अकसर लोग अपने पुराने कपड़ों को बेकार समझ कर यूं ही फेंक देते हैं, लेकिन बेकार समङो जानेवाले इन्हीं पुराने कपड़ों को नयी परिभाषा दी है ‘गूंज’ नामक संगठन चलानेवाले अंशु गुप्ता ने. इन्होंने न सिर्फ पुराने कपड़ों से जरूरतमंदों की परेशानी दूर की, बल्कि इनके जरिये ग्रामीण क्षेत्रों को तरक्की की एक नयी तस्वीर में ढाला.
कई बार पुरानी, बेकार पड़ी चीजों को सुधार-संवार कर उनसे उपयोगी वस्तुएं बनाने का प्रयास किया जाता है, जो अपने में एक सार्थक प्रयास है. पर हाल के वर्षो में ‘गूंज’ नामक संस्था ने इससे एक कदम आगे बढ़ कर एक नया प्रयोग किया है, जिसके अंतर्गत पुरानी, बेकार जा रही वस्तुओं को न केवल सुधारा-संवारा जाता है, बल्कि उन्हें दूर-दूर के गांवों और आपदा पीड़ित क्षेत्रों में जरूरतमंदों तक पहुंचाया जाता है. ‘गूंज’ नामक इस संस्था को चलानेवाले अंशु गुप्ता का मिशन है शहरी लोगों के अनुपयोगी कपड़ों को एकत्रित कर उन्हें उपयोगी बनाना और गरीबों में बांटना. अंशु के ग्राहक बेहद गरीब हैं. उनके पास पैसे नहीं हैं, लेकिन फिर भी वे अंशु के द्वारा बनायी गयी मूलभूत चीजें खरीदतें है. फर्क यह है कि चीजों के बदले में ग्राहक अंशु को देते हैं अपना कौशल और मेहनत. इतना ही नहीं गरीबों का यह कौशल एक बार फिर उन्हीं के जीवन, उनके गांव में सकारात्मक बदलाव ले आता है.
उदाहरण के लिए, किसी ग्रामीण बस्ती को एक कुएं या तालाब की आवश्यकता है, तो इसके लिए गांववासी काम करते हैं, लेकिन उन्हें मजदूरी नकद पैसे के रूप में न देकर उनकी जरूरत की विभिन्न वस्तुओं, विशेषकर कपड़ों, के रूप में दी जाती है. इस तरह गांवों के जरूरी विकास कार्य भी हो जाते हैं और जरूरत के अनुसार कपड़े या अन्य उत्पाद भी निर्धन या आपदाग्रस्त जरूरतमंद परिवारों तक पहुंच जाते हैं.
शहरों से इकट्ठा होती हैं पुरानी चीजें
इस कार्य का सिलसिला दिल्ली जैसे अनेक बड़े शहरों की विभिन्न कॉलोनियों से आरंभ होता है जहां गूंज संस्था के कार्यकर्ता विभिन्न परिवारों से पुराने कपड़े और अन्य उपयोगी वस्तुएं जैसे जूते, खिलौने, किताब-कॉपियां, एक तरफ लिखे हुए कागज, स्कूल बैग्स आदि एकत्र करते हैं. इनमें सबसे अधिक मात्र तरह-तरह के कपड़ों की होती है. नये कपड़ों और अन्य उत्पादों का भी स्वागत होता है, लेकिन अधिक मात्र पुराने कपड़ों की ही होती है.
विभिन्न परिवार स्वयं अपने प्रयास से भी इन उत्पादों को ‘गूंज’ के कार्यालयों में या उसके कार्यकर्ताओं के निवास स्थानों तक पहुंचा जाते हैं. इन विभिन्न संग्रहण स्थानों से ये कपड़े और अन्य उत्पाद शहर के एक केंद्रीय प्रोसेसिंग केंद्र में पहुंचाये जाते हैं जहां विभिन्न कपड़ों की अच्छी तरह सफाई-धुलाई की जाती है और जरूरत पड़ने पर उनकी मरम्मत भी की जाती है. इस तरह कपड़े ऐसी स्थिति में आ जाते हैं कि उन्हें सम्मानपूर्वक किसी जरूरतमंद परिवार को दिया जा सकता है.
जरूरतमंदों को मिलती है राहत
‘गूंज’ ने ‘कार्य के बदले वस्त्र’ की योजना बनायी. विकास कार्य विभिन्न स्थानों की परिस्थितियों को देखते हुए ही किये जाते हैं. इस तरह कुछ गांवों में छोटे पुल बने हैं तो कुछ गांवों में कुएं बनाये गये हैं, कुछ में जल संरक्षण का कार्य किया गया है. सबसे अधिक कार्य जल और सफाई से संबंधित रहा है. यह प्रयास उन जरूरतमंद स्थानों पर विशेष तौर पर सार्थक रहा है जहां लोग विभिन्न आपदाओं से प्रभावित हुए थे. विशेष कर बाढ़ जैसी आपदा से जब अनेक परिवारों के कपड़े और अन्य जरूरी साजो-सामान भी बह गया हो, तो उनके लिए अचानक ट्रक भर कर कपड़ों का पहुंचना बहुत राहत देता है. चाहे बिहार में कोसी की बाढ़ या असम में हिंसा व आपदा से प्रभावित परिवार हों, चाहे गुजरात में भूकंप प्रभावित परिवार हों या तमिलनाडु में समुद्री चक्रवात प्रभावित लोग हों, ‘गूंज’ द्वारा एकत्र की गयी सहायता सामग्री उन तक पहुंचती रही है. गूंज इस समय उत्तराखंड में आयी आपदा से प्रभावितों की सहयता के लिए प्रयास कर रही है.
‘गूंज’ करती है कई प्रयास
इसके अतिरिक्त साफ किये गये कपड़ों से सेनिटरी नैपकिन्स बनाये जाते हैं. हाईजीन की कमी को दूर करने के लिए बहुत सस्ती कीमत पर बने सेनिटरी नैपकिन्स जरूरी माने गये हैं. ‘गूंज’ द्वारा एक महीने में लगभग दो लाख सेनिटरी नैपकिन्स का उत्पादन किया जाता है. गूंज ने इस कार्य पर अधिक जोर देना तब शुरू किया जब उसे अपने अनुसंधान कार्य के दौरान पता चला कि सेनिटरी नैपकिन के अभाव में कई गंभीर संक्रमण हो जाते हैं और इन समस्याओं का इलाज तो दूर, इनके बारे में चरचा तक नहीं होती. इस कमी को दूर करने में ‘गूंज’ का यह योगदान है. इसके अतिरिक्त गूंज को जो रद्दी अखबार और एक तरफ लिखे हुए कागज मिलते हैं, उनसे लिफाफे और रजिस्टर बनाये जाते हैं.
जरूरतमंदों की जरूरतों को पूरा करना ही है गूंज की सार्थकता
इस प्रगति के बीच गूंज और अंशु गुप्ता को कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया. अंशु गुप्ता कहते हैं कि जिन वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं लगाया जाता था और जिनसे शहरी कूड़ा घरों का बोझ ही बढ़ता था, उन्हें सुधार कर न केवल लोगों की जरूरतों को पूरा करना, बल्कि विकास कार्यो का एक सिलसिला आरंभ करना ही हमारी संस्था के प्रयासों की मुख्य सार्थकता रही है. हमने अपने विचारों और कार्य को कभी ‘कॉपीराइट’ की नजर से नहीं देखा है. हमारे विचारों और कार्य से सीख कर या प्रेरणा लेकर जो भी ऐसा कार्य करना चाहे उसका स्वागत है.
खुद के कपड़ों से की शुरुआत
अंशु ने यह काम 13 साल पहले पत्नी के साथ मिल कर खुद के 67 कपडें के साथ शुरू किया था. मगर अलग सोच के साथ की गयी इस काम की शुरुआत ने उन्हें देश के विकास का नया रास्ता दिखा दिया. आज अंशु के दिल्ली स्थित संगठन गूंज के देश के 21 राज्यों में 60 संग्रहण केंद्र हैं. 10 ऑफिस हैं और टीम में 150 साथी शामिल हैं. ये सभी 250 से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर हर महीने 80 से 100 टन कपड़े गरीबों में बांटते हैं.