लेने में बहुत मदद मिली है, जो मानते हैं कि जलवायु तापमान का संकट औद्योगिक देशों ने उन पर थोपा है. धनी देशों द्वारा इस प्रक्रिया में अरबों और देने की जरूरत है.

लेकिन पेरिस में जो महत्वपूर्ण चीज हासिल की गयी- 196 देशों द्वारा मिल-जुल कर जलवायु परिवर्तन की समस्या का सामना करने का सर्वसम्मति से किया गया समझौता- वह एक ठोस नींव है. वैश्विक तापमान की समस्या पर काबू पाने में सालों नहीं, बल्कि दशकों लगेंगे.

जर्मनी के पर्यावरण मंत्री बारबरा हेंड्रिक्स ने गुरुवार को कहा कि ‘अमेरिका के बिना वैश्विक जलवायु सिर्फ आठ साल तक ही बचा रह सकेगा.’ लेकिन, आशावाद के अच्छे कारणों के बावजूद, ट्रंप प्रशासन का एकबार का कार्यकाल दुनिया के लिए अधिक सुरक्षित होगा.

(द गार्डियन से साभार)

डेमियन कार्रिंगटोन पर्यावरण संपादक, द गार्डियन

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