सात फरवरी को राहुल गांधी झारखंड आये. रोड शो किया. एक दिन पहले रात में दिल्ली से फ़ोन आया कि राहुल गांधी आपसे मिलना चाहते हैं, फीडबैक लेना चाहते हैं. इस दौरान खुल कर बातचीत होगी. मुङो लगा कि चलो, अच्छी बात है कि राहुल जमीनी हकीकत जानना चाहते हैं. वे कांग्रेस के शीर्ष नेता हैं. हाल के दिनों में किसी बड़ी पार्टी के शीर्ष नेता ने अखबार के संपादकों से फीडबैक लिया हो, ऐसा मुङो याद नहीं आता. इसलिए ऐसा प्रयास सराहनीय लगा. एक जमाना था जब मुख्यमंत्री संपादकों के साथ बैठते थे और राज्य के विकास या अन्य मुद्दों पर उनकी राय लेते थे.
अब समय बदल गया है. ऐसा नहीं होता. मुङो लगा कि जाना चाहिए, इसलिए मैंने अपनी सहमति दे दी. दिनभर राहुल के दौरे की खबरों पर मेरी निगाह तो थी ही. रोड शो की पल-पल की खबरें भी ले रहा था. शाम को तय समय पर जब राहुल गांधी से मिलने होटल पहुंचा, तो बाहर भारी भीड़. जिन्हें अंदर जाने की अनुमति नहीं मिली थी, वे नारेबाजी कर रहे थे. वही राजनीतिक संस्कृति! सुरक्षा की कमान एनएसजी के हाथों में थी. बड़ी मुश्किल से अंदर जा सका. वहां कई और वरिष्ठ पत्रकार थे. पहले कांग्रेस नेता अजय माकन आये. आधा घंटा तक बात होती रही. लेकिन उनका पहला वाक्य था- जो भी बात होगी, ऑफ द रिकार्ड होगी. उसे छापना नहीं है. यह वादा उन्होंने पहले ले लिया. बिल्कुल निजी बातचीत. गुस्सा आया कि बातचीत भी हो और छापने से मना भी कर दें, तो फायदा क्या?
कोई संपादक जब राहुल गांधी से मिलने जायेगा तो उसके दिमाग में यही बात रहेगी कि उसके अखबार के लिए कौन सी एक्सक्लूसिव खबरे निकल रही है. नेता आम तौर पर सच और सीधी बात नहीं करते. लेकिन, अगर कोई नेता कई ऐसे ‘सच’ बयान कर रहा हो जो खबरें बनने लायक हों, पर उन्हें छापने से मना कर दिया गया हो, तो अखरेगा ही. कुछ देर बाद राहुल गांधी आये. बातचीत हुई. लेकिन कमिटमेंट कर चुका था कि बातचीत को नहीं छापेंगे, इसलिए उसे अखबार में नहीं छापा. लेकिन आप उनके हाव-भाव, मूड पर तो लिख ही सकते हैं. हां, उन्होंने क्या कहा, यह लिखना पत्रकारिता के सिद्धांतों के खिलाफ होगा. राहुल का नौ घंटे के दौरा था. वह आदिवासी महिलाओं व अल्पसंख्यकों से मिले. कुजू में सभा की. ओरमांझी से रांची तक व हजारीबाग में रोड शो किया. इन सबके बाद हम लोगों से मिले.
पूरे दौरे को देखने पर लगा कि राहुल के अंदर कांग्रेस की जमीनी हकीकत और लोगों को समझने की तड़प है. जल्दी-जल्दी वह यह सब जान लेना चाहते हैं. लोगों की पीड़ा, आदिवासियों, महिलाओं की समस्याओं का हल चाहते हैं. अल्पसंख्यकों का विश्वास चाहते हैं. जो लोग 20-25 साल में कांग्रेस से दूर चले गये हैं, उन्हें साथ लाना चाहते हैं. जो सुझाव मिलते हैं, उनके आधार पर पार्टी की ओर से सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं. वे संगठन का विकेंद्रीकरण चाहते हैं. लेकिन उनकी राह में बाधाएं भी कम नहीं दिखतीं. उनकी बातों से लगा कि कांग्रेस के अंदर सबकुछ ठीक नहीं है. नीतियों को तय करने में वैचारिक मतभेद हैं. एक ताकतवर खेमा है, जिसे समझाना आसान नहीं होता.
पूरे दौरे का निचोड़ यह है कि राहुल लोगों के करीब जाने के लिए कोशिश कर रहे हैं. समाज का सबसे कमजोर तबका उनकी प्राथमिक सूची में है. वे महिलाओं को पार्टी और देश में आगे देखना चाहते हैं, उन्हें टिकट भी देना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी पार्टी से टकराना पड़ेगा. वह कांग्रेस को बदलने के लिए बेचैन दिखते हैं. कांग्रेस को पटरी पर नहीं ला पाने और नरेंद्र मोदी-भाजपा की मजबूती का गुस्सा भी कभीकभार उनके चेहरे पर दिखता है. बदलाव लाना कठिन इसलिए दिखता है, क्योंकि इतने सारे काम करने के लिए उनके पास मजबूत-सक्षम टीम नहीं है. कांग्रेस ने जो काम किया भी, वह लोगों तक पहुंच नहीं पा रहा. जिस जमीनी हकीकत को देखने-समझने राहुल झारखंड आये, उसकी भी सही-सही जानकारी उन्हें मिली होगी, इसमें शक है.
।। अनुज सिन्हा ।।
(प्रभात खबर वरिष्ठ संपादक)