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मोटापे से बढ़ता जोखिम : विविध हेल्थ रिसर्च के नतीजों से हासिल निष्कर्ष
मौत को दावत देता मोटापा दुनियाभर में मोटापे की बढ़ती समस्या के साथ स्वास्थ्य का जोखिम बढ़ रहा है़ हालांकि, इससे बचाव के अनेक उपाय मौजूद हैं, लेकिन ज्यादातर लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, जिस कारण यह समस्या भयावह होती जा रही है. पिछले काफी समय से दुनियाभर में शोधकर्ता मोटापे से जुड़े […]
मौत को दावत देता मोटापा
दुनियाभर में मोटापे की बढ़ती समस्या के साथ स्वास्थ्य का जोखिम बढ़ रहा है़ हालांकि, इससे बचाव के अनेक उपाय मौजूद हैं, लेकिन ज्यादातर लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, जिस कारण यह समस्या भयावह होती जा रही है. पिछले काफी समय से दुनियाभर में शोधकर्ता मोटापे से जुड़े विविध कारणों और उनके निदान को ढूंढ़ने में लगे हैं. हाल ही में इस संबंध में अनेक शोध रिपोर्ट प्रकाशित की गयी है, जिनमें से कुछ प्रमुख के बारे में बता रहा है आज का यह यह आलेख …
मोटे पुरुषों में 70 वर्ष से कम उम्र में निधन की आशंका
50 फीसदी ज्यादा!
मो टापा के कारण महिलाओं के मुकाबले पुरुषों के 70 वर्ष से कम उम्र में निधन होने की आशंका 50 फीसदी ज्यादा होती है. मोटापा और इससे स्वास्थ्य को होनेवाले नुकसान के आकलन के लिए शोधकर्ताओं की एक बड़ी इंटरनेशनल टीम का गठन किया गया था. दुनियाभर में 239 बड़े अध्ययनों के तहत वर्ष 1970 से लेकर 2015 के बीच शोधकर्ताओं ने 36 लाख वयस्कों पर इस अध्ययन को अंजाम दिया गया. इसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण-पूर्व एशिया के 32 देशों को शामिल किया गया था. ‘कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड’ के शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों में मोटापा ज्यादा घातक है.
दरअसल, लिवर फैट और इंसुलिन स्तरों के बदलाव के मामले में महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले संवेदनशीलता ज्यादा होती है, लिहाजा महिलाओं पर इसका दुष्प्रभाव कम पड़ता है. इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के डॉक्टर एमानुएल डी एंजलएंटोनियो का कहना है कि महिलाओं में मोटापा के कारण 70 वर्ष से पहले मृत्यु का जोखिम महज 15 फीसदी तक बढ़ता है.
‘लेंसेट’ में छपी इस रिपोर्ट के मुताबिक, इसका बड़ा कारण यह माना गया है कि उम्र बढ़ने के साथ मोटे लोगों में टाइप 2 डाइबिटीज के विकसित होने का जोखिम बढ़ जाता है. साथ ही लिवर और हार्ट भी विविध बीमारियों की चपेट में आने लगता है. मोटे पुरुषों की जीवन प्रत्याशा में औसतन प्रत्येक तीन वर्ष के बाद एक वर्ष की कमी हो जाती है.
इस शोध के नतीजे मृत्यु के अन्य जोखिमों से प्रभावित नहीं हों, इसके लिए पूरा ख्याल रखा गया. इस अध्ययन में ऐसे लोगों को शामिल नहीं किया गया, जो किसी नशीले पदार्थ का सेवन करते हैं या पूर्व में कर चुके हैं. शोधकर्ताओं ने लोगों को उनके ‘बॉडी मास इंडेक्स’ के मुताबिक अलग-अलग समूहों में बांटते हुए अध्ययन किया. हालांकि, पूर्व में किये गये रिसर्च में मोटापा को मृत्यु के बड़े कारणों के रूप में नहीं पाया गया था, लेकिन इस रिपोर्ट में इसकी स्पष्ट रूप से चर्चा की गयी है.
इनसान के दिमाग में विकसित होता है मोटापा!
मोटापा एक दिमागी बीमारी है, जो पश्चिमी खानपान अपनाने के कारण बढ़ती जा रही है. शोधकर्ताओं का कहना है कि जब हमें भूख लगती है, तो हमारे दिमाग में सबसे ज्यादा भोजन से जुड़ी अच्छी यादें ही चलती रहती हैं. हालांकि, जब हम छक कर खाना खा लेते हैं, तब कुछ देर के वे यादें धुंधली पड़ जाती हैं, लेकिन भूख लगने पर वे फिर से दिमाग में ताजा होने लगती हैं.
ऑस्ट्रेलिया की मैक्यूरी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि उच्च बसा व चीनीयुक्त और कम फलों व सब्जियों वाले पश्चिमी खानपान ने हमारे दिमाग की सामान्य प्रक्रिया को बाधित कर दिया है. मीठे और बसायुक्त जंक फूड हमारी स्मृति निषेध क्षमता को प्रभावित करते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि पर्याप्त भोजन करने के बाद भी खाने की सुगंध और स्थान से जुड़ी मजेदार यादें हमारे दिमाग में बैठ जाती हैं.
ऑस्ट्रेलियन रिसर्च काउंसिल के सहयोग से इस संबंध में सेहतमंद युवाओं पर अध्ययन किया गया. इसमें शामिल प्रतिभागियों का जंक फूड खाने के बाद अध्ययन किया गया, जिसके आधार पर ये नतीजे हासिल किये गये हैं.
उन प्रतिभागियों को चीजों को सीखने और याद रखने में कठिनाई महसूस हुई, जो पश्चिमी-स्टाइल का खानपान लेने के अभ्यस्त हो चुके हैं. इस दौरान पाया गया कि जब भी भोजन की बात आती, तो ये लोग स्नैक्स या अन्य खाद्य पदार्थ लेने से खुद को रोक नहीं पाते. यहां तक कि कई बार पर्याप्त भोजन करने के बावजूद ये लोग खाना जारी रखते हैं. देखा गया कि भोजन में सब्जियों, फलों और फाइबर की ज्यादा मात्रा लेनेवालों को भोजन के बाद जब और चीजें खाने को दी गयीं, तो उन्होंने साफ मना कर दिया.
हालांकि, अब तक इस तरह का परीक्षण पशुओं पर ही किया गया था, लेकिन पुर्तगाल में आयोजित ओबेसिटी कॉन्फ्रेंस में पेश किये गये अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, इंसानों में भोजन, याद्दाश्त और मोटापा में आपसी संबंध पाया गया है.
पतले लोग होते हैं ज्यादा प्रतिभाशाली!
मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने भी कुछ इस तरह के परीक्षण किये हैं, जिसमें उन्होंने पाया कि टेस्टी स्नैक्स या जंक फूड देखते ही मोटे लोग उस पर टूट पड़ते हैं. इन मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे खाद्य पदार्थ देखते ही उनके दिमाग के खास हिस्से इस लिहाज से ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं. अध्ययन रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि मोटे लोगों के मुकाबले पतले लोग ज्यादा प्रतिभाशाली होते हैं.
शोधकर्ताअों का यह भी कहना है कि इन तथ्यों से यह भी साबित होता है कि आखिरकार मोटे लोग अपने लिए कम कैलोरी वाला डाइट क्यों चुनते हैं? क्योंकि भोजन के मामले में वे खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते. दावा किया गया है कि मोटे लोगों में दिमाग के प्रमुख क्षेत्रों में भूरे और सफेद मैटर की संख्या कम होती है. शोध के मुख्य लेखक और मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर एलेंग्जेंडर जॉनसन का कहना है कि समाज में खानपान के नये-नये व्यंजनों और फास्ट फूड आदि की अधिकता के कारण लोग भोजन की ओर ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं.
बचपन में जल्दी सोनेवालों में मोटापे का जोखिम कम
बचपन में रात को आठ बजे से पहले सोनेवाले बड़े बच्चों में उम्र बढ़ने के साथ मोटापे का जोखिम कम हो सकता है. ‘जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स’ के मुताबिक, ‘द ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ पब्लिक हेल्थ’ के शोधकर्ताओं ने पाया है कि रात को नौ बजे के बाद सोनेवाले बच्चों में बड़े होने पर मोटापे का जोखिम ज्यादा हो जाता है. शोधकर्ताओं ने इसके लिए एक व्यापक अध्ययन को अंजाम दिया है. ‘अर्ली चाइल्ड एंड यूथ डेवलपमेंट’ नामक एक प्राेजेक्ट के तहत अमेरिका में वर्ष 1991 में 10 अलग-अलग जगहों पर जन्मे 977 स्वस्थ बच्चों काे इस अध्ययन के लिए चुना गया और बचपन से ही उनके संबंधित आंकड़े एकत्रित किये गये. करीब पांच वर्ष के बाद इन सभी बच्चों को सोने के समय के हिसाब से तीन समूहों में बांटा गया. इनमें करीब एक-चौथाई बच्चे आठ बजे तक, जबकि आधे बच्चे आठ से नौ बजे के बीच और शेष नौ बजे के बाद सोते थे.
सोने के समय के 10 वर्षों तक आंकड़े एकत्रित करने के बाद बच्चों के मोटापे के स्तर से उसे जोड़ कर जब उसका आकलन किया गया, तब उनकी उम्र करीब 15 वर्ष हो चुकी थी. नतीजों में यह दर्शाया गया है कि आठ बजे से पहले सोने वाले बच्चों में किशोरवय में केवल 10 फीसदी ही मोटे हुए थे. दूसरी ओर आठ के बाद और नौ बजे से पहले सोनेवाले बच्चों में किशोरवय में 16 फीसदी मोटे हो चुके थे. वहीं रात नौ बजे के बाद सोनेवाले बच्चों में किशोरवय में यह संख्या सबसे ज्यादा (23 फीसदी) पायी गयी.
न्यू िरसर्च
समय रहते होगी ग्लूकोमा की पहचान
मौ जूदा समय में इनसान की आंखों में होनेवाली बीमारी ग्लूकोमा यानी मोतियाबिंद की पहचान उस बीमारी के होेने के बाद हो पाती है. शोधकर्ताओं ने एक ऐसे सिस्टम का विकास किया है, जिससे अब चार साल पहले ही उसकी पहचान की जा सकती है. आंखों की रोशनी खत्म होने का बड़ा कारण मोतियाबिंद माना जाता है.
आरंभिक अवस्था में इसे डिटेक्ट कर पाना मुश्किल होता है, क्योंकि मरीज को किसी प्रकार की गड़बड़ी महसूस नहीं होती है, ताकि वह टेस्ट कराये. ‘साइंस एलर्ट’ के मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इसके लिए एक नये डायग्नोस्टिक टेस्ट ईजाद किया है. इस के तहत मरीज को एक निर्दिष्ट आकार और तीव्रता वाले प्रकाश के छोटे डॉट्स को कहा जाता है. यदि मरीज उन डॉट्स को नहीं देख पाता है, तो मतलब आंख में ब्लाइंड स्पॉट्स बन रहे हैं, जो मोतियाबिंद के आरंभ होने के लक्षण होते हैं. हालांकि, इस बीमारी के कारणों को अब तक सटीक तौर पर नहीं जाना जा सका है, लेकिन समय रहते इसकी पहचान होने की दशा में आंखों को होनेवाले नुकसान से बचाया जा सकता है.
25 मिनट की ‘मौत’ के बाद बची जान
ब्रिटेन में एक स्विमिंग पूल में नहाते समय 11 साल के एक बच्चे के हृदय की धड़कनें थम गयीं. उसे तत्काल मेडिकल सहायता मुहैया करायी गयी और करीब 25 मिनट के बाद आश्यर्चजनक रूप से उसका हृदय धड़कने लगा.
डेली मेल के मुताबिक, केड एविंगटन नामक यह बालक स्विमिंग पूल में अचानक अचेत हो गया, लेकिन उसके टीचर ने इस बात का समझ लिया और महज पांच मिनट में उसे बाहर निकाल कर उसे लाइफ-सेविंग सीपीआर की मदद से उसे ठीक करने की कोशिश की और जल्दी उसे ग्रेट ऑरमोंड स्ट्रीट हॉस्पिटल ले जाया गया. यहां डॉक्टर ने दो दिनों तक उसके ब्रेन को पूरी तरह से निगरानी में रखा, जो इस घटना में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था.
उसके ब्रेन में हुए किसी तरह की इंज्यूरी को जानने के लिए उसे दो सप्ताह तक हॉस्पिटल में ही रखा गया, लेकिन इस दौरान दिमाग में कोई क्षति नहीं पायी गयी.
उसके शरीर में इम्प्लांटेबल कार्डियोवैस्कुलर डीफाइब्रिलेटर को फिट किया गया है, ताकि यदि उसे कार्डिएक एरेस्ट होगा यानी हृदय की गति थम जायेगी, तो यह उसे बचा सकता है. दरअसल, यह आइसीडी एक बैटरी- संचालित सिस्टम है, जो इनसान के हृदय की घड़कनों पर निगाह रखता है. किसी तरह की असामान्य गतिविधि की दशा में यह डिवाइस इलेक्ट्रिक शॉक पैदा करेगा, जिससे वह शरीर के हालात को सामान्य बना सके.
स्मार्ट स्टिच से होगी घाव की निगरानी
मे डिसिन की दुनिया में स्टिच को भले ही अब लाे-टेक के प्रतीक के तौर पर समझा जाता हो, लेकिन अब इसे हाइ-टेक बनाया जा रहा है. ‘पॉपुलर साइंस’ के मुताबिक, शोधकर्ताओं टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के इंजीनियरों की एक टीम ने एक ‘स्मार्ट स्टिच’ को विकसित किया है. दरअसल, इस स्टिच के धागे खास किस्म के बनाये गये हैं, जिसमें बेसिक कॉटन से लेकर सोफिस्टिकेटेड सिंथेटिक तक को शामिल किया गया है. शोधकर्ताओं ने इसे इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफ्लूड्स और नैनो-स्केल सेंसरों से जोड़ा है, ताकि इसे इलाज का हाइ-टेक रूप दिया जा सके. इस स्टिच को शरीर में जहां लगाया जायेगा, उस स्थान से यह घाव को ठीक करने से संबंधित आंकड़े (मसलन- टिश्यू टेंपरेचर, पीएच, ग्लूकोज लेवल और उसका तनाव व हो रहे दर्द आदि) को जुटायेगा. इस आंकड़ों को वह स्मार्टफोन या कंप्यूटर के माध्यम से डॉक्टर या हेल्थ प्रोफेशनल को मुहैया करायेगा, जो रीयल-टाइम में आपके घाव की निगरानी करेंगे.
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