28.8 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

दो चेहरों वाली एक नदी

जाबिर हुसैन 247, एमआइजी, लोहिया नगर पटना- 800020 दो अलग-अलग गांवों के बीच बहने वाली मंगुरा नदी अब भी जवान है. इसके सीने में दोनों गांवों के रूप का स्पंदन और दोनों गांवों के जिस्म का स्पर्श छिपा है. इसके किनारे खड़े होकर कोई भी इन गांवों का परस्पर विरोधी चेहरा देख सकता है. मंगूरा […]

जाबिर हुसैन
247, एमआइजी, लोहिया नगर
पटना- 800020
दो अलग-अलग गांवों के बीच बहने वाली मंगुरा नदी अब भी जवान है. इसके सीने में दोनों गांवों के रूप का स्पंदन और दोनों गांवों के जिस्म का स्पर्श छिपा है. इसके किनारे खड़े होकर कोई भी इन गांवों का परस्पर विरोधी चेहरा देख सकता है. मंगूरा नदी के इस पार फैले हैं अच्छी फसलवाले लहलहाते खेत और खेतों के बीच धनी और घनी आबादीवाली बस्तियां.
जो अपने बाजू-भरोसे हल-बैल की जोर आजमाइश से साल भर का अनाज पैदा करती है. शादी और श्राद्ध में हजारों मन दौलत लुटाने की ताकत रखनेवाले लोग. बचे-खुचे पैसों से अपनी हिफाजत के लिए जायज-नाजायज हथियार खरीदने की होड़. पक्के-पुख्ता मकानों का समूह. आमने-सामने, अगल-बगल, माल-जाल. मकानों के बाहर-भीतर अनाज की कोठियां. खुली आवाजें और खुले मुंह. ऊंचे हौसले और बुलंद इरादे. चेहरों पर छाया गोरापन और पेशानी पर लिखी तहजीब. मंगुरा नदी के इसी पार की एक बस्ती के रहनेवाले हैं, बाबू गाजो सिंह.
बाबू गाजो सिंह मुझे मंगुरा नदी के किनारे मिले थे. अपने आठ साल के पोते और भैंस के साथ. हाथों में एक कांटेदार तार की टहनी लिए. कंधे पर एक रंगीन गमछा. आवाज में छिपी कड़वाहट ने ही मेरा ध्यान उनकी ओर खींचा था. बाबू गाजो सिंह मानते हैं कि गांव अब भले लोगों के रहने की जगह नहीं रह गयी है. चोर-उचक्के और लुटेरे गांव की शांति भंग करने में लगे हैं.
भले किसान न कायदे से अपनी खेती कर सकते हैं, और न इत्मीनान से जिंदा रह सकते हैं. कभी-कभी तो उन्हें मरना भी रास नहीं आता है. उनके अनुसार, इलाके के सभी हरिजन-पिछड़े अपराधी हो गये हैं. हथियारों से लैस हो गये है.
मन-बढ़ू और मुंहजोर हो गये है. बाबू गाजो सिंह के अनुसार, वह पहाड़ों की खोह में हथियारों का जखीरा रखते हैं. मेहनत-मजदूरी और कमियागिरी में उनकी दिलचस्पी नहीं रह गयी है. वो जान-बूझ कर मजदूरी का फर्जी सवाल खड़ा करते है. कामचोरी में उनका कोई जवाब नहीं रह गया है.
किसानों की कामचोरी समझ में आनेवाली बात है. मगर मजदूरों की कामचोरी को बाबू गाजो सिंह एक बड़ा जुर्म मानते है. उन्हें यह भी शिकायत है कि जब से इलाके में नयी हवा चली है, मजदूरों के तेवर बदल गये हैं.
सुबह सात बजे से शाम के सात बजे तक जी-तोड़ मेहनत करनेवाले भूईयां और चमार अब नखरों पर उतर आये है. चार बजते-बजते उनके हाथ काम छोड़ने लगते हैं. पहाड़ की चोटी तक सूरज के पहुंचते ही उनका दिन रात में बदलने लगता है. बाबू गाजो सिंह को इस बात का गहरा अफसोस है कि इलाके के भुईयां अब बेगारी के लिए तैयार नहीं होते. सारी किसानी उनकी मर्जी पर निर्भर हो गयी है.
वो चाहेंगे तो खेतों पर हल-बैल चलेंगे. रोपनी होगी और कटनी भी. नहीं चाहेंगे तो बीज छींटने का मौसम आकर यूं ही चला जायेगा. और ढेर सारे किसानों के खेत परती रह जायेंगे. पांच मजदूरों के बीच पच्चीस बीघे. खेत के मालिक बाबू गाजो सिंह बेलारू गांव के निवासी हैं. आज की तारीख में वो सरकार से बेहद खफा है. उनका मानना है कि सरकार गांव की हिंसा को बढ़ावा दे रही है. कैसे दे रही है, पूछने पर बाबू गाजो सिंह अपना सारा गुस्सा नदी उस पार चल रहे हरिजन विद्यालय पर उतार देते हैं.
यहां पढ़ाई होने लगी है. मुसहरों को काॅपी-स्लेट-पेंसिल मुफ्त मिलती है. खाना मुफ्त मिलने लगा है.पहनने को कपड़े और ओढ़ने-बिछाने को कंबल मिलने लगे हैं. इन सुविधाओं से हरिजनों का मिजाज चढ़ गया है. उनमें बराबरी की भावना जग गयी है. मान-अपमान का एहसास जग गया है. बाबू गाजो सिंह मान-अपमान के इस एहसास को सरकार की देन मानते है. उनकी नजर में, यह एहसास गांव में एक उत्तेजना बन कर उभर रहा है. उन्हें गम है कि मुसहरों के बढ़े मिजाज को ठंडा करने के लिए किसानों में एकता नहीं है.
उन्हें इस बात की तकलीफ भी है कि पढ़ाई-लिखाई और कमाई के कारण हरिजन अपने आपको बेहतर इनसान बनाने की सोचने लगे है. उनके जीने के तौर-तरीके बदल रहे हैं. बाबू गाजो सिंह बिफर कर कहते है. सुअर के बखोर में रहनेवालों को स्कूल में जीरा छौंकी दाल मिल रही है.
आलू-बैंगन की सब्जी मिल रही है. जिस दिन दाल कायदे से छौंकी हुई नहीं होती और सब्जी में नमक-तेल की मात्रा कम-बेश हो जाती है, भुईयां की संतानें सामने परोसा खाना खाने से इनकार कर देती है. ये संतानें सामने आनेवाले दिनों में गांव की हरियाली को हिंसा में बदल देंगी और गांव के संपन्न किसानों को भाग कर शहरों में ठौर-ठिकाना खोजना होगा.
बाबू गाजो सिंह एक और वजह से सरकार पर रंज हैं. सरकार ने नदी उस पार चलनेवाले हरिजन आवासीय विद्यालय को नदी इस पार लाने का फैसला कर लिया है. हजारों-हजार ईंटें गिर गयी हैं.
सीमेंट बालू से नये स्कूल की इमारत खड़ी होनी शुरू हो गयी है. कुछ ही दिनों में स्कूल और हॉस्टल नदी के इस पार आ जायेगा. फिर भुईयां संतानें भी मंगुरा नदी के उसी घाट पर नहाना-धोना चाहेगी, जहां अभी सिर्फ बाबू गाजो सिंह का जोर चलता है. बाबू गाजो सिंह की चिंता स्वाभाविक है.
लेकिन, मंगुरा नदी के ठीक उस पार खड़ा धानी मांझी भी मुझे नदी किनारे ही मिला था. टेटारू गांव का विस्थापित मांझी टोला. मगर यहां खेतों की हरियाली और फसलों की बहार देखने को नहीं मिलेगी. पक्के मकान, अनाज की कोठियां, माल-जाल सब कुछ मांझी टोला के भुईंयों में सपनों की तरह है.
उनकी बे-छत झोपड़ियों के आगे बदसूरती फैली है. सामने आकाश तले जेठियन पहाड़ का सिलसिला है. पहाड़ की घाटी है. घाटी के समीप तपोवन की ऐतिहासिक भूमि है. गर्म पानी का कुंड है. और कुंड से सटे संगमरमर की छाती पर पर्यटक भवन का सरकारी एलान है. जगह-जगह, जंगल अधिकारियों की भूखी आंखों से बच कर, भुईयां औरत मर्द पत्थर तोड़ते मिल जायेंगे. घंटों मेहनत करके एक बक्सा पत्थर तोड़ने की कीमत सिर्फ दो रुपये. बाल बच्चे मिल कर पांच-दस बक्से तोड़े तो घर भर को एक दिन का खाना नसीब होगा.
धानों मांझी की जबान में भी तल्खी है. मगर यह तल्खी मंगुरा नदी के उस तरफ होनेवाले बाबू गाजो सिंह की तल्खी से भिन्न है. धानो मांझी के दिनभर मेहनत करने पर सिर्फ दो किलो कच्ची मजदूरी मिलती है. खुराकी के नाम पर तीन पाव कच्ची. उसे घेरारी नहीं मिलती.
कटनी में प्रत्येक इक्कीस बोझे पर एक बोझा ही हासिल होता है. धानों मांझी दहशत भरी जिंदगी जीने का आदि बन चुका है. उसके पास अनगिनत मिसालें हैं. जब खेसारी का साग तोड़ने पर पच्चीस-पच्चीस रुपये का जुर्माना देना पड़ा है. रात-बिरात उठते-बैठते, सोते जागते नदी उस पार से आकर मां-बहन करनेवालों की कमी नहीं. कोई हाट-बाजार से नया कपड़ा खरीद लाये, तो चोरी का इल्जाम लगा कर भुईयां संतानों की पिटाई करना आम बात है.
धानो मांझी और उस जैसे सैकड़ों दूसरे लोग वन विभाग के उस प्रहरी का नाम लेते नहीं थकते, जिसने उन्हें यहां आ कर बसने की सलाह दी. यह अलग बात है कि उस बेचारे को इस हमदर्दी के लिए दूरदराज का तबादला झेलना पड़ा और सरकारी कागजात में उसे मुसहर समर्थक करार दिया गया. मांझी टोले में फैली गरीबी और बीमारी ने इलाकेभर में शोहरत हासिल कर ली है.
शायद यही वजह है कि सरकार ने यहां से सटे तपोवन की ऐतिहासिक पूजा-स्थली में एक पर्यटक भवन की आधारशिला रखी है. लेकिन, भवन तैयार करने से पहले तपोवन के हरिजन विद्यालय को नदी उस पार ले जाना जरूरी समझा गया. मांझी टोला के मुसहरों को भय है कि भवन बनने से पहले उन्हें यहां से उजाड़ दिया जायेगा.
ताकि, तपोवन के गर्म कुंड में स्नान की खातिर आनेवालों की साफ-सुथरी नजरें उन बदसूरत चेहरों पर नहीं पड़े, जो पहाड़ की तलहटी में पत्थर तोड़ने का काम कर रहे हैं और जिनकी आंखें अंदर की तरफ धंसती जा रही हैं. हरिजन विद्यालय में पढ़नेवाला पुजाली भुईयां अभी सिर्फ दस वर्ष का बालक है.
मगर वह जानता है कि उसे साफ-सुथरे कपड़ों में देख कर नदी उस पारवालों के चेहरे पर नफरत के भाव उभर आते है. पुजाली इस नफरत से घबराता नहीं. लेकिन, कभी-कभी उसका मन भारी हो उठता है. मंगुरा नदी के इस पार. मंगुरा नदी के उस पार दो अलग-अलग गांव, दो अलग-अलग चेहरे.
मगर नदी के पानी में आ कर ये दोनों चेहरे मिल गये से लगते है.नदी गहरी और जवान है. इसके सीने में बेलारू के किसानों की नाराजगी और टेटारू के मुसहरों की गुलामी का राज छिपा है. नदी अपने उफान पर है. लेकिन, इस उफान से बेखबर जेठियन पहाड़ की गुफाओं में रहनेवाली आबादी आहिस्ता-आहिस्ता नदी के मुहाने की तरफ बढ़ रही है, जहां मंगुरा नदी लहरों का आंचल फैलाये खड़ी है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें