नोटबंदी और उसके असर पर चर्चा न सिर्फ भारत में हो रही है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और विदेशी मीडिया ने भी अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं. इनमें कहीं सराहना है, तो कहीं आलोचना. कहीं विमुद्रीकरण से पहले और और बाद की तैयारियों पर सवाल उठाये जा रहे हैं, तो कहीं चुनौतियों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है. कुछ खास वित्तीय संस्थाओं और विदेशी अखबारों की राय के प्रमुख हिस्सों की प्रस्तुति आज के इन-दिनों में…
परिसंपत्तियों में लगा है काफी अवैध धन
< रिधम देसाई , प्रबंध निदेशक, मोर्गन स्टेनली इंडिया
विमुद्रीकरण की प्रक्रिया में जो करेंसी जमा नहीं की जायेगी, क्या वह भारतीय रिजर्व बैंक को लाभ के तौर पर हासिल होगी और वह इसे केंद्र को हस्तांतरित कर देगा? यदि ऐसा होता है, तो अनुमानित रूप से चलन में पांच सौ व हजार के नोट का 25 फीसदी करेंसी वापस नहीं आयेगी, ऐसे में 3.5 लाख करोड़ रुपये का अप्रत्याशित लाभ होगा.
यह अभी भी अटकलों के दायरे में है. ऐसा लग रहा है कि इस प्रक्रिया को लेकर लोग कुछ ज्यादा ही उम्मीद पाल बैठे हैं. हमें इसे चरणबद्ध तरीके से लेना चाहिए. आपने जिस आंकड़े का अनुमान लगाया है, हम उस पर तब तक विश्वास नहीं कर सकते, जब पूरी बात सामने नहीं आ जाती. अनुमान लगाये जानेवाले आंकड़ों के पीछे कोई विज्ञान नहीं है. हमें दूसरा अनुमान लगाने से पहले इस धूल के शांत होने का इंतजार करना चाहिए, तभी हम देख पायेंगे कि वास्तव में हम कहां हैं और रिजर्व बैंक ने क्या किया. फिलहाल, हमारे सामने क्रियान्वयन की चुनौती है. सबसे पहले तंत्र में 22,600 करोड़ डॉलर नकदी को बदलना है, जो कि बिल्कुल भी आसान काम नहीं है. मैं किसी हिसाब-किताब की जल्दबाजी में नहीं हूं और मेरी समझ से आंकड़े बहुत बड़े नहीं है. मेरा मानना है कि भारत का ज्यादातर अवैध धन संपत्तियों के रूप में है, नकदी व्यापार में है और लेन-देन में इस्तेमाल की जाती है. बिना हिसाब वाली मुद्रा का भंडारण नहीं किया जाता है. मेरा मानना है कि नकदी के रूप में प्रचलन में कालेधन का अनुमान ज्यादा ही लगा लिया गया है. इस बात की पूरी आशंका है कि वर्षों से इकट्ठा कालाधन सोने और संपत्तियों का रूप ले चुका है.
क्या विमुद्रीकरण विकास काे प्रभावित करेगा?
यहां दो रास्ते हैं. इसी के तहत सरकार ने कालेधन को गिरफ्त में लेने के लिए क्रमिक कदम उठाये हैं और प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि आगे और कदम उठाये जायेंगे. भारत की सफाई और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में अभी लंबा सफर करना है. ऐसा करने पर ही लंबी अवधि के विकास को प्रोत्साहित किया जा सकेगा. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण होगा. नकदी आधारित अर्थव्यवस्था होने की वजह से निकट भविष्य में इस कदम का नकारात्मक असर पड़ेगा. भारत के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का लगभग 12 से 13 फीसदी हिस्सा नकदी के रूप में है. यह उतना इलेक्ट्रॉनिक नहीं हो सका है, जितना होना चाहिए या जितनी उम्मीद की जा रही है. निकट भविष्य में नकारात्मक संकेतों के बावजूद यह सही दिशा में महत्वपूर्ण कदम है. और, 22,600 करोड़ डॉलर को नकदी को बदल देना एक रात का काम नहीं है.
(लाइव िमंट में छपे साक्षात्कार से साभार)
रुपये पर कसता शिकंजा वित्तीय बचत के लिए
शुभ संकेत : मॉर्गन स्टेनली
वैश्विक वित्तीय सेवा संस्था मॉर्गन स्टेनली के अनुसार, नोटबंदी से तात्कालिक रूप से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हो सकती हैं, लेकिन तुलनात्मक रूप से इसका सकारात्मक प्रभाव अधिक होगा, जिसका नतीजा मध्य अवधि में बेहतर पारदर्शिता और कर अनुपालन के रूप में सामने आयेगा.
संस्था की एक रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया है कि बड़े मूल्य के नोटों को बंद करने के सरकारी फैसले से लंबी अवधि के वित्तीय बचत के लिए घरों में जमा कर रखे जाने वाले सोने और जायदाद में लोग अब कटौती करेंगे. एेसे में सरकार का यह कदम संपत्ति जमा करने के लोगों के निर्णय और अर्थव्यवस्था के भीतर वित्तीय बचत को बेहतर बनाने पर असर डालेगा.
धन के प्रवाह के नजरिये से देखें, तो भारत में घरेलू भौतिक बचत लगभग 270 अरब डॉलर (सकल घरेलू उत्पाद का 13 प्रतिशत) है, जबकि वित्तीय बचत 160 अरब डॉलर (सकल घरेलू उत्पाद का 7.7 प्रतिशत) है.
रिपोर्ट का मानना है कि यह सरकार के सुधार एजेंडे, जिसमें व्यापार के माहौल को बेहतर बनाने पर ध्यान देना भी शामिल है, का ही विस्तार है. मॉर्गन स्टेनली ने भरोसा जताया है कि यह कदम योजनाबद्ध तरीके से काले धन को कम करने में सहायक सिद्ध होगा और लंबी अवधि में भारत में व्यापार करने को और आसान बनायेगा. सरकार का यह शिकंजा नजदीकी अवधि में आर्थिक गतिविधियों को नुकसान पहुंचा सकता है, विशेषकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर, जहां आज भी बड़े पैमाने पर नकद में ही लेन-देन होता है और ऑटोमोबाइल और जायदाद जैसी मंहगी वस्तुओं पर पैसे खर्च होते हैं. रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि यह प्रतिसंतुलन से कहीं अधिक होगा, परिणामस्वरूप सार्वजनिक वित्त को लाभ पहुंचेगा.
टैक्स चोरी से लड़ाई की मार गरीबों पर
< एरिक शेरमन, फोर्ब्स
आपने भारत में बैंक नोटों के विमुद्रीकरण के बारे में सुना होगा. इसका मतलब है कि देश ने आधिकारिक रूप में निश्चित राशि की मुद्रा का विमुद्रीकरण कर दिया है. यह कदम जालसाजी और टैक्स की चोरी पर लगाम लगाने के लिए उठाया गया है. हालांकि, जिस तरह से यह निर्णय लिया गया है, इसका अधिक प्रतिकूल प्रभाव गरीबों पर पड़ रहा है. अक्सर नीतियों के निर्माण करनेवाले लोग वित्तीय स्थिरता का पूर्वाग्रह पाले हुए होते हैं. वे लोग इस बात की फिक्र नहीं करते हैं कि अचानक ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर कुछ लोगों के पास भोजन के लिए भी पैसे नहीं होते या ऐसे लोगों के सामने जिंदगी की अकस्मात घटना या किसी की मौत होने पर स्थितियां और भी विकराल हो जाती हैं. निश्चित तौर पर आगे किसी भी समस्या का हल निकाला जा सकता है, लेकिन, ऐसे हल उन लोगों के लिए मददगार नहीं है, जो पहले से सक्षम ही नहीं है.
जब आप लाभ के लिए सीमित विकल्पों को अपनाते हैं, तो आपको निश्चित करना होता कि धीमी गति से लोग बदलावों का हिस्सा बन सकें. अमेरिका में सिगरेट पर सिन-टैक्स बढ़ा कर आप ऐसे निम्न आय वर्ग के लोगों को प्रभावित करते हैं, जो निकोिटन की लत के शिकार हैं. लेकिन, ऐसे लोगों की उपेक्षा कर पाना आसान नहीं है. एक समाज के रूप में हम आम लोगों की रोजाना की समस्याओं के बारे में एक हद से ज्यादा नहीं समझ सकते. फिर भी, हम अपनी सुविधा के लिए ऐसी नीतियों को लागू करते हैं, जिसकी कीमत गरीबों की चुकानी पड़ती है. ऊपर की ओर धन के हस्तांतरण की यह उलझी और आपत्तिजनक योजना है.
बड़ा आर्थिक संकट है विमुद्रीकरण
जिस रात डोनाल्ड ट्रंप अगले अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए चुने गये, उनके जैसे राष्ट्रवादी नेताओं में से एक ने एक अराजक फैसला लिया. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचंभे में डालनेवाले अपने टीवी वक्तव्य में पांच सौ और हजार रुपये के नोटों को प्रचलन से बाहर करने का ऐलान कर दिया. उन्होंने एक झटके में 86 फीसद मुद्रा को बैंक शाखाओं से बाहर रद्दी करार दे दिया. फैसले को न्यायोचित ठहराने के लिए कहा गया कि इससे भ्रष्टाचार से लड़ने में मदद मिलेगी और कर चोरी के जरिये कालाधन जमा करनेवालों पर नकेल कसेगी.
विमुद्रीकरण से दो खरब डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था सिकुड़ सकती है. अलबत्ता इससे अमीरों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्होंने तमाम भ्रष्ट तरीके अपनाकर पहले ही अपने पैसों को शेयर, सोना और रियल एस्टेट में लगा दिया है. हां, इससे भारत के उन 1.3 अरब गरीबों को जरूर फर्क पड़ेगा, जिनमें कइयों के पास तो बैंक अकाउंट तक नहीं हैं. इन्हें आम तौर पर नकद भुगतान मिलते हैं. ऐसे में इनके लिए बैंकों के आगे घंटों खड़ा होना पैसों का तो नुकसान है ही, कीमती समय की भी बर्बादी है. इस फैसले के आने के एक हफ्ते के भीतर ही कई लोगोंं की मौत हो गयी. सरकार कह रही है कि हालात सामान्य होने में कुछ हफ्तों का वक्त लगेगा.
विमुद्रीकरण भारत के लिए नयी बात नहीं है. वर्ष 1978 में इसे छोटे पैमाने पर आजमाया गया था. तब इसका नतीजा बैंक जमा राशि और कर वसूली में भारी इजाफे के तौर पर देखा गया था. पर, नरेंद्र मोदी की नयी योजना ज्यादा बड़ी है और इसे वे तेजी से लागू भी कराने में जुटे हैं. यह कहीं न कहीं महंगाई, मौद्रिक स्थिरता और जन विरोध से मनमाने तरीके से निपटने में उनके असफलता का भी नतीजा है. भ्रष्टाचार दूर करने के प्रचार में जुटे मोदी और उनकी सरकार के लिए बेहतर होता कि वे अपना ध्यान कर व्यवस्था को दुरुस्त करने के काम में लगाते. यह भी कि धीमे और औचक उछाल वाले सुधारों से सुर्खियां नहीं बनतीं. इनसे कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की मोर्चेबंदी से भी नहीं निपटा जा सकता. असल में पिछले एक दशक में मोदी की जो अंतरराष्ट्रीय छवि गुजरात में मुसलमानों की सामूहिक हत्या में कथित भूमिका के कारण बनी, वे उसे बदलना चाहते हैं. ठीक वैसे ही जैसे ट्रंप खुद अपनी छवि को नया रूप देना चाहते हैं. दो साल पहले ट्रंप के रणनीतिकार स्टीव बैनन ने मोदी की जीत को ग्लोबल विद्रोह कहा था. पर मुद्रा और शासकीय संकट को देख कर लगता है कि विद्रोह की शुरुआत घर से हो सकती है.
(द गािर्डयन का संपादकीय)
बैंकिंग तंत्र से बारह करोड़ भारतीय परेशान
विमुद्रीकरण की घोषणा के हफ्ते भर में 44 अरब डॉलर के बराबर पुराने नोट बैंकों में जमा कराये जा चुके हैं. पर ये पूरी कवायद खासी मुश्किल साबित हो रही है. आलम यह है कि पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री की अचरजकारी घोषणा के बाद दो लाख एटीएम मशीनों को नये नोटों के मुताबिक ठीक करने का काम शुरू हुआ. सरकारी अधिकारी इस विलंब को लेकर गोपनीयता की दलील दे रहे हैं. उनके मुताबिक, अग्रिम सूचना से जमाखोरों को कालधन ठिकाने लगाने का मौका मिल जाता. नतीजा यह है कि तेजी से चलनेवाले एटीएम मशीनों से प्रचलन में बने रहे कम मूल्य के नोट धीरे-धीरे निकल रहे हैं.
आगे मुसीबत यह है कि करोड़ों भारतीय बैंकिंग तंत्र से बाहर हैं. हालांकि, इससे पहले मोदी सरकार ने शून्य जमा राशि के साथ खाता खोलवाने का बड़ा अभियान चलाया था. पर अब भी काफी लोग बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सके हैं. कंसलटेंसी संस्था प्राइसकूपर्स वाटर हाऊस के 2015 की एक रिपोर्ट का हवाला लें, तो 23.3 करोड़ भारतीयों के पास अपने बैंक खाते नहीं हैं. इसी तरह टफ्ट्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक रिपोर्ट में जानकारी दी कि भारत में दस फीसद से भी कम ऐसे लोग हैं, जो नकद भुगतान नहीं करते. हालांकि, हालिया सालों में भारत में भुगतान के नये डिजिटल माध्यमों का जोर बढ़ा है, पर कैशलेस इकोनॉमी आज भी बहुतों के लिए दूर की कौड़ी है. विमुद्रीकरण की घोषणा से कुछ माह पहले आयी गूगल और बोस्टन कंसलटिंग ग्रुप की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 तक भारतीय डिजिटल भुगतान उद्योग करीब 500 बिलियन डॉलर के बराबर होगा, जो कि देश की अर्थव्यवस्था में बमुश्किल 15 फीसदी की हिस्सेदारी होगी. इस बारे में विश्व बैंक कहता है कि भारत में डिजिटल आधार पर एक बहुत बड़ा बंटवारा है, जिसमें करीब एक अरब लोग अब भी इंटरनेट से दूर हैं. ऐसे तमाम लोगों के लिए अब बैंक के आगे नये नोट के लिए कतार लगाने के अलावा और कोई
विकल्प नहीं है.
(टाइम में छपे निखिल कुमार के लेख का अंश)
कालेधन पर लगाम की कोशिश
प्रधानमंत्री माेदी द्वारा किये गये मुख्य वादों में से एक था कालाधन और बेनामी संपत्ति पर कार्रवाई करना. सरकार का हालिया कदम उनके द्वारा बहुप्रचारित कर माफी योजना का समापन है जिसे आय घोषणा योजना 2016 के नाम से भी जाना जाता है. हालांकि इस कर माफी योजना के तहत केवल 652.5 अरब रुपये की ही अघोषित संपत्ति सामने आयी थी. सितंबर तक चला यह चार महीने का कार्यक्रम 1997 के बाद से अपने तरह का पहला ऐसा कदम था. इस योजना के तहत कर छिपानेवाले 45 प्रतिशत जुर्माना भरने के बाद कार्रवाई से बच सकते थे.
कई अनुमान बताते हैं कि विदेशों में भारतीयों द्वारा लगभग 500 अरब डॉलर का अवैध धन जमा कर रखा गया है. पनामा पेपर्स में भी 500 भारतीयों के छुपे धन का खुलासा हुआ था. पिछले साल विदेशों में काल धन रखनेवालों के लिए सरकार द्वारा चलायी गयी इसी तरह की एक योजना के तहत 644 लोगों ने ही अपनी आय घोषित की थी, जिससे महज 24.3 अरब रुपये कर के रूप में प्राप्त हुए थे. वहीं, सरकारी लेखा परीक्षकों का कहना है कि वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान संबंधित अधिकारी 105.3 अरब डॉलर का कर एकत्रित करने में नाकाम रहे थे.
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी घोषणा में इस बात पर जोर दिया था कि बड़े नोटों को चलन से बाहर करने लिए उठाया गया उनका यह कदम भ्रष्टाचार, काला धन और जाली नोटों से लड़ने में आम आदमी के हाथ को मजबूती प्रदान करेगा. इसके साथ ही उनका उद्देश्य बेनामी संपत्तियों को भी सामने लाना है. सरकार आतंकवादियों को दी जानेवाली वित्तीय मददों और जाली नोटों को भी लक्ष्य कर रही है.
(निकेइ एशियन िरव्यू में छपे किरण शर्मा के लेख का अंश)
(अनुवाद : प्रेम प्रकाश)
भारत में डिजिटल लेन-देन में नाटकीय बढ़ोतरी होनेवाली है. मेरा ऐसा मानना है कि अानेवाले कुछ वर्षों में भारत सबसे अधिक डिजिटल अर्थव्यवस्था वाला देश हो जायेगा. केवल आकार में ही नहीं, बल्कि प्रतिशत में भी. आधार कार्ड का मामला बेहद दिलचस्प है. इस तरह का काम इससे पहले किसी भी सरकार ने नहीं किया था, यहां तक कि धनी देशों में भी नहीं हुआ. इसे लेकर कई शंकाएं थीं. वित्तीय व्यवहारिकता, तकनीक, नागरिक स्वीकार्यता आदि को लेकर संदेह था. लेकिन, अब आपकी जितनी भी सूचनाएं हैं, वे सब डिजिटल सिस्टम के तहत दर्ज होनेवाली हैं, चाहे वे बैंकिंग से जुड़ी हों, कर भुगतान से जुड़ी सूचनाएं हों या स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़े हों. ये सभी सूचनाएं अमूल्य धरोहर होती हैं, लेकिन बेहद साहसिक व अच्छे सरकारी नेतृत्व द्वारा ही इन सबको एक साथ जोड़ा जाना संभव था.
– बिल गेट्स, संस्थापक, माइक्रोसॉफ्ट
नतीजे भविष्य के गर्भ में
आनेवाले दिनों में यह देखना होगा कि विमुद्रीकरण के कारण गंभीर आर्थिक संकट की भविष्यवाणियां कितनी सही साबित होती हैं. पर, एक बात तो यकीनन कही जा सकती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुर्सी संभालने के ढाई साल के भीतर एक ऐसा फैसला लिया है, जिससे सर्वाधिक लोग प्रभावित हुए हैं. नौकरशाहों के भरोसे कालाधन को लेकर भाजपा का अभियान विलक्षण है. वर्ष 2014 के चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने विदेशी खातों में जमा करोड़ो रुपये का कालाधन लाने का दावा किया था. उनकी तरफ से प्रत्येक गरीब के खाते में 15 लाख रुपया जमा कराने तक की बात कही गयी थी, जिसे बाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने महज जुमलेबाजी करार दिया था. असली समस्या प्रधानमंत्री मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली के इस भरोसे को लेकर है कि भारत के कर अधिकारी काफी कुशल और सक्षम हैं. कर प्रावधानों के नियमों के सरलीकरण और इसके दायरे को बढ़ाने के बजाय मोदी और जेटली कालाधन को लेकर एक तरह की हिस्टिरिया के शिकार हो गये हैं. विमुद्रीकरण के बाद अब वे बेनामी संपत्ति को लेकर कदम की बात कह रहे हैं. सामान्य निर्यात और धीमे औद्योगिक विकास के बाद आप क्या उम्मीद करते हैं कि प्रधानमंत्री नौकरशाहों और कर अधिकारियों के बूते अर्थव्यवस्था में मजबूती ले आयेंगे? पर मोदी ने अपने मुताबिक अपनी राह चुनी. अब यह देखना होगा कि उनका लगाया दावं सीधा पड़ता है कि उलटा.
(वाॅल स्ट्रीट जर्नल में छपे सदानंद धुमे के लेख का िहस्सा)
मुद्रास्फीति में कमी होगी
सरकार द्वारा बड़े नोटों को हटाने के पीछे एक बड़ा कारण उस कथित कालाधन को खत्म करना है जो भारत के दो ट्रिलियन डॉलर के आधिकारिक जीडीपी का अनुमानतः पांचवा हिस्सा है. इससे बैंकों की जमा पूंजी में दीर्घकालिक उछाल भी आ सकता है. वर्ष 1873 में अमेरिका में चांदी के विमुद्रीकरण से अपस्फीति की स्थिति बनी थी. कमजोर वैश्विक मांग और बड़ी राजनीतिक चिंता के माहौल में लिया गया भारत का यह चौंकानेवाला फैसला भी संभवतः उससे अलग नहीं होगा.
दूसरी तरफ, मुंबई स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के पास ब्याज दरों को घटाने का अवसर होगा, जिससे देश में धन लगाने के लिए निवेशकों को उत्साह मिल सकता है, जहां घाटे की आशंका कम होगी. यह कहना कठिन है कि शेयर में गिरावट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसले के कारण हुआ है. आखिरकार, बंद एटीएम के माहौल में भारतीय अपनी जेब और बिस्तर में रखे पैसे और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के वोटों को गिन रहे थे. निश्चित रूप से वह दिन कैशलेस भविष्य में जाने के लिए ठीक दिन नहीं था.
(ब्लूमबर्ग में एंडी मुखर्जी के लेख का अंश)
कालेधन पर लगाम की कोशिश
प्रधानमंत्री माेदी द्वारा किये गये मुख्य वादों में से एक था कालाधन और बेनामी संपत्ति पर कार्रवाई करना. सरकार का हालिया कदम उनके द्वारा बहुप्रचारित कर माफी योजना का समापन है जिसे आय घोषणा योजना 2016 के नाम से भी जाना जाता है. हालांकि इस कर माफी योजना के तहत केवल 652.5 अरब रुपये की ही अघोषित संपत्ति सामने आयी थी. सितंबर तक चला यह चार महीने का कार्यक्रम 1997 के बाद से अपने तरह का पहला ऐसा कदम था. इस योजना के तहत कर छिपानेवाले 45 प्रतिशत जुर्माना भरने के बाद कार्रवाई से बच सकते थे.
कई अनुमान बताते हैं कि विदेशों में भारतीयों द्वारा लगभग 500 अरब डॉलर का अवैध धन जमा कर रखा गया है. पनामा पेपर्स में भी 500 भारतीयों के छुपे धन का खुलासा हुआ था. पिछले साल विदेशों में काल धन रखनेवालों के लिए सरकार द्वारा चलायी गयी इसी तरह की एक योजना के तहत 644 लोगों ने ही अपनी आय घोषित की थी, जिससे महज 24.3 अरब रुपये कर के रूप में प्राप्त हुए थे. वहीं, सरकारी लेखा परीक्षकों का कहना है कि वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान संबंधित अधिकारी 105.3 अरब डॉलर का कर एकत्रित करने में नाकाम रहे थे.
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी घोषणा में इस बात पर जोर दिया था कि बड़े नोटों को चलन से बाहर करने लिए उठाया गया उनका यह कदम भ्रष्टाचार, काला धन और जाली नोटों से लड़ने में आम आदमी के हाथ को मजबूती प्रदान करेगा. इसके साथ ही उनका उद्देश्य बेनामी संपत्तियों को भी सामने लाना है. सरकार आतंकवादियों को दी जानेवाली वित्तीय मददों और जाली नोटों को भी लक्ष्य कर रही है.
(निकेइ एशियन िरव्यू में छपे किरण शर्मा के लेख का अंश)
(अनुवाद : प्रेम प्रकाश)