कैंसर के बेहतर इलाज के प्रयासों की कड़ी में इम्यूनोथेरेपी ने एक नयी उम्मीद जगायी है. हालांकि, इसका परीक्षण अभी आरंभिक दौर में हैं, लेकिन अब तक की कामयाबी से विशेषज्ञों ने उम्मीद जतायी है कि भविष्य में कैंसर के इलाज में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है. अब तक की सफलता के मद्देनजर इम्यूनोथेरेपी को ‘अमेरिकन सोसायटी ऑफ क्लिनिकल ओंकोलॉजी एडवांस ऑफ द इयर अवॉर्ड 2016’ दिया गया है. पुरस्कार देनेवाली समिति का कहना है कि इम्यूनोथेरेपी में अनेक प्रकार के कैंसर से लड़ने के साक्ष्य दिखे हैं.
यहां तक कि कैंसर के जिन मरीजों में पारंपरिक इलाज कराने के बावजूद ज्यादा सुधार नहीं हुआ, इम्यूनोथेरेपी उनमें भी कैंसर के ग्रोथ को रोकने में कामयाब रहा है, जो एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है. क्या है इम्यूनोथेरेपी, इससे कैंसर के इलाज में कितनी कामयाबी मिली है और क्या है इससे जुड़ी आशंकाएं, बता रहा है यह आलेख …
कैंसर के इलाज में इम्यूनोथेरेपी एक नयी उम्मीद जगा रही है. इससे से जुड़े हालिया परीक्षणों की कामयाबी के आधार पर विशेषज्ञों ने उम्मीद जतायी है कि भविष्य में कैंसर के इलाज में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है. अमेरिका में कई बायोटेक कंपनियों ने इस थेरेपी के आधार पर दवाएं विकसित की हैं, जिनमें से कुछ की सफलता दर बेहतर पायी गयी है.
परीक्षणों के बाद शोधकर्ताओं ने इसे कैंसर के कुछ प्रारूपों के इलाज के लिए माकूल बताया है, हालांकि कुछ अन्य के लिए यह ज्यादा कामयाब नहीं रहा है. अलग-अलग पीड़ितों में इसकी सफलता दर में विभिन्नता का बड़ा कारण उनके खान-पान और मद्यपान से भी जुड़ा रहा है. फेफड़े के कैंसर से पीड़ितों में इसकी कामयाबी की दर अब तक 25 फीसदी के करीब ही पायी गयी है.
अन्य थेरेपीज की भांति फिलहाल इसमें भी कई समस्याएं हैं और शोधकर्ता ऐसी कोशिशों में जुटे हैं, जिससे इलाज के इस
तरीके को ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के लिए प्रभावी बनाया जा सके. चूंकि अन्य दवाओं के मुकाबले इम्यूनोथेरेपी ज्यादा महंगी है, लिहाजा कई कंपनियां इसे सस्ती करने के उपाय भी तलाश रही हैं. अन्य दवाओं के मिश्रित इस्तेमाल से भी इसे प्रभावी बनाने की कोशिश जारी है. इसके लिए दो या तीन इम्यूनोथेरेपी के मिश्रणों का परीक्षण किया जा रहा है.
चर्चा में है इम्यूनोथेरेपी
इम्यूनोथेरेपी की प्रक्रिया के तहत इम्यून सिस्टम को मैनिपुलेट किया जाता है. हालांकि, मेडिकल एडवांसेज के तहत विकसित किये गये ज्यादातर नये सिस्टम को प्रयोग में लाने के लिए डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को पहले मरीजों पर वास्तविक रूप से व्यापक परीक्षण करना होता है, जिसके नतीजों में कई बार फर्क आ जाता है. लंग कैंसर से पीड़ित अपनी पत्नी के चौथे स्टेज के रोगनिदान के बारे में ‘द न्यू यॉर्क टाइम्स’ की एक रिपोर्ट में मैट जेब्लो ने बताया है कि ऑपडिवो नामक इम्यूनोथेरेपी की दवा का परीक्षण उनकी पत्नी पर कामयाब नहीं हो सका. रिपोर्ट के मुताबिक, पूर्व में किये गये इस दवा के परीक्षणों में भी यह महज 20 फीसदी मरीजों पर ही यह कामयाब हो पाया.
हालांकि, जेब्लो यह भी कहते हैं कि इम्यूनोथेरेपी में ऐसे हजारों या शायद लाखों लोगों को बचाने की क्षमता है, लेकिन वास्तविक आंकड़ों के बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी. अमेरिका में यह थेरेपी और दवा आजकल चर्चा में है, क्योंकि वहां कैंसर से होनेवाली मृत्यु के मामलों में सर्वाधिक फेफड़ों के कैंसर के पाये जाते हैं और अन्य देशों में भी इसकी भयावहता बढ़ रही है. अनेक लोगों द्वारा इस तरह के अनुभव साझा किये जाने के बाद से इन दवाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने पर जोर दिया गया है.
जानें, इम्यूनोथेरेपी है क्या
इम्यूनोथेरेपी या बायोलॉजिकल थेरेपी एक नये प्रकार का मेडिसिन है, जो बीमारियों से लड़ने के लिए हमारे अपने शरीर में मौजूद प्राकृतिक प्रतिरक्षी सिस्टम को प्रोत्साहित करता है.
हालांकि, इसका अब तक ज्यादा शोध कैंसर के इलाज के संदर्भ में किया गया है, लेकिन सिजोफ्रेनिया और अल्जाइमर जैसी न्यूरोलॉजिकल बीमारियों पर भी इसका परीक्षण किया गया है.इस ट्रीटमेंट के तहत शरीर के इम्यून सिस्टम के जरिये ट्यूमर को पहचान कर उस पर हमला किया जाता है. दरअसल, हमारा इम्यून सिस्टम आक्रमण करनेवाले संक्रमणों से लड़ता है, लेकिन कैंसर कोशिकाओं से नहीं लड़ सकता, जो शरीर में होते तो हैं सामान्य कोशिकाओं की तरह ही, पर विकृत प्रारूप में होते हैं.
इम्यूनोथेरेपी में मुख्य रूप से पांच चीजों को शामिल किया गया है, जो इस प्रकार हैं :
– मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज : हमारा इम्यून सिस्टम प्राकृतिक रूप से प्रोटीन पैदा करता है, जिसे एंटीबॉडीज कहा जाता है और यह इंफेक्शन से लड़ता है. मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज को प्रयोगशाला में पैदा किया जाता है और यह शरीर के प्राकृतिक प्रतिरक्षण का ही प्रतिरूप होता है. यह शरीर में पैदा होनेवाले विरूपित कैंसर कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है. इप्लिमुंब, निवोलुंब और मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज जैसी दवाएं इसका उदाहरण हैं.
– नॉन-स्पेसिफिक इम्यूनोथेरेपीज : इसमें लैबोरेटरी में बनाया गया प्रोटीन इंटरफेरॉन और इंटरल्यूकिंस है, जो कैंसर से लड़ने के लिए शरीर में इम्यून सिस्टम विकसित करते हैं.
– ओंकोलिटिक वायरस थेरेपी : कैंसर कोशिकाओं को खत्म करने के लिए इस थेरेपी में जेनेटिकली मोडिफाइड वायरस से काम लिया जाता है. 2015 में अमेरिका के संबंधित नियामक ने त्वचा कैंसर से निबटने के लिए ओंकोलिटिक वायरस की मंजूरी दी.
– टी-सेल थेरेपी : कैंसर कोशिकाओं की पहचान करने के लिए यह मरीज के खून में से टी-सेल्स निकालता है और उसमें रिसेप्टर प्रोटीन को मिलाते हुए उन्हें पहचानता है. इसे सिमेरिक एंटीजेन रिसेप्टर टी-सेल थेरेपी या सीएआर-टी के नाम से भी जाना जाता है.
– कैंसर वैक्सिन : ये वैक्सिन एंटीजेन पैदा करते हैं, जिन्हें शरीर में कैंसर कोशिकाओं की पहचान होने पर उन्हें नष्ट करने के लिए दिया जाता है.
कितनी कारगर है यह थेरेपी
दशकों से जारी शोधों और परीक्षणों के अनेक दिलचस्प अध्ययनों में हाल के वर्षों में यह दर्शाया गया है कि कैंसर के कई प्रारूपों में इलाज के तौर पर इम्यूनोथेरेपी काम करती है. मेलोनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) और फेफड़े के कैंसर समेत कुछ अन्य प्रकार के कैंसर में इम्यूनोथेरेपी दवा बेहद कामयाबी पायी गयी है, जिसके इस्तेमाल से इम्यून सिस्टम को कैंसर कोशिकाओं की मौजूदगी के बारे में सतर्क किया गया.
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कहना जल्दबाजी होगी कि इससे कैंसर इलाज समग्रता से हो सकता है, लेकिन इसके परीक्षणों से हासिल अब तक के नतीजों के आधार पर कहा जा सकता है कि अनेक मामलों में इस बीमारी से पीड़ितों को 10 वर्षों तक उन्हें जीवित रखने में कारगर साबित हुआ है, जिस दौरान उनमें कैंसर का कोई लक्षण नहीं पाया गया.
कितनी है सफलता दर?
दरअसल, यह इस क्षेत्र की ऐसी बड़ी चुनौती है, जिससे वैज्ञानिकों को जूझना पड़ रहा है. अब तक के परीक्षणों में इसकी सफलता दर 20 फीसदी के आसपास ही देखी गयी है. वैज्ञानिकों के लिए अब यह जानने की बड़ी चुनौती है कि किन लोगों को इससे फायदा हो सकता है और किन लोगों को नहीं हो सकता है. साथ ही, जिन्हें इसका फायदा नहीं हो सकता है, उसका क्या कारण है.
क्या हैं इसके साइड-इफेक्ट
यह एक अन्य बड़ा मसला है, जिस पर विज्ञानिक कार्यरत हैं. ‘द गार्डियन’ की एक रिपोर्ट में इम्यूनोथेरेपी की दो दवाओं- इपिलिमुमब और पेंब्रोलिजमब- में साइड इफेक्ट पाये गये हैं. इसमें त्वचा पर होनेवाले दुष्परिणामों और मांश-पेशियों में दर्द व खिंचाव महसूस होने के साथ बीमार पड़ने के अलावा कुछ मामलों में किडनी की समस्याएं और आंख व कान पर घातक असर देखा गया है़ कुछ लोगों ने इन कारणों से दवा लेना छोड़ने के बारे में भी बताया, जबकि कइयों ने इन साइड-इफेक्ट का महीनों तक इलाज कराया़
कैसे होता है साइड इफेक्ट?
दरअसल, यह दवा इम्यून सिस्टम में बदलाव लाते हुए ट्यूमर पर हमला करता है, लेकिन इस दौरान सेहतमंद ऊतकों का भी नुकसान होने का अंदेशा रहता है, क्योंकि यह उन दोनों में फर्क नहीं कर पाता है.
नयी दवा आइएमएम-101
आइएमएम-101 नामक इस दवा को इम्यून मॉड्यूलेटर कहा जाता है. मूल रूप से इसे कैंसर वैक्सिन के लिए विकसित किया गया था, लेकिन इम्यूनोथेरेपी के लिए यह सक्षम पाया गया. इसमें एक्टिवेटेड बैक्टीरियम मिले हुए हैं. मौजूदा इम्यूनोथेरेपी की दवाओं के मुकाबले इसमें अनेक खासियतें हैं. अब तक इसका कोई साइड-इफेक्ट नहीं देखा गया है, जो एक बड़ी कामयाबी है. इम्यूनोथेरेपी की कोई अन्य दवा अब तक नहीं है, जिससे शरीर में टॉक्सिसिटी का विकास नहीं होता हो.
न्यू रिसर्च
कोशिका में वायरस घुसने से रोकने की कोशिश
वैज्ञानिकों ने पहली बार कोशिकाओं पर प्रहार करनेवाले वायरसों का अनुसरण करने के लिए उसी तरह का एक वायरस विकसित किया है और उम्मीद जतायी है कि एंटी-वायरल थेरेपी के तौर पर मौजूदा थेरेपियों के मुकाबले आनेवाले समय में यह प्रभावी भूमिका में होगी.
‘साइंस एलर्ट’ के मुताबिक, इस परीक्षण को इस तरीके से अंजाम दिया गया था, ताकि यह जाना जा सके कि इससे वायरस के प्रोटीन शेल कितने प्रभावित होते हैं. दरअसल, शोधकर्ता यह जानने में जुटे हैं कि वायरस कोशिकाओं में कैसे घुसते हैं, ताकि उन्हें कारगर तरीके से रोका जा सके. हालांकि, पूर्व में वायरल इंफेक्शन की नकल की कोशिश की गयी थी, जो नाकामयाब रही थी, लेकिन पेन स्टेन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने यह दर्शाया है कि यह प्रक्रिया किस तरह से कारगर साबित हो सकती है.
इसमें समग्र बदलाव के बजाय शोधकर्ताओं ने वायरस के केवल उस हिस्से में बदलाव किया है, जो कोशिकाओं के रिसेप्टर्स से इंटरेक्ट होता है और इंफेक्शन के दौरान आकार बदल लेता है. यूनिवर्सिटी ऑफ पीटसबर्ग स्कूल ऑफ मेडिसिन के सहयोगियों के साथ मिल कर कोशिका के कृत्रिम सतह के निर्माण के लिए इन्होंने नैनोडिस्क्स नामक मॉक मेंब्रेन का इस्तेमाल किया.
हेल्थ अपडेट
दिमाग के मानने से जुड़ा है निकोटिन का असर!
सिगरेट पीनेवालों को निकोटिन महज इसलिए अपने काबू में करता है, क्योंकि उन्हें यह भरोसा होता है कि वे जो सिगरेट पी रहे हैं, उसमें वह मिला हुआ है. मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये एक शोध अध्ययन के हवाले से प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘फ्रंटियर्स’ में बताया गया है केवल उन्हीं स्मोकर्स को स्मोकिंग की संतुष्टि हुई, जिन्हें यह बताया गया था कि उनके सिगरेट में निकोटिन मिला हुआ था.
जिन लोगों को बिना निकोटिन वाली सिगरेट दी गयी, लेकिन उन्हें यह बताया गया कि उनके सिगरेट में निकोटिन मिला हुआ है, तो ऐसे लोगों को भी इस सिगरेट से संतुष्टि मिली. शोधकर्ताओं ने ज्यादा सिगरेट पीनेवाले 24 लोगों को चुना और सिगरेट पीने के बाद एफएमआरआइ मशीन के जरिये मस्तिष्क की गतिविधियों की जांच की. परीक्षण के दौरान प्रत्येक स्मोकर को चार अलग-अलग समय पर बुलाया जाता था, लेकिन उनमें से दो बार उन्हें वास्तविक सिगरेट दी जाती थी. एक बार उन्हें कहा जाता था कि उसमें निकोटिन मिला है, जबकि दूसरी बार कहा जाता था कि नहीं मिला है.
फ्यूचर प्रोडक्ट
बैकपैक की तरह वैक्सिन ढोनेवाला रेफ्रिजरेटर
ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में मेडिकल सप्लाइ ट्रांसपोर्टेशन अब भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. खासकर वैक्सिन और अन्य ऐसी चीजें, जिन्हें रेफ्रिजरेटर में ले जाना जरूरी होता है, लेकिन वहां तक उन्हें पहुंचाने में कई दिनों का समय लगता है.
‘पॉपुलर साइंस’ की रिपोर्ट के मुताबिक, एक ब्रिटिश छात्र ने एक ऐसे सामान्य डिवाइस का विकास किया है, जिसके माध्यम से दूरदराज के इलाकों में वैक्सिन जैसी चीजों को उसकी गुणवत्ता कायम रखते हुए ले जाने में मददगार साबित होगा और इससे दुनियाभर में लाखों लोगों की जान बचायी जा सकती है.
लोबोरो यूनिवर्सिटी के विल ब्रॉडवे ने अमोनिया के रिएक्शन से कूलिंग इफेक्ट को कारगर बनाते हुए इस छोटे से रेफ्रीजरेटर को विकसित किया है, जिसे बैकपैक की तरह टांग कर कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है. बताया गया है कि इसके स्थिर तापमान में इसमें रखे गये वैक्सिन की गुणवत्ता करीब एक माह तक कायम रहती है.
प्रस्तुति – कन्हैया झा