लौटते हुए मिली वह. आंखों में जाने कब के गिले जमा थे. कनपटियों पर बाल पक आये थे. थोड़ी उम्र दराज लगने लगी थी. अरसा हो गया था मिले हुए. “भूल गये हो. अब ख्याल भी नही आता.” मैं बुरी तरह हैरान था. कंधों पर अफसोस के कांटे उग आये थे. रगों को तोड़ता हुआ कोई दर्द बह निकला था. सिर्फ 4-5 मिनट का वक्त बाकी था. फिर उसे चले जाना था.
अंधेरा गहराता जा रहा था. बातें करने की लत हमेशा से मेरे हिस्से रही है. मगर आज सिर्फ वह बोल रही थी. “इधर से गुजर रही थी. तुम्हें हाथों में किताब लिये देखा, तो रुक गयी. अब भी उतना ही पढ़ते हो? थोड़े सांवले से हो गये हो. और रहो धूप के साथ!“
उसे सब कुछ याद था. वह हॉस्टल के लॉन में लेट कर किताबें पढ़ना. कभी सिर उसकी गोदी में रख देना, तो कभी उसके कान के बूंदों पर अंगूठे के नाखून से हल्की चोट करना. कभी-कभी तो किताबों से लफ्ज़ निकाल उसकी जुल्फों में फंसा देना. और फिर उन्हीं लफ्ज़ों को घुमा-फिरा नज्म का जूड़ा बना देना. जिंदगी में कितना कुछ खो दिया है. या जिंदगी ही खो दी है. मैं उस एक-एक लम्हे का मर्सिया पढ़ रहा था, जो उसके बगैर खर्च हुए वह जितनी देर मेरे पास रही, मैं भीतर ही भीतर टूटता रहा. खत्म होता रहा. “चलती हूं अब. माना बहुत मशरूफ रहते हो. पर मिलते रहना. तुम एक रोज लौटोगे. मुझे पक्का यकीन था.
अब लौट ही आये हो, तो साथ रहना.” पश्चिम के आकाश में न जाने कैसी हलचल थी. शायद दिन भर का थका-मांदा सूरज रात की चारपाई पर गिर गया हो. वह जा चुकी थी. रात की बरौनियों पर अमलतास के पीले फूल उग आये थे.
यह कोई कहानी नहीं, सच है. आज छुट्टी का दिन था. देर तक बालकनी में बैठ किताब पढ़ता रहा. थक गया तो आसमान देखता रहा. अचानक ही मिली वह. जिंदगी की आपाधापी में उसे कब का भूल चुका था. आज अरसे बाद महसूस हुआ कि जिंदा हूं. वह लौटती हुई एक शाम थी.