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बारामूला की शुरुआती गोलीबारी

समसामयिक : आनेवाले समय में नियंत्रण रेखा पर हो सकते हैं और हमले सैयद अता हसनैन पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक का पाकिस्तान द्वारा जोरदार खंडन करना इस बात की पुष्टि है कि भारत की कार्रवाई से पाक सरकार हिल गयी है. ऐसे में आनेवाले कुछ सप्ताहों में नियंत्रण रेखा पर हमले हो सकते हैं. सेना […]

समसामयिक : आनेवाले समय में नियंत्रण रेखा पर हो सकते हैं और हमले
सैयद अता हसनैन
पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक का पाकिस्तान द्वारा जोरदार खंडन करना इस बात की पुष्टि है कि भारत की कार्रवाई से पाक सरकार हिल गयी है. ऐसे में आनेवाले कुछ सप्ताहों में नियंत्रण रेखा पर हमले हो सकते हैं. सेना के ठिकानों को निशाना बनाया जा सकता है. बारामूला हमला तो उसकी एक कड़ी है. हमें सतर्क और चौकस रहने की जरूरत है.
भारत द्वारा पाक-अधिकृत कश्मीर के आतंकी ठिकानों पर किये गये सर्जिकल स्ट्राइक, जिसका पाकिस्तान द्वारा जोरदार खंडन किया गया है, की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी. सच तो यह है कि ऐसी प्रतिक्रिया को हमले की पुष्टि और उसकी सफलता के तौर पर देखा जा सकता है. इस हमले का जवाब देने के लिए पाकिस्तान के प्रभावशाली तंत्र (डीप स्टेट) ने बारामूला स्थित सीमा सुरक्षा बल के शिविरों और 46 राष्ट्रीय राइफल्स के मुख्यालय पर चोरी-छुपे हमला किया है. हमारे सुरक्षा शिविरों को लेकर लोगों में अनेक गलत सूचनाएं हैं. घाटी में संभावित स्थितियों के बारे में समझदार विश्लेषण के साथ इसे दुरुस्त किया जाना चाहिए. बारामूला का हमला पूरी प्रतिक्रिया का एक बहुत छोटा हिस्सा है.
सबसे पहले तो यह समझना होगा कि ऐसी कार्रवाइयों को हमले का नाम देना उन्हें सैन्य वैधता देना है. ऐसी घटनाएं आत्मघाती हमलावरों की गुप-चुप कोशिशें मात्र हैं, जो मर जाने की इच्छा रखते हैं. कार्रवाई के असर का उन्हें अंदाजा बहुत कम होता है और वे थोड़ा-बहुत कुछ करके शोर मचाना चाहते हैं.
बारामूला हमले को बिना किसी योजना के और बिना सोचे-समझे किये गये हमले की श्रेणी में रखना चाहिए, जिसका उद्देश्य जवानों को हताहत करना, ध्यान भंग करना और चेतावनी देना है, ताकि इसकी आड़ में आतंकियों को योजनाबद्ध तरीके से एक के बाद एक हमला करने का समय मिल जाये, जैसी कि संभावना है. यहां यह समझने की जरूरत है कि इस तरह के गुप्त हमलों को रोकना हमेशा ही मुश्किल होता है, क्योंकि हर जगह जवान तैनात नहीं होते हैं.
यदि ऐसी घटना होती है, तो तुरंत दुरुस्त किया जाना चाहिए.विडंबना तो यह है कि भारत हमेशा अपने पुराने अनुभवों को शीघ्र ही भूल जाता है. वर्ष 1999 में हुए करगिल युद्ध के समय भी ऐसा ही हुआ था, जब पाक-अधिकृत कश्मीर के इलाके में वापस भगा दिया गया था. तब पाकिस्तानी आतंकियों के छोटे समूह (स्थानीय कश्मीरी शायद ही कभी-कभार शामिल होते हैं) अनेक शिविरों पर उनकी कमजोरियों का लाभ उठा कर चोरी-छुपे हमले करते थे. वे सेना के लिबास में होते थे. ऐसे में दोस्त या दुश्मन की पहचान मुश्किल हो जाती है. ये लोग मरने तक टिके रहते थे और गंभीर नुकसान पहुंचाते थे. कई बार उन्हें घुसते ही मार दिया गया था.
आखिर उस समय हमला करनेवाले वे आतंकी कौन थे? उनमें से कई पश्चिमी पंजाब की जेल में मृत्युदंड पाये अभियुक्त थे और कई एचआइवी के शिकार थे. उनके परिवारों के लिए ढेर सारा रुपया देकर और धर्म के नाम पर कुछ कर गुजरने का लालच दिया गया था और यह अहसास दिलाया गया था कि वैसे भी वे बरबादी के कगार पर हैं.
उनके काम करने का तरीका यह था कि वे कोई कार या सरकारी वाहन चुराते थे, ताकि उनकी पहचान न हो सके. एक बार तो ये आतंकी वन विभाग के वाहन के सहारे श्रीनगर हवाई अड्डे में घुसने में सफल भी हो गये थे. उन्होंने इस वाहन को एक मंत्री के काफिले के पीछे लगा दिया गया था.
फिदाईन, स्थानीय मीडिया द्वारा प्रयोग किया गया एक गलत शब्द, ने बिना जीत प्राप्त किये ही एक सुनियोजित लक्ष्य साधा. इसका नतीजा यह हुआ कि सुरक्षा बलों पर भारी-भरकम चौकसी बरतने की जिम्मेवारी थोप दी गयी. इस प्रकार सेना को आतंक के खिलाफ जवाबी कार्रवाई के लिए ज्यादा आक्रमक होने की बजाय कहीं ज्यादा रक्षात्मक बना दिया गया.
घाटी में फिलहाल विदेशी आतंकियों की न्यूनतम मौजूदगी और अशांति के माहौल की आड़ लेकर पाकिस्तानी तंत्र ने 1999 के तैर-तरीके को फिर से अपनाया है. इसके तीन अभिप्राय हो सकते हैं. पहला, नियंत्रण रेखा के पार हुए सर्जिकल स्ट्राइक का बदला लेना, दूसरा सुरक्षा बलों- खास कर सेना- पर दबाव बनाना, ताकि वह रक्षात्मक हो जाये और तीसरा, घाटी के युवाओं को इस बात के लिए उकसाना कि वे जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ को सहयोग दे रही सेना की कार्रवाई के आगे घुटने न टेकें.
इन उद्देश्यों से पाकिस्तानी तंत्र नियंत्रण रेखा और इसके आस-पास के क्षेत्रों, जैसे- पुंछ, तंगधार और उड़ी- में हमला करने के लिए पाक-अधिकृत कश्मीर से जरूरी संसाधन प्राप्त कर सकता है, क्योंकि ये उथले क्षेत्र हैं और यहां से घुसपैठ होती है. बारामूला जैसे घाटी के भीतरी इलाकों में हमले के लिए उसे स्लीपर सेल पर उतना भरोसा नहीं है, जितना सोपोर, हंदवारा और राफियाबाद के इलाकों में सक्रिय आतंकियों पर है. उत्तरी कश्मीर में अपर्याप्त संसाधनों के कारण वह संतुलन बिगाड़ने के प्रयास में है.
आत्मघाती हमले मानव संसाधनों को खत्म कर देते हैं और घुसपैठ रोकनेवाला तंत्र मजबूत होने के कारण इनकी संख्या नहीं बढ़ने देगा. अगर हमारी सेना घुसपैठ को रोकने में बेहतर काम करती है, तो हमले नियंत्रण रेखा और आसपास के इलाकों में होंगे. अंदुरूनी इलाकों में लोगों से गहरे जुड़ाव के कारण पाकिस्तानी तंत्र कोशिशें कर सकता है. नियंत्रण रेखा पर रहनेवाली आबादी पाकिस्तान की समर्थक नहीं है.
आनेवाले कुछ सप्ताहों में हम जिस बात की सबसे ज्यादा उम्मीद कर सकते हैं, वह यह कि नियंत्रण रेखा पर हमले हो सकते हैं, वहां सेना के ठिकानों को निशाना बनाया जा सकता है और भीतरी इलाकों में एक बड़े हमले को अंजाम दिया जा सकता है. हमें इन सभी कोशिशों को विफल करना है. घाटी की सड़कों को शांत करने में भी इससे सकारात्मक असर पड़ेगा.
(लेखक उड़ी ब्रिगेड और बारामूला डिविजन की कमान संभालने के बाद श्रीनगर स्थित 15 कोर का नेतृत्व कर चुके हैं.)
(साभार : टाइम्स ऑफ़ इंडिया )

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