।। दक्षा वैदकर ।।
आज हर कंपनी में बड़ी संख्या में युवा काम करते दिख रहे हैं. उनमें जोश, तेजी, रचनात्मकता सब कुछ हैं. जिस चीज की कमी है, वह है ‘जल्दी गुस्सा आना, धैर्य व सहनशक्ति की कमी’. ऐसा सिर्फ आज के युवाओं के साथ नहीं है, बल्कि यह सालों से चला आ रहा है. गरम खून उन्हें तुरंत प्रतिक्रिया देने के लिए उकसाता है.
दरअसल, आज ऑफिस में हुई एक घटना ने मुझे अपने शुरुआती दिन याद दिला दिये. यह उन दिनों की बात है जब मैं पत्रकारिता में नयी-नयी आयी थी. मैंने एक नाटक का कवरेज किया और अपनी पूरी क्रिएटिविटी लगा कर उसे लिखा. मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि यह आज तक का मेरा बेस्ट कवरेज है. लेकिन जैसे ही वह रिपोर्ट पेज पर पहुंची, खबरों को संपादित करनेवाले सब-एडिटर ने उसके कुछ पैराग्राफ संपादित करते हुए हटा दिये. मैं यह देख कर हक्की-बक्की रह गयी.
वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि इस तरह से खबर नहीं लिखी जाती. मैं अपनी मूल कॉपी ले कर संपादक के पास जा पहुंची. उन्हें कॉपी दिखा कर बताया कि मेरे साथ ऐसा किया गया. उन्होंने सब-एडिटर को बुलाया और बात की. संपादक के सामने ही सब-एडिटर के साथ मेरी बहस हो गयी. बस फिर क्या था, संपादक ने तुरंत कह दिया कि इस तरह के युवाओं की हमें जरूरत नहीं, जो सीनियर्स से बात करना नहीं जानते. मैंने भी गुस्से में जवाब दिया कि मुझे भी ऐसी जगह काम करने का कोई शौक नहीं. बैग उठा कर मैं घर चली आयी.
जब दिमाग शांत हुआ और उस घटना का मैंने विश्लेषण किया, तो पाया कि मुझे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी. गुस्से पर काबू रखना चाहिए था. अपनी बात शांत तरीके से भी रखी जा सकती थी. मैंने संपादक जी से मुलाकात की. उन्होंने हंसते हुआ कहा, ‘गुस्से को हटा दो, तो तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. इस्तीफा जैसे निर्णय शांत दिमाग में, कई दिन सोचने के बाद लेने चाहिए. वरना हाथ में सिर्फ पछतावा आता है.’ आज भी जब गुस्सा आता है, तो मैं तुरंत रिएक्ट करने के पहले कुछ घंटे खुद को अकेला रहने देती हूं. घंटों बाद उस परिस्थिति को समझ पाती हूं कि गलती किसकी है.
बात पते की..
– डांट सुनने की आदत डालें. अगर आपने गलती नहीं भी की हो, तो उस वक्त चुपचाप डांट सुन लें और बाद में शांत तरीके से अपनी बात रखें.
– कोई भी निर्णय गुस्से व जल्दबाजी में न लें. ऐसी परिस्थिति में लिये गये निर्णय बाद में केवल पछतावा देते हैं. खुद को सहनशील बनायें.