।। शीतला सिंह ।।
विभिन्न दल, गुट, समुदाय चुनावी तैयारियों में जुट गये हैं. संचार माध्यमों में सबसे अग्रणी बताये जा रहे नरेंद्र मोदी की पार्टी ने नौकरशाहों से राजनीतिक दलों, नये-पुराने समर्थकों को अपने साथ लाने में लगे हैं. राहुल गांधी की असफलता, दिशाहीनता से उपजी बेचारगी का मोदी को लाभ मिल रहा है. गांधी न अपने संगठन को खड़ा कर पा रहे हैं, न जनता में विश्वास भर पा रहे हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी 2009 से बेहतर कुछ कर पायेगी, ऐसा लगता नहीं है. पांच वर्ष की केंद्र की कार्य पद्घति, असफलताएं, खामियां और तमाम घोटालों के कारण लोगों में जो निराशा है, का मोदी भरपूर लाभ उठाना चाहते हैं.
अब प्रश्न उठता है कि भाजपा के साथ जानेवाले हैं कौन? वे वही लोग हैं, जिनका कभी भाजपा से नाता था, वैचारिक दृष्टि से उसके साथ थे. इस रूप में भारत के भूतपूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह, जो उम्र विवाद में फंसे थे. सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे थे. बाद में कदम पीछे खींच लिये. बीच में अन्ना समर्थक बने. लेकिन हरियाणा में नरेंद्र मोदी के साथ रिटायर्ड सैनिकों की सभा में शामिल हुए. अब औपचारिक रूप से भाजपा में शामिल हो गये हैं. बिहार में वर्ष 1990 में अडवाणी को गिरफ्तार करानेवाले तत्कालीन डीएम आरके सिंह केंद्रीय गृह सचिव पद से मुक्त हुए, तो भाजपा के साथ हो लिये. इसी प्रकार मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह सेवा से त्याग पत्र देकर बागपत से राजनीतिक पारी शुरू करना चाहते हैं.
राजनीति में कौन, कब, किधर जायेगा, यह इस बात पर निर्भर है कि वह अपनी घोषित नीतियों, विचारों और कार्यक्रमों के प्रति कितना वफादार है. सत्ता के लिए विचार बदलने में भी उसे गुरेज नहीं होता. इस रूप में एनडीए यानी अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट में रेल मंत्री रहे रामविलास पासवान फिर मोदी के साथ हैं. इसके पहले वे लालू और कांग्रेस के साथ थे. इसी तरह करुणानिधि एनडीए में शामिल होने की भूमिका बना रहे हैं. मोदी को अपना गहरा मित्र बता रहे हैं. तमिलनाडु में निर्णायक तत्व है कि करुणानिधि और जयललिता साथ नहीं रह सकते. सो, जब जयललिता वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनवा रही थीं, तब करुणानिधि धर्मनिरपेक्ष बने बैठे थे. अटल का विरोध कर रहे थे. जब अम्मा भाजपा से अलग हुईं, करुणानिधि को उससे कोई परहेज नहीं रहा.
अब प्रश्न उठता है कि आज अन्ना हजारे अपने को ममता से जोड़ रहे हैं, जो कभी राजनीति को गंदा बताते थे और नया दल गठित करने के लिए अरविंद केजरीवाल का विरोध करते थे. यदि अन्ना का इतिहास देखें, तो वे कभी कांग्रेस या संयुक्त प्रगतिशील मोरचा के साथ नहीं रहे. जब उन पर यह आरोप लग रहा था कि वे सदैव भाजपा के सहयोगी रहे हैं, तो उन्होंने सफाई दी थी कि एक बार भाजपा सरकार के खिलाफ अनशन किया था. क्या इसे निर्णायक माना जाय? यह अनशन क्या उन्हें किसी दूसरी दिशा में ले गया था. इस रूप में ममता बनर्जी दो बार एनडीए के साथ और उसकी सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुकी हैं. एक बार विधानसभा चुनाव में सीएम पद की दावेदार बनीं, तो एनडीए में थीं. कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं, तो उससे संबंध तोड़ लिये. उनके मुख्य शत्रु वामपंथी हैं. इसलिए अन्ना उनके साथ लग रहे हैं, ताकि भविष्य में भाजपा की मदद के लिए साथ खड़े हो सकें.
इसी प्रकार, कई अन्य छोटे नेता अपनी पार्टियां छोड़ भाजपा में शामिल होना चाहते हैं. ऐसे ही नेता हैं चंद्रबाबू नायडू. उन्हें तेलंगाना गठन और सीमांध्र की राजनीति में भाजपा का साथ देने में कठिनाई नहीं है. वे पहले भी राजग के ही सहयोगी रहे हैं. भले चुनावी घोषणाएं सांप्रदायिकता से भिड़ने की रही हो. कैसरगंज से सपा सांसद बृजभूषण, मूल रूप से भाजपा की उपज हैं. गोंडा तथा बलरामपुर से उसी के टिकट से चुनाव लड़े थे. एक बार उनकी पत्नी भी भाजपा के टिकट पर संसद पहुंची थीं. उन पर अपराधियों से संबंध के आरोप थे. बाबरी मसजिद विध्वंसकांड के अभियुक्त भी हैं.
डुमरियागंज से कांग्रेस सांसद जगदंबिका पाल भी भाजपा से दोस्ती गांठ रहे हैं. लेकिन कैसे भूला जाये कि कांगे्रस पार्टी तोड़कर भाजपा की मदद के लिए अलग दल बना लिया था और मंत्री बन गये थे. अब उन्हें फिर भाजपा पसंद आ रही है. यूपी के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह के बेटे भी भाजपा में जा रहे हैं. वे भी परिवार सहित भाजपा के सहयोगी रहे हैं. अखबारों में खबर थी कि किरन बेदी भी राजनीति में आने की उत्सुक हैं. जब दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल को बहुमत मिला, तो यह उन्हीं का सुझाव था कि केजरीवाल को भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनानी चाहिए. वैचारिक झुकाव किधर था, समझा जा सकता है. राजनीति में संन्यासी नहीं, सबसे अधिक वे लोग आते हैं जिन्हें सत्ता सुख और लाभ चाहिए. इसलिए विभिन्न कालों में राजनीति के लिए बेटे ने बाप को कैद किया, भाई ने भाई की हत्या की. औरंगजेब और बिंदुसार इसके उदाहरण हैं. राजनीति में आखिर हिटलर भी तो समाजवाद का नाम लेकर ही लड़ा था और चुनाव जीतने के बाद फासिस्ट बना था.
अब मूल प्रश्न है कि जो कुछ सुनाई-दिखाई पड़ रहा है या जो हो रहा है उसमें नया क्या है? यही कारण तो है कि राम मंदिर और धारा 370 का प्रश्न अटल ने भी ठंडे बस्ते में डाल दिया था. इस चुनाव में भी यह मुद्दा गौण है. उल्टे राजनाथ सिंह अपनी पुरानी गलतियों के लिए मुसलमानों से माफी मांगने को तैयार हैं.
मीडिया की भूमिका बदली
भूमंडलीकरण के युग में जब पूंजी का वर्चस्व स्थापित हो चुका है, सत्ता के लिए भी इसका भरपूर उपयोग हो रहा है. यही वजह है कि मीडिया तथ्यों के विपरीत जनता को भ्रमित करने का प्रयास कर रहा है. विचार स्वतंत्रता व्यक्ति का अधिकार है, लेकिन वह दिशा वाहक भी है कि किस विचार का व्यक्ति कैसे भावी समाज का निर्माण करना चाहता है. महाभारत काल में जिसे शल्यवाद कहते हैं, में भी यही था कि अपने को संबद्ध न बताते हुए उसके विपरीत यह निरंतर कहते रहो कि आप नहीं आपका विरोधी ही जीतने जा रहा है. इसलिए इस लड़ाई में इस मूल तत्व को नहीं भूला जा सकता कि कौन किस ओर होगा. वह मूल मुद्दे पर उसके विचार हैं और वह क्या चाहता है. संवाद माध्यमों और राजनीतिक दलों की पहचान तो 1990 और 92 में अयोध्या मामले में भी हो चुकी है, जब पुराने राजनीतिक घरौंदे टूटे थे और लोग असली शक्ल में दिखाई पड़ने लगे थे. लेकिन, परिणाम तो जनता के हाथ में है. क्या हम 1977 के अनुभवों को, जिसकी किसी ने घोषणा नहीं की थी, भूल गये?