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राजनीतिक नीतियों में शामिल हों बच्चे
राजनीति और मुख्यधारा के विकास की बहस में बच्चों को कोई जगह नहीं मिलती कोमल गनोत्रा, निदेशक, पॉलिसी, रिसर्च एंड एडवोकेसी, चाइल्ड राइट्स एंड यू परिवार के लोग भी बच्चों की शिक्षा के लिए उतना सक्रिय नहीं रहते, बल्कि स्कूल के हवाले छोड़ देते हैं, जबकि उनके लिए टीवी और दूसरी चीजों का इंतजाम फौरन […]
राजनीति और मुख्यधारा के विकास की बहस में बच्चों को कोई जगह नहीं मिलती
कोमल गनोत्रा,
निदेशक, पॉलिसी, रिसर्च एंड एडवोकेसी, चाइल्ड राइट्स एंड यू
परिवार के लोग भी बच्चों की शिक्षा के लिए उतना सक्रिय नहीं रहते, बल्कि स्कूल के हवाले छोड़ देते हैं, जबकि उनके लिए टीवी और दूसरी चीजों का इंतजाम फौरन हो जाता है. इस माइंडसेट को बदलने की जरूरत है. पढ़िए इस शृंखला कीदूसरी कड़ी.
देश की नीतियों का हमारी राजनीति ही निर्धारण करती है और वही यह तय करती है. उसने हर क्षेत्र में नीतियां बना रखी हैं, लेकिन बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए आज भी उसके पास कोई नीति नहीं है. मुख्यधारा की राजनीति और मुख्यधारा के विकास की बहस में बच्चों को कोई जगह मिली ही नहीं है. सारी राजनीति सड़क-परिवहन, इन्फ्रास्ट्रक्चर, रियल एस्टेट, कृषि, अर्थव्यवस्था आिद पर ही फोकस है और बच्चों को सिर्फ मां-बाप के हवाले छोड़ दिया गया है.
बच्चों के लिए कुछ किया भी जाता है, तो उसे छोटे-छोटे कानूनों में बांट दिया गया है. बच्चों को लेकर सरकार के पास एक सर्वांगीण सोच का अभाव है, और न ही हमारी राजनीतिक बहसों में यह चीज है. यही हाल परिवारों का भी है.
हमने परिवारों में बच्चों पर काम करके देखा है कि परिवार के लोग भी बच्चों की शिक्षा के लिए उतना सक्रिय नहीं रहते, बल्कि स्कूल के हवाले छोड़ देते हैं, जबकि उनके लिए टीवी और दूसरी चीजों का इंतजाम फौरन हो जाता है. इस माइंडसेट को बदलने की जरूरत है और राजनीति की मुख्यधारा की बहस में बच्चों को शामिल करने की जरूरत है, ताकि उनके सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी तथ्यों पर बहस हो सके और बेहतर से बेहतर रास्ता निकल सके. बच्चों के संदर्भ में ऊपर के स्तर पर हमारी निष्क्रियता नीचे के स्तरों को भी प्रभावित करती है. इसलिए बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैं और उनका सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है.
हमने बच्चों को लेकर कई कानून तो बनाये हैं, लेकिन उन कानूनों की जवाबदेही कहीं दिख नहीं रही है. मसलन, बालश्रम कानून को ही लें. अगर जीडीपी ग्रोथ कम होता है, तो पूरा मीडिया और सरकारें चिंता व्यक्त करने लगती हैं, लेकिन बाल मजदूरी के कम होने का आंकड़ा बहुत कम होने के बावजूद भी हम चिंतित नहीं होते. जो बच्चे हमारा भविष्य बनते हैं, उनके बारे में हमारी इतनी निश्चिंतता अच्छी बात नहीं है. कितने साल से हम जैसे लोग यह कह रहे हैं कि मारने-डराने का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. लेकिन, आज भी देश के कई क्षेत्रों में स्कूलों में या घरों में उनको मारना-डराना जारी है. यह प्रवृत्ति उन्हें ज्यादा हिंसक बनाती है, बजाय इसके कि वे आधुनिक तकनीकों की जद में आकर उनसे हिंसक सीख ले रहे हों.
सालों पहले यह सर्कुलर जारी हुआ था कि स्कूलाें में बच्चों को मारना मना है, लेकिन वहां उन्हें मारा भी जाता है और उनका यौन शोषण भी होता है. इसलिए भी बच्चे स्कूल छोड़ कर भाग जाते हैं और इस तरह के दर्द से गुजरे हुए बच्चों में हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है, क्योंकि उनके अंदर नफरत पलने लगती है. अगर राजनीतिक बहसों में ये सारी चीजें शामिल हो जायें, तो इसका हल भी निकलेगा.
अगर आप गौर करें, तो चुनावी घोषणापत्रों में क्या कहीं कुछ बच्चों के लिए भी होता है? शायद ही होता हो. ऐसा इसलिए, क्योंकि बच्चे वोटबैंक नहीं है. लेकिन, बच्चों के मां-बाप तो वोटबैंक हैं न? कम-से-कम उनके अंदर तो एेसी जागरूकता आनी ही चाहिए कि हमारी राजनीतिक बहसों में बच्चाें के मसले और उनके बुनियादी अधिकारों को देने के विषय में बातें रखी जायें. पार्टियां तो बिजली-पानी-सड़क अौर इन्फ्रास्ट्रक्चर के मसलों से ही अपने घोषणापत्र भर देती हैं.
बच्चों की शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए जितना बजट 2012-13 में हुआ करता था, उतना ही आज भी है. अस्सी के दशक में कोठारी आयोग ने कहा था कि जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा के लिए दिया जाना चाहिए. लेकिन, करीब तीस साल हो गये, आज तक हम शिक्षा पर इतना खर्च नहीं कर पाये. हमारी सरकारों की राजनीतिक अदूरदर्शिता है और उनकी असफलता का दंश है कि आज बच्चों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है. आज की तारीख में हमारी सरकार ने नेशनल प्लान ऑफ एक्शन फाॅर चिल्ड्रेन बनाया है और वह भी यही बात कह रहा है कि बच्चों की शिक्षा पर बजट बढ़ाने की जरूरत है. जो तीस साल पहले बात होती थी, वही आज भी हो रही है.
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