-रहीस सिंह-
(विदेश मामलों के जानकार)
स्विट्जरलैंड की नैसर्गिकता और रहने-बसने लायक दशाओं के व्यापक तौर अनुकूल होने और अर्थव्यवस्था के हालात अच्छे होने की वजह से यूरोप समेत दुनियाभर के देशों के लोगों की यहां रहने-बसने की चाहत बढ़ती जा रही है. यूरोप के कामगारों को यहां आवाजाही में आसानी होती है, जिसके चलते यहां के लोगों को कुछ हद तक दिक्कतें हो रही हैं. इस पर पाबंदी लगाने के मकसद से हाल ही में जनमत संग्रह किया गया है. इस जनमत संग्रह के क्या मायने और निहितार्थ हो सकते हैं, इसे ही बताने की कोशिश की गयी है आज के नॉलेज में..
वैश्वीकरण के शुरुआती प्रचार में इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया था कि आने वाले समय में दुनिया की वास्तविक भौगोलिक सीमाएं अर्थव्यवस्था या बाजार की आभासी सीमाओं द्वारा आच्छादित हो जायेंगी. इसका प्रभाव दिखना भी शुरू हुआ था जब आवारा पूंजी और वस्तुएं एशिया से लेकर अफ्रीका तक के देशों में अपना प्रभाव छोड़ते हुए देखी गयीं. इसके बाद आर्थिक मंचों एवं बाजारों के निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ. यूरोपियन यूनियन को इसके बेहतर उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है, जिसका अनुसरण करते हुए दुनिया के कई हिस्सों में तमाम साझा आर्थिक मंच, साझा बाजार आदि निर्मित हुए और कमोबेश यह प्रक्रिया अभी भी जारी है. लेकिन क्या वास्तव में वैश्वीकरण उन पक्षों को समाप्त करने या शक्तिहीन बनाने में सफल रहा जो क्षेत्रवाद, भाषावाद, उग्र राष्ट्रवाद या नस्लवाद के रूप में विभाजनकारी हिंसात्मक ताकतों के रूप में दुनिया में मौजूद हैं? बीते रविवार को जब स्विट्जरलैंड में आप्रवास के विरुद्ध हुए जनमत संग्रह में 50.3 प्रतिशत लोगों ने ‘मॉस इमीग्रेशन’ के खिलाफ मत दिया, जिसे स्विस पीपल्स पार्टी के पापुलिस्ट कंजरवेटिवों द्वारा लाया गया था, तो एक बार फिर यह सवाल उठने लगा कि वैश्वीकरण सफल हो रहा है अथवा असफल? इसी के साथ एक सवाल यह भी जुड़ा है कि यदि ऐसा हुआ तो फिर भावी स्थिति क्या बनेगी? क्या पुन: यूरोप 18वीं शताब्दी के अनवरत चलनेवाले टकरावों की ओर चला जायेगा?
बीते रविवार को स्विट्जरलैंड में आप्रवासन कोटा निर्धारित करने के लिए जनमत संग्रह कराया गया, जिसमें 50 प्रतिशत से कुछ अधिक (50.3) लोगों ने जनमत संग्रह का समर्थन किया तो 50 प्रतिशत से कुछ ही कम (49.7) लोगों ने यूरोपीय संघ के नागरिकों की बिना रोक-टोक स्विट्जरलैंड में काम करने के पक्ष में मतदान किया.
दरअलस, स्विट्जरलैंड ने इस तरह का निर्णय पहली बार नहीं लिया है, बल्कि वह दो साल पहले ही मध्य और पूर्वी यूरोप के आठ देशों के प्रवासियों के लिए कोटा तय कर चुका है. लेकिन ताजा फैसले के और अधिक दूरगामी परिणाम सामने आयेंगे. जर्मनी, फ्रांस, इटली और अन्य इयू (यूरोपियन यूनियन) देशों के बहुत से प्रोफेशनल्स और एकेडमिक्स स्विट्जरलैंड जाते हैं, जिसका लाभ वहां की अर्थव्यवस्था को मिलता है और मानव संसाधन विकास को भी बेहतर दिशा प्राप्त होती है. यही कारण है कि अधिकांश राजनीतिक दलों, व्यावसायिक समुदायों और संभ्रांतों का यह कहना था कि प्रवासी देश की अर्थव्यवस्था के लिए अहम हैं और इस तरह का जनमत बेहद नुकसानदेह साबित हो सकता है. स्विस बैंकर्स एसोसिएशन ने तो मतदान पर निराशा जताते हुए कहा है, ‘हमें जल्द ही यूरोपीय संघ के साथ रचनात्मक बातचीत कर अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए.’ स्वाभाविक है कि इयू और इयू के वे देश इस जनमत संग्रह को निराशा की दृष्टि से देखेंगे, जिनके नागरिक स्विट्जरलैंड में रोजगार के मकसद से आते-जाते हैं. इयू की तरफ से जनमत संग्रह के परिणाम पर खेद व्यक्त करते हुए कहा गया है कि वह देखेगा कि सरकार किस तरह से मतदाताओं द्वारा दिये गये जनादेश को लागू करती है.
जनमत संग्रह की विषयवस्तु सरकार को इसकी इजाजत देता है कि वह इस बात पर फैसला करे कि स्विट्जरलैंड में कितने प्रवासी आ सकते हैं और साथ ही कैसे विभिन्न समूहों के बीच कोटा विभाजित हो. जनमत संग्रह की विषयवस्तु सरकार पर यह जिम्मेदारी भी देता है कि वह विदेशियों के परिवार के सदस्य को लाने के अधिकार को सीमित करने पर प्रस्ताव लाये.
प्रवासियों से परेशानी
इसमें कोई संशय नहीं कि प्रवासियों के लिए किये गये इस जनमत संग्रह के दूरगामी परिणाम होंगे, क्योंकि भविष्य में इयू के नागरिक स्विट्जरलैंड में तभी काम कर पायेंगे, जब वहां उनकी बहुत ज्यादा जरूरत होगी. इस वजह से स्विट्जरलैंड के प्रमुख पड़ोसियों द्वारा यह चेतावनी दी गयी है कि स्विट्जरलैंड का यूरोपियन यूनियन के साथ गहरा नाता है, इसलिए यह देश ‘फ्री मूवमेंट फॉर इयू सिटीजंस’ को कैसे प्रतिबंधित कर सकता है. लेकिन स्विट्जरलैंड की दक्षिणपंथी स्विस पीपल्स पार्टी (एसवीपी) के सांसद लुकास राइमान जनमत संग्रह को सफल मानते हैं. उनका कहना है कि वर्ष 2002 में समझौते के प्रभाव में आने के बाद से प्रतिवर्ष 80,000 विदेशी कामगार स्विट्जरलैंड आते हैं, जिसके चलते स्विस श्रम बाजार में बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि ओपिनियन पोल करानेवाली संस्था जीएफएस बर्न के मुताबिक, आधे से ज्यादा लोगों का मानना है कि यूरोपीय संघ के साथ समझौते के कारण उनके जीवन की गुणवत्ता खराब हुई है, जबकि 50 प्रतिशत मौजूदा अपराधों के लिए प्रवासियों को जिम्मेवार मानते हैं. इसका कारण यह है कि जैसे ही विदेशी कामगार काम करने लगते हैं, मजदूरी तेजी से कम हो जाती है, जबकि मकानों और रीयल स्टेट क्षेत्र में तीव्र मूल्यवृद्धि होती है. साथ ही, ट्रैफिक समस्या और अपराध में भी वृद्धि होती है.
घूमने या बसने की ख्वाहिश
दरअसल, आल्प्स की पहाड़ियों के बीच बसा यह देश यूरोप के सबसे खूबसूरत देशों में से एक है, जहां हर कोई छुट्टी मनाना या फिर बसना चाहता है. इसी के चलते प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में प्रवासी यहां प्रवेश कर जाते हैं. लेकिन यदि केवल इसे सामान्य भीड़ माना जाये तो ऐसा नहीं है, बल्कि इसका स्विट्जरलैंड की अर्थव्यवस्था और उसकी प्रगति में प्रभावी योगदान भी है. इसलिए आप्रवासन कोटा तय करने संबंधी निर्णय के कई नकारात्मक नतीजे भी सामने आयेंगे. यह जनमत सरकार के लिए भी बहुत बड़ा झटका है, क्योंकि उसने पहले ही चेतावनी दी थी कि इस तरह का फैसला देश की अर्थव्यवस्था और यूरोपीय संघ के साथ रिश्तों पर बुरा असर डालेगा. लेकिन स्विट्जरलैंड की दक्षिणपंथी स्विस पीपल्स पार्टी ने आक्रामक तरीके से देश में प्रवासियों की बढ़ती संख्या के खिलाफ प्रचार किया. हालांकि, इसका असर पहले ओपिनियन पोल में कुछ ज्यादा था लेकिन जैसे-जैसे मतदान का दिन करीब आया, अंतर खत्म होता चला गया और बेहद कम अंतर से ही वे विजयी हुए. दूसरे शब्दों में कहें तो प्रस्ताव के समर्थन में मिले वोटों और विरोध में दिये गये वोटों का अंतर महज 30 हजार है. महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में इस प्रस्ताव को ज्यादा समर्थन मिला है, जबकि बाजेल, जेनेवा और ज्यूरिख जैसे शहरों ने इसे ठुकरा दिया है. इसका मतलब यह हुआ कि वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े लोगों ने इसे नकारा है और परंपरागत लोगों ने अपनाया.
इयू में शामिल नहीं यह देश
हालांकि, स्विट्जरलैंड यूरोपीय संघ (इयू) का सदस्य नहीं है, लेकिन उसके रिश्ते इयू के साथ मजबूत हैं. बर्न ने इयू के साथ बड़ी मेहनत करके कई द्विपक्षीय समझौते किये हैं. ऐसे ही एक समझौते के मुताबिक इयू की 50 करोड़ जनता को स्विट्जरलैंड में काम करने और रहने का अधिकार है. स्विस कानून के मुताबिक, सरकार को अब मुक्त आवाजाही के समझौते पर फिर वार्ता करनी होगी. हालांकि, अब तक यह साफ नहीं है कि प्रवासियों पर किस तरह की पाबंदी लगेगी और कब. लेकिन इतना तय है कि ‘फ्री मूवमेंट’ एकल बाजार से जुड़े उन प्रमुख बिंदुओं में से है, जो 1999 में संपन्न हुए सात समझौतों के जरिये सुनिश्चित हुए थे. इन्हीं समझौतों के तहत इयू स्विस निर्यातों के 60 प्रतिशत को अपने यहां मंगाता है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सातों समझौते के पैकेज एक दूसरे से जुड़े हैं, जिनमें गिलोटिन उपबंध भी हैं. इसलिए इनमें से एक समझौता भी समाप्त होता है, तो संपूर्ण पैकेज समाप्त हो जायेगा और स्विट्जरलैंड को इयू के साथ पुन: समझौते के लिए बातचीत करनी होगी.
कुल मिलाकर यह बेहद भ्रममूलक स्थिति है कि एक तरफ जहां यूक्रेन जैसे देश में यूरोपीय यूनियन में शामिल होने के लिए संघर्ष हो रहा है, वहीं स्विट्जरलैंड जैसे देश में इससे दूर होने के लिए जनमत संग्रह. ब्रिटेन और फ्रांस में भी ऐसी ताकतें लगातार मजबूत होती जा रही हैं और यूरो जोन के कई देशों के लोग संकट के बाद से ऐसे संघ के प्रति असंतुष्ट नजर आ रहे हैं. समझ में नहीं आता कि आखिर सच क्या है? क्या इस तरह के संघ देश और नागरिकों की मनोदशा के अनुकूल हैं या फिर विरुद्ध? क्या वैश्वीकरण उदारवाद को बढ़ा रहा है या फिर ऐसी मानसिकताओं को जन्म दे रहा है, जिनमें संदेह है, जिनमें टकराव है और नस्लवाद जैसी विशेषताएं भी? फिलहाल तो अखिल यूरोपवाद (पैन यूरोपियनिज्म) की कड़ियां टूटती नजर आ रही हैं, जो आनेवाले समय में वैश्वीकरण के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित होंगी.
नुकसान की आशंका
स्विट्जरलैंड के नागरिकों द्वारा जनमत संग्रह के जरिये यूरोपीय यूनियन (इयू) के देशों से लोगों के आने का कोटा तय करने के दूरगामी नतीजे होंगे. हो सकता है कि इसके बाद स्विट्जरलैंड अपने आप में सिमट जाये. हालांकि, सरकार के पास जनमत संग्रह की राय को कानून बनने के लिए तीन वर्ष का समय होगा, लेकिन ऐसा दबाव हो सकता है जोसरकार को कानून बनाने के लिए विवश करें. इस कानून के बनते ही फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसे पड़ोसी देशों से हजारों कुशल कामगारों के आने पर रोक लग जायेगी. इससे उनका पलायन अन्य देशों की तरफ होगा और अन्य देशों की जवाबी कार्रवाई से स्विस कामगार प्रभावित होंगे. यूरोपीय यूनियन से मुक्त व्यापार समझौते के कारण कई बड़ी कंपनियों के मुख्यालय स्विट्जरलैंड में हैं, लेकिन इस निर्णय के बाद उन्हें हटाया जा सकता है.
ब्रिटेन और फ्रांस में बढ़ेगा अलगाववाद
विदेशी आव्रजकों के विरुद्ध स्विस पीपल्स पार्टी द्वारा जनमत संग्रह के पक्ष में छेड़े गये अभियान को सफलता मिलने के बाद ब्रिटेन की यूके इंडिपेंडेंस पार्टी और फ्रांस के नेशनल फ्रंट जैसे आंदोलनों का हौसला बढ़ेगा. उल्लेखनीय है कि यूके इंडिपेंडेस पार्टी का प्रमुख उद्देश्य यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन को अलग करना है. इस पार्टी ने कंजरवेटिव पार्टी के यूरोसेप्टिक धड़े के कुछ सदस्यों को भी आकर्षित किया है, जो 1992 में यूरोपियन एक्सचेंज रेट मैकेनिज्म द्वारा पाउंड को बाहर किये जाने संबंधी प्रश्न के बाद अलग-थलग नजर आये. इसका एक प्रभाव जनवरी, 2013 के आखिरी सप्ताह में दिखा था, जब ब्लूमबर्ग के मुख्यालय (लंदन) में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यह घोषणा की थी कि 2015 में होने वाले चुनावों में जीत हासिल होने पर कंजरवेटिव सरकार बनी, तो 2017 में वह यूरोप में अपने भविष्य को लेकर एक बाध्यकारी जनमत सर्वेक्षण कराना चाहेगी. इस सर्वेक्षण द्वारा यह तय होगा कि ब्रिटेन के लोग यूरोपीय संघ के साथ पुर्नसयोजित होना चाहते हैं या फिर उससे अलग होना चाहते हैं.
फ्रांस का नेशनल फ्रंट एक आर्थिक संरक्षणवादी और सोशली कंजरवेटिव दल है. इस दल की प्रमुख नीतियों में आर्थिक संरक्षणवाद और आप्रवासन विरोध शामिल है. मुमकिन है कि ऐसी ही नीतियां कल ब्रिटेन और फ्रांस से आगे बढ़कर अन्य देशों तक भी पहुंचें, जो कि वैश्वीकरण को पूरी तरह से खारिज करनेवाली स्थिति होगी.
कहीं इसलामफोबिया तो असल कारण नहीं!
कुछ समय पहले ‘द डेली टेलीग्राफ’ के सर्वेक्षण में एक बात सामने आयी थी कि इसलाम पश्चिम की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा है, क्योंकि उसकी वैचारिकी में पश्चिम का लोकतांत्रिक मॉडल फिट नहीं बैठता. पश्चिमी यूरोप के देशों में आव्रजकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जिसमें अफ्रीकियों की संख्या सबसे ज्यादा है और उनमें भी मुसलमानों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. जर्मन सेंट्रल इंस्टीट्यूट इसलाम आर्काइव के अनुसार, 2007 में यूरोप में मुसलमानों की कुल संख्या 53 मिलियन थी, जिसमें से 16 मिलियन मुसलमान यूरोपीय संघ में हैं. डॉन मेल्विन ने अपने एक शोध में बताया है कि रूस को छोड़कर शेष यूरोप में मुसलिम आबादी वर्ष 2020 में आज के मुकाबले दोगुनी हो जायेगी. मुसलिम आव्रजकों की लगातार बढ़ती आबादी के कारण जहां एक तरफ एथनिक बहुलता बढ़ेगी, जिससे सरकारों को साम्य बिठाने में कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. दूसरा, इससे यूरोप के शहरी क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय असंतुलन तो पैदा होगा और तीसरा, भय के वातावरण के निर्माण, अर्थात यूरोपीय मानसिकता इसके केंद्र में इसलामिक आतंकवाद को देखती है, इसलिए मुसलमानों पर शंका पैदा हो जाना एक स्वाभाविक पक्ष बन जाता है. 2009 में स्विस दक्षिणपंथी पार्टी द्वारा मसजिद की मीनार के निर्माण पर रोक पर जनमत संग्रह कराये जाने के पीछे कुछ ऐसे ही कारण मौजूद थे.
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक, स्विट्जरलैंड में फिलहाल चार लाख 90 हजार मुसलमान हैं. एक अनुमान के मुताबिक, 2030 तक मुसलमानों की संख्या बढ़कर छह लाख 63 हजार हो जायेगी. यहां मुसलमानों का प्रतिशत कुल जनंसख्या में 4.3 है, जो स्विट्जरलैंड में आबादी के लिहाज से तीसरे स्थान पर आते हैं. एसवीपी ने जनमत संग्रह के पहले देश में मुसलमानों की बढ़ती आबादी को निशाना बनाते हुए कई पोस्टर भी लगाये थे.
स्विट्जरलैंड की जनसांख्यिकीय स्थिति
स्विट्जरलैंड यूरोप का एक छोटा सा देश है, जिसका क्षेत्रफल 41,285 वर्ग किमी और जनसंख्या 8.03 मिलियन है. इसमें 23.3 प्रतिशत विदेशी हैं. धार्मिक रूप से देखें तो यहां रोमन कैथोलिकों का प्रतिशत कुल जनसंख्या में 42 है, जबकि प्रोटेस्टेंट 36 प्रतिशत, मुसलिम 4.3 प्रतिशत तथा नौ प्रतिशत में अन्य आते हैं. यहां ऐसे लोगों का प्रतिशत 11 है, जो किसी भी धर्म को नहीं मानते. जहां तक नेशनल या विदेशी का प्रश्न है, तो वर्ष 2012 के अंत तक यहां 23.3 प्रतिशत विदेशी निवासी थे. इनमें से 64 प्रतिशत यूरोपीय संघ अथवा इएफटीए देशों से थे. जनसांख्यिकी वितरण के लिहाज से स्विट्जरलैंड में सर्वाधिक विदेशी निवासी इटली के थे (15.6 प्रतिशत), दूसरे स्थान पर जर्मन आते हैं, जिनकी संख्या 15.2 प्रतिशत थी और इसके बाद पुर्तगाल के 12.7 प्रतिशत, फ्रांस के 5.6 प्रतिशत, सर्बिया के 5.3 प्रतिशत, टर्की के 3.8 प्रतिशत, स्पेन के 3.7 प्रतिशत और आस्ट्रिया के 2 प्रतिशत आते हैं.
एशियाइ मूल के लोगों में सबसे ज्यादा 6.3 प्रतिशत श्रीलंका के हैं, जिसमें अधिकांश तमिल रिफ्यूजी हैं. जहां तक भारतीयों अथवा हिंदुओं की बात है, तो 2000 की जनगणना के हिसाब से स्विट्जरलैंड में 27,839 निवासियों की पहचान हिंदुओं के रूप में की गयी थी, जो कुल स्विस जनसंख्या के 0.38 प्रतिशत थे. महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदुओं की संख्या वहां लगातार बढ़ी है. एक आकलन के अनुसार, यह 1970 में 0.12 प्रतिशत, 1980 में 0.19 प्रतिशत, 1990 में 0.42 प्रतिशत और 2000 में 0.78 प्रतिशत हो गयी. खास बात यह है कि हिंदू जनसंख्या ने यहूदी जनसंख्या को पीछे छोड़ कर तीसरा स्थान (ईसाई और इसलाम के बाद) प्राप्त कर लिया है.