पुष्यमित्र
अजय देवगन की पहली फिल्म ‘फूल और कांटे’ में मुंबई के डॉन का सबसे विश्वस्त सहयोगी उसके पोते का अपरहण कर लेता है, क्योंकि डॉन अपने बेटे को, जिसे अंडरवर्ल्ड के बारे में कुछ नहीं पता, को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता है. इस फिल्म की कहानी कमोबेश देश की हर दूसरी पार्टी का सच है. हर बड़ा नेता अपना उत्तराधिकार बेटे को सौंपना चाह रहा है. पार्टी को खून से सींचनेवाला कार्यकर्ता, जो परिवार का नहीं है, किसी और पार्टी में जाने को विवश हो गया है.
कभी देश में परिवारवाद या वंशवाद का जिक्र होता था, तो बात गांधी-नेहरू परिवार की होती थी. मगर पिछले कुछ सालों में हालात ऐसे बदले कि तकरीबन हर दूसरी पार्टी फैमिली प्राइवेट लिमिटेड पार्टी में तब्दील हो गयी हैं. पार्टी के अहम पदों पर परिवार के लोग बैठे हैं. मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, करुणानिधि की द्रमुक, बाल ठाकरे की शिव सेना, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, अकाली दल, लालू की राजद, रामविलास पासवान की लोजपा, अजित सिंह की रालोद, शिबू सोरेन की झामुमो, चौटाला परिवार की हरियाणा विकास पार्टी, नवीन पटनायक की बीजद समेत ऐसी कई पार्टियां हैं, जिनकी व्यवस्था इसी र्ढे पर चलती है. यहां लोकतंत्र सिर्फ नाम का है, परिवार से बाहर के लोग एक सीमा तक ही आगे बढ़ने की उम्मीद कर सकते हैं.
परिवार : 34% आरक्षण
एक रिपोर्ट के अनुसार, मौजूदा 33.94% सांसदों का परिवार राजनीति से जुड़ा रहा है. एनसीपी के नौ में आठ सांसद राजनीतिक परिवारों से हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस में तीन में दो राजनीतिक परिवार से आते हैं. अकाली दल के चार में दो, बीजू जनता दल के 14 में छह सांसद को राजनीति विरासत में मिली. अजीत सिंह की रालोद के सभी पांच सांसद, कांग्रेस के 208 में 86 सांसदों की राजनीतिक पृष्ठभूमि है. भाजपा के 115 में 28 राजनीतिक परिवारों से जुड़े हैं. बहुजन समाज पार्टी की मायावती का परिवार नहीं है. फिर भी 22 में नौ सांसद राजनीतिक परिवार से हैं. सीपीआइ के 17 में चार सांसद किसी न किसी परिवार से आते हैं.