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पाकिस्तान के साथ लगती दुर्गम भौगोलिक सीमा पर अब आधुनिक तकनीक के जरिये पहरेदारी
बॉर्डर सिक्योरिटी टेक्नोलॉजी भारत और पाकिस्तान की सीमा दुनिया में सर्वाधिक संवेदनशील सीमाओं में शामिल है. खासकर जम्मू-कश्मीर जैसे पहाड़ी, घाटी और दुर्गम इलाकों में पाकिस्तान की ओर से होनेवाली घुसपैठ की निगरानी करना बेहद मुश्किल समझा जाता है. भारत और पाकिस्तान के बीच तीन हजार किलोमीटर से अधिक लंबी सीमा है, जिसमें 740 किलोमीटर […]
बॉर्डर सिक्योरिटी टेक्नोलॉजी
भारत और पाकिस्तान की सीमा दुनिया में सर्वाधिक संवेदनशील सीमाओं में शामिल है. खासकर जम्मू-कश्मीर जैसे पहाड़ी, घाटी और दुर्गम इलाकों में पाकिस्तान की ओर से होनेवाली घुसपैठ की निगरानी करना बेहद मुश्किल समझा जाता है. भारत और पाकिस्तान के बीच तीन हजार किलोमीटर से अधिक लंबी सीमा है, जिसमें 740 किलोमीटर की नियंत्रण रेखा सहित 1,225 किलोमीटर सीमा सिर्फ जम्मू-कश्मीर में है. यहां सतत पहरेदारी के साथ-साथ तकनीकी साजो-सामान के उपयोग से भी सीमा को सुरक्षित रखने और घुसपैठ रोकने की कोशिशें होती रही हैं, लेकिन पूरी कामयाबी नहीं मिल सकी है.
इसके मद्देनजर अब अत्याधुनिक तकनीकों के जरिये सीमाओं की रक्षा के लिए सरकार तत्पर हो रही है. सीमा की निगरानी और सुरक्षा के लिए सेना और सीमा सुरक्षा बल को नवीनतम तकनीकी साजो-सामान से लैस किये जाने की एक समग्र योजना पर तेजी से काम चल रहा है. सर्जिकल स्ट्राइक में भी सेटेलाइट आधारित आधुनिक तकनीकों की बड़ी भूमिका रही है. पढ़ें, आधुनिक तकनीक आधारित बॉर्डर सेक्युरिटी के महत्वपूर्ण पहलुओं की जानकारी पर आधारित यह विशेष प्रस्तुति…
पाकिस्तान से लगती सीमा पर दो वर्षों के भीतर लगेगा उच्च तकनीक आधारित निगरानी तंत्र
इस साल के शुरू में पठानकोट हमले के तुरंत बाद सरकार ने पाकिस्तान से लगनेवाली 2,900 किलोमीटर लंबी पश्चिमी सीमा पर घुसपैठ को पूरी तरह रोकने के उद्देश्य से पांच-स्तरीय व्यापक योजना की रूपरेखा तैयार की थी. इसके अंतर्गत अत्याधुनिक तकनीकों के माध्यम से चौबीसो घंटे निगरानी की पुख्ता व्यवस्था की जा रही है.
इस वर्ष अगस्त में लोकसभा में एक सवाल के जवाब में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बताया था कि सरकार ने ‘कंप्रिहेंसिव इंटिग्रेटेड बॉर्डर मैनेजमेंट सिस्टम’ को हरी झंडी दे दी है. हालांकि उन्होंने सुरक्षा हितों के कारण इसका विवरण देने से मना कर दिया था. ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस सिस्टम के खास पहलू इस प्रकार हैं-
कंप्रिहेंसिव इंटिग्रेटेड बॉर्डर मैनेजमेंट सिस्टम
– सीमा पार होनेवाली गतिविधियों पर नजर रखने के लिए क्लोज सर्किट टेलीविजन कैमरे, थर्मल इमेज और रात में देख सकनेवाले यंत्र, युद्धक्षेत्र में निगरानी करने की क्षमतावाले राडार, भूमिगत निगरानी के सेंसर तथा लेजर बाड़ लगायी जायेगी.
– लेजर बाड़ जम्मू-कश्मीर से गुजरात तक उन 130 क्षेत्रों में लगायी जायेगी, जहां तारों के बाड़ नहीं हैं. इनमें नदी-नाले और पहाड़ी क्षेत्र भी शामिल हैं, जिनके जरिये घुसपैठिये भारत में प्रवेश करते हैं.
– इस परियोजना पर प्रति किलोमीटर एक करोड़ रुपये का खर्च आयेगा. इसके तहत दो शुरुआती परियोजनाएं जम्मू और पंजाब में चल रही हैं. कुछ अन्य क्षेत्रों में भी ऐसी ही कुछ परियोजनाएं प्रारंभ की जा चुकी हैं.
– पूरी सीमा पर उच्च तकनीक आधारित निगरानी तंत्र अगले दो वर्षों में लगा दिया जायेगा और संभावना है कि 50-60 निजी कंपनियां भी इस परियोजना में हिस्सेदार होंगी.
– हर पांच-छह किलोमीटर पर एक नियंत्रण कक्ष बनाया जायेगा जहां किसी भी तरह की गतिविधि पर नजर रखी जायेगी और जरूरत के अनुसार सीमा सुरक्षा बल को खबर कर दी जायेगी. इस इंटिग्रेटेड प्रणाली में यह भी व्यवस्था होगी कि किसी यंत्र के काम नहीं करने पर इसकी सूचना तुरंत नियंत्रण कक्ष को मिल सकेगी.
– संवेदनशील क्षेत्रों में विभिन्न तकनीकी यंत्रों- सीसीटीवी कैमरा, नाइट थर्मल इमेजर, सेंसर आदि का इस्तेमाल अब भी होता है, लेकिन उनकी तकनीकी क्षमता बहुत अच्छी नहीं है. नयी परियोजना में पुराने तकनीकी यंत्रों को अपग्रेड भी किया जाना है.
– सीमाओं पर प्रकाश की व्यवस्था को भी बेहतर किया जाना है.
सैन्य ठिकानों की सुरक्षा में तैनात होंगे तकनीक से लैस सैकड़ों ड्रोन
भारतीय सेना आगामी सालों में दो अरब डॉलर मूल्य के अत्याधुनिक मिनी-यूएवी (अनमैन्ड एरिअल व्हिकल) यानी ड्रोन पाने की महत्वाकांक्षी योजना पर काम कर रही है. सेंटर फॉर एशियन स्ट्रेटेजिक स्टडीज-इंडिया की एक रिपोर्ट में एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी के हवाले से बताया गया है कि सेना ने 2017 तक 1600 मानवरहित छोटे यानों की जरूरत का प्रस्ताव रखा है. इन्हें मुख्य रूप से सीमा-क्षेत्रों में स्थित सैन्य ठिकानों और इकाइयों की सुरक्षा के लिए तैनात किया जायेगा. सेना चाहती है कि इन ड्रोनों की क्षमता 10 किलोमीटर हो और ये जरूरी आधुनिक तकनीकों से लैस हों. इन यानों को तोपखानों, हथियार पता करनेवाले राडारों, बड़े ड्रोनों, एअरोस्टैट राडारों तथा चेतावनी देनेवाले वायुयानों के साथ जोड़ने की भी योजना है.
सेटेलाइट आधारित लेजर वाल के जरिये सीमा की हर हलचल पर नजर
पा किस्तान से जुड़ी सीमा पर संवेदनशील क्षेत्रों में हाइटेक निगरानी के लिए कई जगहों पर लेजर वाल (अदृश्य दीवार) से निगरानी शुरू कर दी गयी है. कश्मीर घाटी में दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण आतंकी अक्सर सीमा पार से घुसपैठ की घटना को अंजाम देते हैं. ऐसे इलाकों में फेंसिंग यानी तारबंदी के भरोसे घुसपैठ को रोकना मुश्किल होने के कारण लेजर वाल का उपाय निकाला गया और जगह-जगह लेजर उपकरण इंस्टॉल किये गये हैं या किये जा रहे हैं.
इन लेजर दीवारों को इस तरह से डिजाइन किया गया है, ताकि आसपास किसी तरह की अवांछित गतिविधि दिखने पर यह सिस्टम उसे डिटेक्ट कर लेगा. अगर कोई घुसपैठिया इस लेजर वाल को पार करने की कोशिश करेगा, तो तेज आवाज में सायरन बजने लगेगा. सेंसर के माध्यम से सेटेलाइट आधारित सिगनल कमांड सिस्टम के जरिये निगरानी रखी जायेगी.
लेजर सुरक्षा बाड़ तंत्र की कार्यप्रणाली
इस सिस्टम में एक लेजर जेनरेटर होता है, जो लेजर बीम पैदा करता है और प्रकाश के परावर्तन की प्रक्रिया के अनुरूप काम करता है. इसमें एक खास दूरी पर दो मिरर इस तरह से लगाये जाते हैं, ताकि लेजर से निकली बीम को ये आपस में रिफ्लेक्ट कर सकें. इसके लिए इनका एलाइनमेंट एकदम सटीक तरीके से किया जाता है और इन्हें एक लेजर कलेक्टर से जोड़ा जाता है. इस लेजर कलेक्टर और लेजर जेनरेटर के साथ एक माइक्रोप्रोसेसर को भी संबद्ध किया जाता है. किसी तरह की घुसपैठ होने की दशा में बीम का फोकस टूट या बिखर जाता है. ऐसा होने पर लेजर कलेक्टर लेजर बीम को पूरी तरह से रिसीव नहीं कर पाता है. ऐसी दशा में माइक्रोप्रोसेसर से जोड़ा गया अलार्म सिस्टम तत्काल यह सिगनल जारी करता है कि लेजर बीम के बीच में कोई बाधा पैदा हो रही है, जो किसी घुसपैठ की वजह से हो सकती है. यानी लेजर बीम के बीच में किसी तरह के व्यवधान की दशा में माइक्रोप्रोसेसर उसे तुरंत डिटेक्ट कर लेता है और संबंधित अलर्ट जारी करता है.
लेजर वाल की खासियत
इस सिस्टम की खासियत है कि यह रात के अंधेरे के अलावा कोहरे के दौरान भी निगरानी करने में सक्षम होगा. यह वाल लेजर लाइटों के अलावा इंफ्रारेड प्रणाली से भी लैस है, जो घुसपैठ का समग्रता से पता लगाने में सक्षम है. इसकी सबसे खास बात यह है कि इसका पता आतंकी घुसपैठियों को भी नहीं चल पायेगा कि इस सिस्टम को कहां-कहां इंस्टॉल किया गया है और कितने इलाके में यह निगरानी कर रहा है.
सेटेलाइट से जुड़ा होता है इसका सेंसर
लेजर वाल प्रकाश की किरणों की बनी दीवार होती है, जिसमें लगाये खास सेंसर सेटेलाइट से जुड़े होते हैं. इस दीवार में प्रवाहित होनेवाले प्रकाशीय कण यानी फोटोन का प्रवाह किसी भी कारण से बाधित होने पर सेंसर के जरिये सेटेलाइट तक यह सूचना पहुंच जाती है यानी तत्काल जान लिया जाता है कि घुसपैठ की घटना को अंजाम दिया जा रहा है. ऐसे में सेटेलाइट इस डिवाइस से जुड़े अलार्म को सूचित करता है और वह अपनेआप कंट्रोल रूम को संदेश भेजता है.
सैन्य निगरानी में अब सेटेलाइट की भूमिका महत्वपूर्ण
भारतीय सेना ने हाल में जिस बहुचर्चित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को अंजाम दिया, उसमें इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसांधन संगठन) के तीन सेटेलाइट ने भी बड़ी भूमिका निभायी है. दरअसल, पाकिस्तान की अवांछित हरकतों पर नजर रखने के लिए भारतीय सेना इसरो से मदद ले रही है, जो इन तीन सेटेलाइट के जरिये इन हरकतों पर निगाह रखता है :
कार्टोसेट-1
– यह भारत का पहला सुदूर संवेदन उपग्रह है, जो थ्रीडी तसवीर मुहैया कराने में सक्षम है.
– सामान्य रूप से इसका इस्तेमाल नक्शा बनाने के लिए और भौगोलिक सूचना प्रणाली के विविध उपयोगों यथा- डिजिटल एलिवेशन मॉडल आदि के लिए किया जाता है.
– इस सेटेलाइट में उच्च क्षमतावाले कैमरा लगे हुए हैं, जो धरती की चीजों को 2.5 मीटर तक नेविगेट कर सकते हैं यानी इससे छोटी कार तक को पहचाना जा सकता है.
– मई, 2005 में इस शृंखला का पहला सेटेलाइट लॉन्च किया गया था और उसके बाद से अब तक पीएसएलवी-सी6 के जरिये श्रीहरिकोटा से इस शृंखला के कई अन्य सेटेलाइट भेजे जा चुके हैं.
– इसमें लगे हुए सोलर सिस्टम से 1,100 वॉट बिजली पैदा होती है, जिससे इसे ऊर्जा हासिल होती है. इसका वजन 1,560 किलो है.
कार्टोसेट-2
– कार्टोसेट-2 पीएसएलवी-सी 34 द्वारा ले जाये जानेवाला इस शृंखला का मुख्य उपग्रह है. यह कार्टोसेट-2ए और 2बी के समान है.
– इसके द्वारा भेजी गयी तसवीरों को लैंड इन्फॉर्मेशन सिस्टम और जियोग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम व सड़क नेटवर्क की मॉनीटरिंग के अलावा तटीय क्षेत्रों में निगरानी के लिए भी किया जाता है.
– पीएसएलवी-सी 34 के जरिये कार्टोसेट-2 शृंखला के उपग्रह को इसी वर्ष जून में लॉन्च किया गया है.
– इससे हासिल तसवीरों को नियमित रूप से रिमोट सेंसिंग की सेवाएं मुहैया कराने के लिए किया जा रहा है, जिसमें पैनक्रोमेटिक ओर मल्टी-स्पेक्ट्रल कैमरों का इस्तेमाल किया गया है.
रिसोर्ससैट- 2
– यह इस शृंखला का दूसरा और रिमोट सेंसिंग के लिहाज से इसरो द्वारा इस्तेमाल में लाया जानेवाला 18वां सेटेलाइट है, जो इसकी सेवाएं ले रहे विभिन्न देशों की कई एजेंसियों और संगठनों को आंकड़े मुहैया कराता है.
– यह 70 किमी की ऊंचाई से 7 से 10 बाइट तक उन्नत रेडियोमेट्रिक आंकड़े मुहैया कराने में सक्षम है.
– कनाडा के सहयोग से इसमें एक अतिरिक्त पेलोड भी भेजा गया है, जिसे एआइएस यानी ऑटोमेटिक आइडेंटिफिकेशन सिस्टम के नाम से जाना जाता है. यह सिस्टम समुद्री जहाजों की सटीक भौगोलिक स्थिति और उनकी स्पीड के अलावा अन्य जरूरी सूचना मुहैया करायेगा, जिससे इनकी निगरानी में मदद मिलेगी.
– इस सेटेलाइट में 200 गिगा बाइट की क्षमतावाले दो सॉलिड स्टेट रिकॉर्डर लगे हुए हैं, जिनमें इस सेटेलाइट द्वारा ली गयी इमेज स्टोर की जाती है. इससे धरती पर संचालन केंद्र से ही इन तसवीरों को देखा जा सकता है.
– 56 मीटर के खास रिजोलुशन के इसमें एडवांस्ड वाइड-फिल्ड सेंसर लगे हैं.
– 23.5 मीटर खास रिजोलुशन के इसमें लाइनर इमेजिंग सेल्फ-स्कैनिंग सेंसर लगे हुए हैं.
– इसका वजन 1,206 किलो है. इस शृंखला के पहले सेटेलाइट को अप्रैल, 2011 में श्रीहरिकोटा से लॉन्च किया गया था.
(स्रोत : इसरो)
बॉर्डर की सुरक्षा में प्रयोग होनेवाली कुछ अन्य डिटेक्शन टेक्नोलॉजी
राडार
आम तौर पर इसका इस्तेमाल सुदूर स्थित चीजों की सटीक जानकारी, उसकी दिशा और दूरी आदि को जानने के लिए किया जाता है. थल सेना राडार का इस्तेमाल मुख्य रूप से घुसपैठ की पहचान करने के लिए करती है और वायु सेना दुश्मन के किसी लड़ाकू विमान के घुसने पर निगाह रखने में करती है. इसकी बड़ी खासियत है कि मौसम और प्रकृति की मार का असर इस पर कम पड़ता है, लिहाजा दुर्गम इलाकों के लिए यह ज्यादा उपयोगी है.
रेडियो सेंसर्स
आतंकी समूह भी अब आधुनिक संचार सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिनकी आपसी बातचीत को पकड़ने की दशा में सेना को उनकी संभावित गतिविधियों के बारे में जानकारी मिल जाती है. आतंकी समूहों व सीमापार के सैनिकों के बीच होनेवाली आपसी बातचीत को जानने के लिए रेडियो सेंसर का इस्तेमाल कियाजाता है.
सिस्मिक डिटेक्टर्स
सिस्मिक डिटेक्टर्स भूमिगत तरीके से आवाज को पकड़ने की तकनीक पर आधारित है. एक प्रकार से इसमें एस्ट्रोफिजिक्स की मदद भी ली जाती है. सीमा से सटे इलाकों में दुश्मन देश द्वारा किसी तरह का विस्फोट या उसका परीक्षण करने की दशा में सिस्मिक डिटेक्टर्स के जरिये उसकी तीव्रता को जाना जाता है.
न्यूक्लियर डिटेक्टर
भूमिगत परमाणु विस्फोटकों का पता लगाने के लिए सेंसिटीव सिस्मोग्राफ का इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि, भारतीय सेना के पास फिलहाल इसकी कितनी क्षमता है, इस बारे में सटीक तौर पर नहीं कहा जा सकता है, लेकिन उत्तरी कोरिया द्वारा किये जानेवाले भूमिगत परमाणु विस्फोटों के बारे में अमेरिकी सेना इसी तकनीक के जरिये यह जानकारी हासिल करती है.
मैग्नेटिक डिटेक्टर्स
इसका इस्तेमाल समुद्री इलाकों में उड़ान भरनेवाले विमानों द्वारा किया जाता है, जो समुद्र के भीतर किसी पनडुब्बी के बारे में पता लगाते हैं. इसके लिए मैग्नेटिक डिटेक्टर्स का सहारा लिया जाता है. चूंकि पनडुब्बी में ज्यादा मात्रा में धातुओं का इस्तेमाल किया जाता है, लिहाजा इनके आसपास चुंबकीय क्षेत्र में गड़बड़ी होने के आधार पर ये डिटेक्टर्स इसका पता लगाते हैं.
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