।।अनुज कुमार सिन्हा।।
बोकारो के सियालजोरी में इलेक्ट्रो स्टील कंपनी में आठ सौ मजदूर-कर्मचारी और अफसर चार दिनों से बंधक हैं. अंदर बंद है. कैंटीन में खाना खत्म हो गया है. वे बेबस हैं. बाहर निकल नहीं सकते. बाहर दो हजार लोग पारंपरिक हथियारों से लैस होकर धरना पर हैं. जबरन बाहर निकले तो जान जाने का खतरा है. वहां पुलिस है, पर चुप है. ऐसा इसलिए, क्योंकि सरकार की ओर से कोई निर्देश नहीं है. स्थानीय प्रशासन सरकार को लगातार त्रहिमाम संदेश भेज रहा है, पर शासक सोये हैं. सरकार को इसकी चिंता नहीं है कि कंपनी के अंदर निर्दोष लोगों को कैसे बाहर निकाला जाये. वे दिल्ली की राजनीति में व्यस्त हैं. एक मंत्री अपने ही मुख्यमंत्री पर गंभीर आरोप लगाते हैं और मुख्यमंत्री उसका जवाब देने के लिए दिल्ली जाते हैं.
राज्य के बड़े अधिकारियों में हिम्मत नहीं है कि वे अपने स्तर पर फैसला ले सकें. हर दल के अपने-अपने स्वार्थ हैं. हो सकता है कि घेराव करनेवालों की मांग जायज हो लेकिन जिन लोगों को अंदर बंधक बना कर रखा गया है, उनका दोष क्या है? अंदर जो लोग हैं, उनमें कई ऐसे हैं जो अस्वस्थ हैं. किसी को डायबिटीज है तो किसी को अन्य बीमारी. ये लोग एक दिन की दवा लेकर डय़ूटी पर गये थे. अब पांच दिन हो गये. बगैर दवा के हैं. अगर किसी की मौत होती है तो जिम्मेवार कौन होगा? निश्चित तौर पर घेराव करनेवाले, उनके नेता और सरकार. राजनीतिक दलों के नेता अपनी जिम्मेवारी को समङों. अड़ने से काम नहीं चलता. वार्ता से ही किसी समस्या का समाधान होता है, ¨हसा से नहीं. सियालजोरी में जब इलेक्ट्रो स्टील कंपनी बन रही थी तो लगा था कि न सिर्फ उस क्षेत्र की बल्कि झारखंड की तसवीर बदलेगी. लोगों को रोजगार मिलेगा. यहां के लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा. लगभग 15 हजार करोड़ देश का पैसा (27 बैंकों से लिया गया कजर्) इस कंपनी में फंसा है.
लंबे इंतजार के बाद कंपनी में उत्पादन होनेवाला था. स्थानीय लोगों की बहाली, वेतन में बढ़ोत्तरी, जमीन की उचित कीमत और कई अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) के नेता-कार्यकर्ताओं ने कंपनी को घेर रखा है. खुद विधायक अरूप चटर्जी इसकी अगुवाई कर रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि स्थानीय लोगों की बहाली होनी चाहिए, उन्हें सुविधा मिलनी चाहिए. लेकिन इसके लिए साफ-साफ नीति होनी चाहिए. जिस समय जमीन का अधिग्रहण होता है, जिस समय कंपनी लगाने की अनुमति दी जाती है, उसी समय यह तय होना चाहिए कि कंपनी में बहाली कैसे और किसकी होगी. नीति बननी चाहिए. यह काम सरकार तो सरकार का है. उसी समय यह तय हो कि जमीन की दर क्या होगी. विस्थापितों को क्या-क्या मिलेगा. एक बार जो तय हो जाये, उसका पालन करना चाहिए. फिर उसमें राजनीति नहीं होनी चाहिए. यही राज्य के हित में है. अगर किसी को जमीन की कीमत सही नहीं मिली तो यह देखना सरकार-प्रशासन का काम है. उसे सुलझाना सरकार का दायित्व है लेकिन सरकार ही चुप है. जो-जो दल-संगठन घेराव, धरना-प्रदर्शन की राजनीति पूरे राज्य में करते रहे हैं, उन्हें नीति बनाने के लिए कंपनी की नहीं, सरकार का, विधानसभा का घेराव करना चाहिए.
विधायकों का करना चाहिए. नीतियां विधानसभा में बनती हैं, सरकार बनाती है, कोई कंपनी नहीं बनाती है. अगर सरकार यह नीति बना ले कि किसी भी कंपनी में इतने प्रतिशत कर्मचारी स्थानीय होंगे तो किसकी मजाल कि उसका पालन न हो. अगर कोई पालन नहीं करता है तो उसे पालन कराने का काम सरकार का है. यहां तो नीति बनती नहीं. नीति बनाने का प्रयास नहीं होता. सिर्फ कमेटियां बनती हैं. यही तो हर दिन का झगड़ा है. पूरे राज्य में औद्योगिक विकास-बहाली तो नीतियां नहीं बनने के कारण ठप है. अगर यही हाल रहा तो झारखंड और गर्त में चला जायेगा. कोई उद्योग तो लग नहीं रहा. जो लगा है, वह भी बंद होगा. हालात देखना है तो राजधानी रांची के उन चंद उद्योगों (हाइटेंशन इंश्यूलेटर, इइएफ) का देखिए जो कभी गुलजार रहा करता था. .ये बंद हो गये. आज वीरानी छायी है. हजारों कर्मचारी बेरोजगार हो गये. उनके परिवार से पूछिए कि बेरोजगारी क्या होती है? उसका दर्द क्या होता है. किसी कंपनी को बंद करना बहुत ही आसान है, लेकिन फिर उसे खुलवाना लगभग असंभव.
राज्य में खर्च तो बढ़ रहे हैं पर आय का साधन नहीं बढ़ रहा. रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे. इसके लिए माहौल भी नहीं बन रहा. ऐसे में कैसे चलेगा राज्य? ऐसे हालात के लिए राजनीतिक दल और नेता दोषी हैं. यह धरना-प्रदर्शन या घेराव ऐसे ही नहीं होता. खबर है कि एक ताकतवर नेता के बेटे इस कंपनी में दो सौ करोड़ का ठेका लिये हुए हैं. एक अन्य राजनीतिक दल ने पहले काफी हो-हंगामा किया, फिर माल-पानी खा कर किनारे हो गये. जो राजनीतिक दल बच गये, वे भी जुगाड़ में हैं. यह समझ नहीं पा रहे हैं कि अगर कंपनी डूबी तो कंपनी के मालिकों का कुछ नहीं बिगड़ेगा. सारा पैसा तो बैंकों का लगा है. पैसा डूबेगा जनता का. आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी तो बैंकों की. अर्थ व्यवस्था गड़बड़ायेगी तो देश की. खामियाजा भुगतना पड़ेगा आम जनता को. ऐसे हालातों से निबटना होगा. चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, सत्ताधारी हो या विपक्ष का हो, किसी को भी कानून-व्यवस्था तोड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती. हिंसा और भड़कानेवाली राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती.