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समापन समारोह: लैंड प्रॉब्लम झारखंड की सबसे बड़ी समस्या

झारखंड में समावेशी व टिकाऊ विकास (इनक्लूसिव एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट) विषय पर आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का समापन रविवार को हुआ. विश्वा सभागार, कांके रांची में इसका आयोजन इंस्टीट्यूट अॉफ ह्यूमन डेवलपमेंट (आइएचडी) के पूर्वी क्षेत्र केंद्र (रांची) की ओर से किया गया था. समापन समारोह में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री व नीति आयोग के सदस्य […]

झारखंड में समावेशी व टिकाऊ विकास (इनक्लूसिव एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट) विषय पर आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का समापन रविवार को हुआ. विश्वा सभागार, कांके रांची में इसका आयोजन इंस्टीट्यूट अॉफ ह्यूमन डेवलपमेंट (आइएचडी) के पूर्वी क्षेत्र केंद्र (रांची) की ओर से किया गया था. समापन समारोह में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री व नीति आयोग के सदस्य डॉ बिबेक डेबरॉय ने झारखंड में विकास के मुद्दे पर अपना व्याख्यान दिया. अन्य लोगों ने भी अपने विचार रखे.

रांची: सामाजिक विकास दर तीन चीजों से जुड़ी है.जमीन, प्राकृतिक संसाधन तथा विधि व्यवस्था (लॉ एंड अॉर्डर) से. पर झारखंड में जमीन की समस्या (लैंड प्रॉब्लम) राज्य की सबसे बड़ी समस्या है. इसे सुलझाये बगैर झारखंड की समस्या नहीं सुलझेगी. यहां 1932 में अंगरेजों का कराया लैंड सर्वे ही अब तक उपयोग में लाया जा रहा है. दरअसल जमीन का मुद्दा झारखंड का सबसे पेचीदा मुद्दा भी है. लोगों ने मुझे कई बार राज्य के जमीन संबंधी कानून (लैंड लॉ) के बारे में समझाया, पर मैं नहीं समझ सका.उक्त बातें प्रसिद्ध अर्थशास्त्री व नीति अायोग के सदस्य डॉ बिबेक डेबरॉय ने ही.

डॉ डेबरॉय ने कहा कि झारखंड में कौन सी जमीन किसकी है, यह कहना मुश्किल है. उन्होंने मजाकिया लहजे में कहा कि रांची में भी एचइसी को छोड़ किसी जमीन के बारे पक्का कुछ कहना मुश्किल है. प्राकृतिक संसाधन तो यहां ठीक हैं, पर झारखंड की दूसरी सबसे बड़ी समस्या श्रम क्षेत्र की है. यहां के ज्यादातर मजदूर असंगिठत क्षेत्र में हैं. ठेकेदार के हाथों में. पर अब तक ठेकेदारों के लिए कोई रेग्यूलेशनरी सिस्टम (नियामक व्यवस्था) नहीं है. अब इस हालात में अाप सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं. डॉ डेबरॉय ने कहा कि गरीबी व असमानता दो अलग-अलग चीजें हैं. गरीबी तो झारखंड में या कहीं भी अपने आप समझी जा सकती है. पर असमानता तुलनात्मक चीज है. झारखंड में दूसरे राज्यों की तरह कार्य नहीं होने से ही असमानता बढ़ी है. यहां उच्च शिक्षा की भी बदतर स्थिति है.

अब लॉ एंड अाॅर्डर की बात. यह सिर्फ संसाधन व क्षमता का मामला नहीं है. राजस्थान में कुल थाने में से 150 को आइएसअो सर्टिफिकेट मिला है. वहां के एक थाने को दुनिया का सबसे बेहतर थाना तथा दूसरे को दूसरा सबसे बेहतर थाना बताया गया है. मैं थाने को पीपुल फ्रेंडली (जन सामान्य के लिए दोस्ताना माहौल वाला) बनाने की बात कर रहा हूं. ऐसे प्रयास तो कहीं भी किये जा सकते हैं. किसी भी सरकार या समाज की बुनियादी जरूरत लॉ एंड अॉर्डर को बनाये रखने के लिए यह जरूरी है. डॉ डेबरॉय ने कहा कि पिछले मुख्यमंत्री ने झारखंड में विकास की योजना बनाने के लिए एक कमेटी बनायी थी. मुझे उसका अध्यक्ष बनाया गया था. उस वक्त राज्य को समझने के लिए मैं झारखंड के सभी जिलों में घूमा. इस दौरान कई लोगों से संपर्क किया. यह जानने के लिए कि क्या करना चाहिए. इस कार्यक्रम का विषय राज्य का समावेशी तथा टिकाऊ विकास है. समावेशी (इनक्लूसिव) शब्द का अर्थ तथा इसकी परिभाषा क्या है? मेरी समझ से जरूरी जन सेवाअों (रोजगार, गरीबी हटाना व अन्य) को लोगों के लिए सुनिश्चित करना. किसी के लिए 40 चीजें जरूरी हो सकती हैं, पर हमारा देश गरीब है. झारखंड में भी संसाधन की कमी है. हमें प्राथमिकताएं तय करनी होंगी. जैसे हम अपने घर में करते हैं. अपनी क्षमता व संसाधन के अनुरूप. किसी भी सरकार के लिए तीन बुनियादी चीजें हैं,जो उसे अपने नागरिकों को उपलब्ध कराना चाहिए.

पहला दुरुस्त विधि व्यवस्था (लॉ एंड अॉर्डर). यह दुनिया के किसी भी देश-समाज की बुनियादी जरूरत है. दूसरा आधारभूत संरचनाएं. जैसे सड़क, बिजली व पानी तथा तीसरा शिक्षा, कौशल व स्वास्थ्य सुविधाएं. सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवलपमेंट गोल या एमडीजी) में इन बुनियादी चीजों को रखा गया था. अब टिकाऊ विकास लक्ष्य (सस्टेनेबेल डेवलपमेंट गोल या एसडीजी) तय किये गये हैं. यह देश व राज्यों को करना है. हमने इस पर सहमति जतायी है. विकास कार्य या इसकी पूर्ति में एक अौर बड़ी बाधा है. वह है अविश्वसनीय अांकड़े. इनकी गुणवत्ता ठीक नहीं है. माइक्रो इकोनॉमिक से जुड़े आंकड़े कमोबेश सही हैं. पर सड़क, बिजली, शिक्षा व स्वासथ्य से जुड़े आंकड़ों पर भरोसा मुश्किल है. वहीं विभिन्न केंद्रीय तथा राज्य योजनाअों या कार्यक्रम की मॉनिटरिंग भी एक बड़ी समस्या है. इससे पहले अाइएचडी, दिल्ली के अलख नारायण शर्मा ने सबका स्वागत किया. अर्थशास्त्री डॉ रमेश शरण ने धन्यवाद ज्ञापन किया. कार्यक्रम में देश भर से आये विशेषज्ञों, शिक्षाविदों, प्रशासकों व रिसर्च स्कॉलर ने भाग लिया.

सरकार खुद ठोंक रही अपनी पीठ : भगत

गैर सरकारी संस्था विकास भारती के सचिव पद्मश्री अशोक भगत ने कहा कि डॉ डेबरॉय की डाटा संबंधी बातों से मैं भी सहमत हूं. दरअसल सरकार खुद अपनी पीठ ठोंक रही है. बोला कुछ जाता है, हो कुछ रहा है. सरकार को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह देश-समाज को बदल देंगे. विकास के मुद्दे पर श्री भगत ने सवाल कि इसके लिए विश्व बैंक (वर्ल्ड बैंक) या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से ऋण लेने की क्या जरूरत है. हमारा राज्य हर्बल, हॉर्टिकल्चर तथा प्राकृतिक संसाधनों वाला राज्य है. स्वायत समाज वाला भी. इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. श्री भगत ने कहा कि झारखंड में विकास के नाम पर सिर्फ भवन (पुराने भवनों की उपयोगिता जाने बगैर) बन रहे हैं. सरकार को यह तय कर लेना चाहिए कि वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी. बुनियादी सवालों को छोड़ कर हम हाइफाइ प्लानिंग नहीं कर सकते.

बनी रहती है बदलाव की संभावना : डॉ ज्यां द्रेज

रांची विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर डॉ ज्यां द्रेज ने कहा कि हमेशा दूसरों को देख कर सीखने की कोशिश करनी चाहिए. झारखंड को भी वैसे राज्यों को उदाहरण में रख कर काम करना चाहिए, जिन्होंने अपने राज्य के विकास में सामाजिक नीतियों को बेहतर तरीके से लागू किया है. कई मामलों में आज भी झारखंड पीछे है. छत्तीसगढ़ में पीडीएस सिस्टम आज काफी बेहतर हो गया है. वहां 10 साल पहले काफी बुरी स्थिति थी. पूरी व्यवस्था पर माफिया हावी थे. भ्रष्टाचार चरम पर था. आज स्थिति बदल गयी है. बायोमेट्रिक पीडीएस सिस्टम झारखंड जैसे राज्य के लिए उचित नहीं होगा. राजस्थान ने यह प्रयोग किया था. इससे 50 फीसदी लोगों को राशन का आवंटन नहीं हो पाता था. उन्होंने कहा कि हमेशा बनी रहती है बदलाव की संभावना. झारखंड में मिड डे मिल में सुधार हो रहा है. झारखंड का विकास नहीं होने का कारण यहां के राजनेताओं में इच्छा शक्ति की कमी है. सामाजिक क्षेत्र में बदलाव मजबूूत इच्छाशक्ति से ही हो सकता है.

महिलाओं को सुरक्षा देने की जरूरत : डॉ मैत्रेयी

विश्व बैंक में सामाजिक समावेशीकरण की ग्लोबल हेड डॉ मैत्रेयी दास ने महिलाओं को सुरक्षित माहौल प्रदान करने की वकालत की है. उन्होंने कहा कि ऐसी बात नहीं है कि महिलाओं को डिग्निफाइड जॉब नहीं मिल रहे हैं, पर सुरक्षा घर के अंदर और घर के बाहर देना जरूरी है. उन्होंने कहा है कि 10-13 वर्ष की बालिकाओं से कभी पूछा नहीं जाता कि वह क्या करना चाहती है. 18 वर्ष के बाद उनकी शादी कर दी जाती है. 20 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते पारिवारिक उलझनों व अन्य में फंस कर बालिकाओं का जीवन बरबाद हो रहा है. मध्य पूर्व के देश, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में महिलाओं के लिए रोजगार की संभावनाएं नहीं के बराबर हैं. सरकार को महिलाओं, बालिकाओं के लिए बेहतर रोजगार के अवसर के साथ-साथ उनकी सुरक्षा को प्राथमिकता प्रदान करनी होगी. रोजगार के साधन सिर्फ निजी सेक्टरों तक ही सीमित न हों. सरकारी कार्यालयों में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है.

अंतराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने रांची पहुंची डॉ मैत्रेयी ने कहा कि गांवों की लड़कियां आठवीं व दसवीं पास करने के बाद औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आइटीआइ) और पॉलिटेक्निक में दाखिला ले रही हैं, पर उनका क्या हो रहा है. यह कोई देखने वाला नहीं है. सरकारों की नीतियां महिला उत्थान और उनके विकास पर आधारित नहीं हैं. भारत ही नहीं, अमेरिका व यूरोप में भी यही स्थिति है. महिलाओं की रोजगार संबंधी नीतियों को टॉप-डाउन आधार पर तय करने की जरूरत है. महिलाओं की स्थिति का आकलन शहरी और ग्रामीण, अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अन्य आधार पर करना चाहिए.

आदिवासी खो रहे हैं जमीन,मिल कुछ नहीं रहा : वर्जीनियस खाखा

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, गुवाहाटी कैंपस के निदेशक वर्जीनियस खाखा ने कहा कि झारखंड के आदिवासी अपनी जमीन व संस्कृति खो रहे हैं. धर्म से दूर हो रहे हैं, लेकिन मिल कुछ नहीं रहा है. उनकी जमीनें जा रही हैं. इसकी वह बड़ी कीमत चुका रहे हैं. यहां ट्राइबल सब प्लान का पैसा खर्च नहीं होता है. संविधान में किये गये प्रावधानों की रक्षा नहीं हो रही है. इनकी जनसंख्या घट रही है. आजादी के 60 साल बाद भी वह राजनीतिक शक्ति नहीं बन पाये हैं. आजादी के बाद इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी. उस वक्त रोजगार भी थे, तो आदिवासी पढ़े-लिखे नहीं थे. आज आदिवासी पढ़े लिखे हैं, तो रोजगार घट गये हैं. झारखंड तो ऐसा राज्य है, जहां की सरकार आदिवासियों के तय प्रावधानों के विरोध में कहीं-कहीं खड़ी दिखती है.

झारखंड में ज्यादा है क्रोनिक पोवर्टी : सोनलडे देसाई

मैरीलैंड यूनिवर्सिटी (यूएसए) के समाजशास्त्री विभाग की प्रोफेसर सोनलडे देसाई ने सोशल पॉलिसी फॉर इंक्लुशन एंड डेवलपमेंट इन झारखंड विषय पर आयोजित परिचर्चा को चेयर किया. उन्होंने कहा कि झारखंड में क्रोनिक पोवर्टी ज्यादा है. क्रोनिक पोवर्टी का मतलब वैसी गरीबी से है जो सदियों से चली आ रही है. ऐसे लोगों की सामाजिक स्थिति में बदलाव नहीं हो रहा है. दूसरे प्रदेशों में ऐसा नहीं है. दूसरे प्रदेशों में ट्रांजिनेट पोवर्टी (जो किसी कारणवश गरीब हो गये है) की संख्या ज्यादा है. इस कारण झारखंड व अन्य प्रदेशों में इनके उन्मूलन के लिए चलायी जाने वाली योजना अलग-अलग होनी चाहिए. पूरे देश के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को एक चश्मे से नहीं देखा जा सकता है. झारखंड में क्रोनिक पोवर्टी के कारण आदिवासियों का जीवन स्तर नहीं उठ रहा है. यहां की बड़ी आबादी आदिवासियों की है. आदिवासी बहुल इलाकों में ज्यादा गरीबी है. इससे उबरने के लिए एक साथ कई तरह के प्रयास करने होंगे.

शासन के लिए झारखंड देश का सबसे मुश्किल राज्य : प्रो अलख

पाथवे फॉर इनक्लूसिव डेवलपमेंट इन झारखंड विषय पर अपनी बात रखते हुए इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट के निदेशक प्रो अलख नारायण शर्मा ने झारखंड को शासन के लिए देश का सबसे मुश्किल राज्य बताया. उन्होंने कहा कि राज्य की सभी जातियों की समानताएं जगह के अनुसार बदल जाती हैं. लोगों की आय में स्थान के अनुसार परिवर्तन हो जाता है. पड़ोसी राज्यों से ज्यादा प्रति व्यक्ति आय होने के बाद भी झारखंड की ग्रामीण आबादी सबसे गरीब है. शहरी विकास सबसे ज्यादा बिगड़ा हुआ है. रांची, जमशेदपुर, धनबाद, बोकारो और देवघर तक ही शहरी विकास सिमटा हुआ है. योजनाओं के बड़े आकार की वजह से भी राज्य का विकास बाधित है. राज्य की केवल सात प्रतिशत ग्रामीण आबादी ही पांच हजार या अधिक आबादी वाले गांवों में रहती है. 50 फीसदी से अधिक लोग 500 से कम जनसंख्या वाले गांवों में रहते हैं. इसके लिए सरकार छोटे स्तर पर विकास योजनाएं बना कर लागू करे. शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में कमी लाने के लिए काम करना होगा. छोटे व मंझोले उद्योगों से रोजगार उत्पन्न करने की कोशिश करनी होगी.

गरीबी कम करने व प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की जरूरत : डॉ सुदिप्तो मंडल

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी नयी दिल्ली के इमीरेट्स प्रोफेसर डॉ सुदिप्तो मंडल का मानना है कि झारखंड में गरीबी कम करने और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि झारखंड एक औद्योगिक राज्य होने के बाद भी गरीब है. यहां के लोगों की आमदनी काफी कम है. जनजातीय समुदायों को आज तक सही मायने में आजादी नहीं मिल पायी है. इसका मुख्य कारण है कि आदिवासियों को यहां के संसाधनों पर नियंत्रण करने का कोई अधिकार नहीं है. आज भी यह समुदाय आंतरिक कोलोनिज्म का शिकार है. झारखंड के संसाधनों का लाभ यहां के लोगों को मिलने से जनजातीय समुदाय का भी अपेक्षित विकास होगा. उन्होंने कहा कि हम यह पूर्व में देख चुके हैं कि कैसे लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में जनजातीय आबादी औद्योगीकरण की वजह से त्रासदी जीवन बीता रही है. रांची में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने आये डॉ मंडल के अनुसार यहां की नौकरशाही उजाड़ जैसी है. यहां राजनीतिक अस्थिरता भी विकास में बड़ी बाधक बनी. नौकरशाहों पर नियंत्रण के लिए मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत है. झारखंड में नौकरशाहों की डिलिवरी क्षमता बढ़ाने की जरूरत है. जिस तरह गुजरात, बिहार और तमिलनाडु में सशक्त मुख्यमंत्री हुए, उसी प्रकार का नेतृत्व झारखंड में भी चाहिए. नौकरशाह स्वास्थ्य, सिंचाई व सड़क की योजना में अधिक दिलचस्पी लें. क्योंकि इसके लिए कोई नीतिगत फैसले की नहीं, खुद के कमिटमेंट की जरूरत है. उन्होंने वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने की बात कहीं. उन्होंने कहा कि खनिज और खनिजों के दोहन में आदिवासियों की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है.

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