ताजनगरी आगरा में ताजमहल से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है ‘शीरोज हैंगआउट कैफे’. यह आगरा को दुनिया में एक अलग पहचान दे रहा है. इस कैफे को कुछ ऐसी महिलाएं मिल कर चलातीं हैं, जिनमें एक समानता यह है कि वे सभी एसिड हमला पीड़ित हैं और यह उनके हौसलों की पहचान है.
‘शीरोज हैंगआउट’ की शुरुआत 10 दिसंबर, 2014 को हुई. आइडिया था एसिड हमले की शिकार लक्ष्मी का. मकसद था ऐसे हमलों की शिकार महिलाओं का पुनर्वास. इसे चला रही हैं एसिड हमले की शिकार ऋतु, रूपाली, डोली, नीतू और गीता नाम की पांच महिलाएं. ‘शीरोज हैंगआउट’ का कामकाज संभालने वाली ऋतु हरियाणा के रोहतक, रूपाली मुजफ्फरनगर की रहनेवाली हैं, जबकि डोली, नीतू और गीता आगरा की ही रहने वाली हैं. इस अनोखे कैफे की शुरुआत का श्रेय जाता है लक्ष्मी को, जो एसिड हमले की शिकार महिलाओं के हक के लिए संघर्षरत हैं.
और अब अपनी संस्था छांव फाउंडेशन के जरिये उनके पुर्नवास का काम देख रही हैं. ‘शीरोज हैंगआउट’ का कामकाज देखने वाली ऋतु का कहना है कि इसे शुरू करने का मुख्य उद्देश्य एसिड हमले से पीड़ित लड़कियों का पुनर्वास करना था, क्योंकि ऐसी लड़कियां एक तरह से समाज से कट जाती हैं और उन्हें रोजगार संबंधी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है.
‘शीरोज हैंगआउट’ की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां के मेन्यू कार्ड में किसी भी चीज का दाम नहीं रखा गया है. यहां आनेवाला ग्राहक अपनी मरजी के मुताबिक अपना बिल अदा करता है. कैफे के संचालकों के मुताबिक इसके पीछे खास वजह यह है कि यहां पर कोई भी अमीर या गरीब आ सकता है. इसके अलावा यहां आने वाले लोग ये भी जान सकें कि ‘शीरोज हैंगआउट’ को किस उद्देश्य से शुरू किया गया है. ‘शीरोज हैंगआउट’ में पांच एसिड हमला पीड़ितों के अलावा सात अन्य लोग भी काम करते हैं.
इस कैफे में खाने-पीने की चीजों के अलावा डिजाइनर ड्रेसेज, हैंडीक्राफ्ट और किताबें भी मिलती हैं. ‘शीरोज हैंगआउट’ को आगरा में मिली अच्छी प्रतिक्रिया के बाद इसकी एक शाखा लखनऊ में खोली गयी है. भविष्य में इसके और विस्तार की भी योजना है.
‘शीरोज हैंगआउट’ हफ्ते में सातों दिन सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक खुला रहता है. शुरुआती दिनों में इसे काफी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन अब हालात बदल गये हैं. आज यह कैफे अपने कर्मचारियों का वेतन और दुकान का किराया निकालकर मुनाफे में आ गया है. स्टोर की संचालिका ऋतु के मुताबिक ‘शीरोज हैंगआउट’ के मुनाफे को पीड़ितों के इलाज और उनके विकास के लिए खर्च किया जाता है. वह कहतीं हैं, यहां पर आने वाले ज्यादातर ग्राहक विदेशी सैलानी होते हैं. इस कैफे की भीतरी और बाहरी दीवारों को तरह-तरह की पेंटिंग्स से सजाया गया है, जो यहां से गुजरनेवाले पर्यटकों का ध्यान अनायास ही खींच लेता है. इनमें से कई लोग तो यहां पर सिर्फ एसिड हमला पीड़ित लोगों से बात करने या उनकी दास्तां सुनने के लिए आते हैं.
यहां आनेवालों में कई ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो ये जानने की कोशिश करते हैं कि वह किस तरह अपने बिजनेस मॉडल पर काम कर रहीं हैं. ऋतु कहती हैं कि जब लोगों को हमारे बारे में पता चलता है, तो कई बार वो चाय-नाश्ता करने नहीं बल्कि हमसे बात करने के लिए आते हैं. ऋतु के मुताबिक ‘शीरोज हैंगआउट’ की शुरुआत यह सोच कर की गयी थी कि एसिड हमले के पीड़ित को किसी बात के लिए मोहताज न होना पड़े और वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें.
ताजमहल को अगर मोहब्बत की निशानी माना जाता है तो ‘शीरोज हैंगआउट’ एक ऐसी जगह है, जो उम्मीद है जिंदगी की, एहसास है तमाम मुश्किलों के बाद भी कुछ करने का, हौसला है परिस्थितियों से लगातार लड़कर उबरने का, चाहत है खुद को फिर से संवारने की और एक हिम्मत है ऐसे जाबांज महिलाओं के पुनर्वास का जो एसिड हमलों की शिकार हैं.