।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
कहते हैं कि राजनेताओं का असली चेहरा-चरित्र देखना-समझना हो, तो चुनाव के वक्त का इंतजार कीजिए. यही वह समय है, जब नेताओं का सारा राज खुल कर सामने आता है. कुछ तो वे खुद खोलते हैं, बाकी उनके विपक्षी. आज इस दल में, कल किस दल में, वह खुद भी नहीं जानते. आज जिस दल या नेता को पानी पी-पी कर कोसते हैं, कल उसी की जय-जयकार करते हैं. पहले आइए, रामकृपाल यादव पर.
हाल तक राजद के खांटी नेता थे. लालू प्रसाद के दाहिने हाथ. अभी तक भाजपा की नीतियों के खिलाफ रहे. नरेंद्र मोदी का विरोध किया. जब राजद नेता ने पुत्री मोह (लालू का) में उनका टिकट काटा, तो राजद छोड़ दिया. चले गये भाजपा में. अब भाजपा-मोदी जिंदाबाद का नारा लगा रहे हैं. दूसरा नाम है, रामविलास पासवान का. गुजरात दंगा के बाद मोदी पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा कर सबसे ज्यादा पासवान ही बरसे. एनडीए तक छोड़ दिया. जब मोदी की लहर दिखी, लगा कि मोदी का दिन आनेवाला है, आ गये भाजपा के साथ. इसे कहते हैं स्वार्थ की राजनीति. फायदे की राजनीति.
यह सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है. झारखंड तो दो कदम आगे निकल चुका है. ऐसे नेताओं की भरमार है, जो रातो-रात पासा पलट रहे हैं. दो-दो नावों पर पैर रखने में कभी पीछे नहीं रहे. चंद्रशेखर दुबे उर्फ ददई दुबे अपने को कांग्रेस का पक्का सिपाही कहते थे. 40 साल से कांग्रेस में थे. जब कैबिनेट से बाहर किया गया, कांग्रेस ने साथ नहीं दिया और उनका टिकट काट दिया, तो वही ददई दुबे के लिए कांग्रेस सबसे बुरी हो गयी. थाम लिया तृणमूल कांग्रेस का दामन. जब तक कांग्रेस में थे, कांग्रेस अच्छी थी, टिकट काटा, तो अब बुरी हो गयी. हेमलाल मुरमू झारखंड मुक्ति मोरचा के कद्दावर नेता रहे हैं. पूरा जीवन शिबू सोरेन के साथ गुजारा. आंदोलन में साथ रहे, लेकिन जब टिकट नहीं मिला, तो पार्टी छोड़ दी. चले गये भाजपा में. एक और कांग्रेसी हैं, नियेल तिर्की. जब तक खूंटी सीट के लिए टिकट की घोषणा नहीं की गयी थी, वे पक्के कांग्रेसी थे. कांग्रेस के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकते थे. जैसे ही खूंटी से उनका टिकट कटा, कांग्रेस पर बरस पड़े. श़ामिल हो गये आजसू में. कामेश्वर बैठा तो झामुमो से सांसद हैं. लगा कि झामुमो उन्हें टिकट नहीं दे सकता, तो झामुमो छोड़ दिया. भाजपा में जाने की जुगाड़ बैठाने लगे. कहने लगे कि मोदी ही देश को आगे ले जा सकते हैं. जब भाजपा में बात नहीं बनी, तो चले गये तृणमूल कांग्रेस में. रातो-रात बयान बदल गया. अब नया सुर-ताल है – भगवान ने सापं्रदायिकता की आग में झुलसने से बचा लिया.
ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं. ऐसे नेताओं के एक सप्ताह के बयान को पढ़ लीजिए. पता चल जायेगा, इनका मूल चरित्र क्या है? दलीय निष्ठा ऐसे नेताओं के लिए महत्व नहीं रखता. जिस दल में जाते हैं, उनकी नीतियों से प्रभावित होकर नहीं, हवा देख कर या जहां ठिकाना मिल सके. अजीब संयोग है कि झारखंड में बाघ और बकरी (मुहावरा के रूप में लिया जाना चाहिए) एक ही घाट (यहां घाट का अर्थ दल) पर पानी पीने के लिए जमा होते हैं. डोमेसाइल के कट्टर समर्थक बंधु तिर्की और डोमेसाइल के कट्टर विरोधी ददई दुबे अब साथ-साथ यानी तृणमूल कांग्रेस में हैं. एक ही मंच पर दिखेंगे. कहां गयी ऐसे नेताओं की आइडियोलॉजी.
मूल्यविहीन राजनीति के ये चंद उदाहरण हैं. सत्ता लोभ के आगे नेताओं को कुछ नहीं दिखता. हर हाल में राजनेताओं को टिकट चाहिए. नहीं मिला तो जिस दल में थे, वे दल खराब हो गये. अगर दल-नेता खराब होते, तो पहले हट जाना चाहिए था. किसी ने ऐसा नहीं किया. अंतिम क्षण तक इंतजार करते हैं. मन की बात मान ली गयी, तो सबसे अच्छा, वरना उससे बुरा कोई नहीं. राजनीति का यह चेहरा जनता के सामने आ चुका है. सबसे ताज्जुब की बात यह है कि बदले चेहरे के साथ दल-बदलू नेताओं को जनता के बीच जाने में शर्म भी नहीं आती. फंस जाते हैं बेचारे कार्यकर्ता. कल तक जिसके खिलाफ आवाज उठाते थे, आज टिकट मिलने के बाद उसी के पीछे-पीछे, उसी के लिए घुमना होगा.
कार्यकर्ताओं के आत्मसम्मान पर यह चोट है, पर वे बेबस हैं, कुछ कर नहीं सकते. लगभग हर दल में ऐसी ही स्थिति है. ऐसी बात नहीं है कि जो नेता दल बदल रहे हैं, दोष सिर्फ उनका है. वफादारी एक तरफ से नहीं होती. दलों के शीर्ष नेताओं में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो वफादार और पुराने हैं. दूसरे दलों से आये नेताओं को तरजीह देने से नाराजगी और विद्रोह पनपा है. कमोवेश यह सभी दलों में होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि दल-नेता किसी कीमत पर चुनाव जीतना चाहते हैं. नैतिक-अनैतिक के बीच का फर्क खत्म कर देते हैं. बेहतर है, जनता नेताओं के असली चेहरे को पहचाने. अगर यही नेता (दल बदलनेवाले) जनता के किसी मुद्दे को लेकर चुनाव आने से पहले इस्तीफा दिये होते, दल छोड़ दिया होता, तो उनका कद बड़ा होता. जनता की नजर में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती. टिकट नहीं मिलने से या लोभ में दल छोड़नेवालों को वह सम्मान कतई नहीं मिल सकता. यह स्वार्थ की राजनीति है.